नरेंद्र मोदी-अमित शाह युगल ने भले ही चुनावी राजनीति में भारतीय जनता पार्टी को नई ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया हो, पर बाकी मोर्चों पर दोनों ने निहायत ही औसत दर्जे की प्रतिभाओं का नेतृत्व किया है. मोदी सरकार का मानव संसाधन का गंभीर संकट अब उजागर होने लगा है.
लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था से लेकर बिना विचारे बयान देने वाले मंत्री और बेदम मंत्रिमंडल तक, अधिकांश क्षेत्रों में भाजपा सरकार में प्रतिभाओं का या तो नितांत अभाव है, या वो बेहद औसत दर्जे की हैं.
मंत्रिपरिषद की बात हो या सरकार गठित किए विभिन्न संगठनों और संस्थानों की, या फिर प्रतिभाओं को साथ बनाए रखने में मोदी सरकार की नाकामी की– जिसका असर अर्थव्यवस्था की खस्ता हालत में देखा जा सकता है– स्थिति बिल्कुल स्पष्ट नज़र आती है. जब देश फरवरी 2020 के बजट की ओर उम्मीद भरी टकटकी लगाए हो, ऐसे में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को बदले जाने की अटकलें यही जाहिर करती हैं कि सरकार के पास ऐसा कोई नाम नहीं है जोकि आत्मविश्वास का संचार कर सके.
मोदी सरकार को 2014 में सत्तासीन होने के समय से ही प्रतिभाओं के अकाल की समस्या से जूझना पड़ रहा है. तब उसे नौसिखियों को कुछ प्रमुख पदों समेत कई विभाग सौंपने पड़े थे, जिन्होंने या तो अपेक्षानुरूप प्रदर्शन नहीं किया या फिर वे सरकार के लिए शर्मिंदगी की वजह बने. आने वाले वर्षों में लोग यही अपेक्षा कर सकते थे कि मोदी-शाह नेतृत्व हालात को संभालने की कोशिश करेगा, पार्टी के भीतर ही कुछ प्रतिभाओं को आगे बढ़ाएगा, या कम-से-कम भाजपा से बाहर की प्रतिभाओं को ढूंढकर लाने का काम करेगा.
पर अब जबकि मोदी सरकार अपने दूसरे कार्यकाल के भी आठ महीने पूरे कर रही है, स्थिति में कोई बदलाव आता नहीं दिख रहा. मंत्री पद के लिए काबिल लोगों का अभाव सरकार के लिए हमेशा ही एक बड़ी समस्या रही है, पर बैंकर केवी कामथ को वित्त मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंपे जाने की अटकलों से संकेत मिलता है कि संकट वाकई कितना गहरा है.
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पर्याप्त संख्या में काबिल लोगों का नहीं होना
अपने पहले कार्यकाल में मोदी अपने चार शीर्ष मंत्रियों के दायरे से आगे अच्छा शासन देने की जद्दोहद करते रहे. अपेक्षानुरूप प्रदर्शन नहीं करने वाले मंत्रियों की भरमार थी, हालांकि उनके बीच भी कुछेक उदाहरण हैरान करने वाले थे: सरकार में नई-नई शामिल होने वाली स्मृति ईरानी को मानव संसाधन विकास मंत्रालय की जिम्मेदारी थमा दी गई थी, जिनके अधीन काम तो कुछ नहीं हुआ लेकिन मीडिया में नकारात्मक खबरें जमकर चलीं. जल संसाधन मंत्री उमा भारती का भी ऐसा ही मामला था.
तमाम महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों वाले मंत्री– ग्रामीण और कृषि विभाग से लेकर स्वास्थ्य और शिक्षा तक– अपने काम से प्रभावित करने में विफल रहे. शुक्र है कि मोदी ने कई कल्याणकारी और ग्रामीण इलाकों के अनुकूल योजनाओं को शुरू किया और खुद उन पर निगरानी रखी कि जिसकी वजह से सरकार का काम चलता रहा. इन योजनाओं की लोकप्रियता और ज़मीनी स्तर पर उनके प्रभावी कार्यान्वयन ने मोदी सरकार के कमजोर प्रदर्शन, अनुभवहीनता और गड़बड़ियों को ढंकने का काम किया.
पर दूसरा कार्यकाल अलग तरह का परिणाम दिखा रहा है. विकास केंद्रित नीतियां और कल्याणकारी योजनाएं प्राथमिकताओं की सूची से बाहर हो चुकी हैं, अर्थव्यवस्था लगातार गोता लगा रही है, जबकि सारा फोकस अतिराष्ट्रवाद पर है, इसलिए ऐसे में प्रतिभाओं का अभाव कहीं अधिक स्पष्टता से परिलक्षित हो रहा है.
राजनाथ सिंह, अमित शाह, नितिन गडकरी और पीयूष गोयल– और कुछ हद तक प्रकाश जावड़ेकर और धर्मेंद्र प्रधान– के अतिरिक्त मोदी मंत्रिमंडल में कुछेक मंत्री ही अच्छे प्रदर्शन या अपने क्षेत्र में विशेषज्ञता का दावा कर सकते हैं. इस सरकार के लिए दूसरे कार्यकाल में राहत की एकमात्र बात रही है विदेश मंत्री के रूप में पूर्व राजनयिक एस जयशंकर को लाया जाना.
मोदी मंत्रिमंडल में उत्साहहीन और प्रेरणाहीन मंत्रियों की भरमार है जो अपने संबंधित विभागों को समझने की कोशिश करने, पहलकदमियां करने और वास्तव में काम करके दिखाने के बजाय अपने आकाओं को खुश करने में अधिक दिलचस्पी लेते हैं.
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण भारतीय अर्थव्यवस्था की तमाम गड़बड़ियों का प्रतीक बन चुकी हैं. ग्रामीण विकास, कृषि और स्वास्थ्य जैसे अन्य महत्वपूर्ण मंत्रालयों के मंत्री अपने काम के बजाय अपनी अनुपस्थिति या सार्वजनिक बयानों के लिए चर्चा में रहते हैं.
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हालांकि कहीं बड़ी समस्या है बाहर से लाई गई प्रतिभाओं को साथ रखते हुए आंतरिक प्रतिभाओं की कमी की भरपाई करने में मोदी और शाह की नाकामी की. इसलिए अपने काम में विशेषज्ञता रखने वाले रघुराम राजन, अरविंद सुब्रमण्यम, अरविंद पनगढ़िया, उर्जित पटेल और विरल आचार्य जैसे लोग इस सरकार से बाहर निकल जाते हैं, या दूसरे शब्दों में कहें तो मोदी ने प्रतिभाओं को महत्व देने और उन्हें सरकार से जोड़कर रखने की काबिलियत नहीं दिखाई है.
गलतबयानी का बोलबाला
न सिर्फ कमजोर कामकाज ने बल्कि सरकार के पदों पर काबिज लोगों के अविवेकपूर्ण बयानों ने भी मोदी-शाह शासन की समस्याओं को उजागर किया है.
अब नीति आयोग के सदस्य और भारत के शीर्ष वैज्ञानिकों में से एक वीके सारस्वत के बयान को ही लें जिन्होंने जम्मू कश्मीर में इंटरनेट पर रोक की हिमायत करते हुए दावा किया कि कश्मीरी सिर्फ ‘गंदी फिल्में’ देखने के लिए ही इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं. पर मोदी सरकार को शर्मिंदा करने वालों में सारस्वत अकेले नहीं हैं.
वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री पीयूष गोयल अपना काम जानते होंगे, पर उनकी मनोवृति और अहंकार भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के लिए चिंता का विषय होना चाहिए. आप अमेज़न और फ्लिपकार्ट के बारे में उनके हाल के अनावश्यक रूप से कड़वे और बचकाने बयान पर गौर कर सकते हैं.
वैसे सरकार द्वारा नियुक्त लोगों की ये समस्या मंत्रिमंडल तक ही सीमित नहीं है. हाल के दिनों में जेएनयू के कुलपति एम जगदीश कुमार के क्रियाकलापों ने मोदी सरकार की चिंता बढ़ाने में खासा योगदान दिया है.
विरोधाभास
मोदी सरकार के पिछले साढ़े पांच वर्षों के कार्यकाल में भाजपा के राष्ट्रीय प्रोफाइल में विस्तार के बावजूद आंतरिक क्षमता में वृद्धि का अभाव सर्वाधिक परिलक्षित हुआ है.
मोदी और अमित शाह ने 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की 303 सीटों पर जीत सुनिश्चित की. इस सफलता ने मोदी की कुछ ज्यादा ही महान छवि गढ़ने और शाह को एक अभूतपूर्व चुनावी रणनीतिकार घोषित करने का काम किया. दोनों खुद को सर्वशक्तिमान बनाने में सफल रहे हैं. इसके बावजूद, वे सरकार में प्रतिभाओं को आगे लाने में बुरी तरह नाकाम रहे हैं. यदि आप गौर करें तो पार्टी के भीतर भी यही स्थिति नज़र आएगी.
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जेपी नड्डा की ख्याति कभी भी सर्वाधिक करिश्माई, शक्तिशाली या लोकप्रिय जननेता की नहीं रही है. ये भी नहीं कहा जा सकता है कि उनके पास असाधारण राजनीतिक काबिलियत है. फिर भी, सोमवार को ऐसे वक्त उनको भाजपा अध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया जब पार्टी वास्तव में बेहद अच्छी स्थिति में नहीं है. संभवत: ये प्रतिभाओं के अकाल की स्थिति का परिणाम है.
चुनाव जीतना निश्चय ही राजनीति का उद्देश्य होता है. पर चुनाव जीतने के बाद बढ़िया प्रदर्शन भी उतना ही महत्वपूर्ण है. मोदी-शाह की भाजपा ने संभव है पहले काम में महारत हासिल कर ली हो, पर दूसरे में इसने भयावह रूप से औसत प्रदर्शन किया है. मौजूदा स्थिति उस पार्टी के लिए विचारणीय है जोकि अपनी ताकत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे व्यापक पहुंच वाले संगठन से पाती है– जिसे कि दुनिया की सबसे बड़ी प्रतिभा खोज संस्था होने का गुमान है.
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