कई पुराने लोकतंत्र से उलट, जहां व्यक्ति अपने वोट तय करता है, भारत में समूह की पहचान के आधार पर वोटिंग का रिवाज रहा है. भारत में चुनाव और राजनीति को समझने के लिए ये जानना अक्सर जरूरी हो जाता है कि कोई समूह कैसे वोट करता है. यहां राजनीति विज्ञान और मीडिया में जिस एक समूह के वोटिंग के तरीके पर सबसे ज्यादा लिखा गया है वो मुसलमान हैं.
राजनीति विज्ञानियों, चुनाव आंकड़ा विश्लेषकों और पत्रकारों के बार बार लिखने-बोलने के कारण हम सब, गलत या सही, ये जानते हैं कि मुसलमान कैसे एक ही पैटर्न से, बीजेपी को हराने के लिए, वोट डालते हैं. लेकिन एक अन्य समुदाय है, जिसका राजनीतिक व्यवहार भी इसी तरह बिल्कुल स्थिर है और जो लगातार भाजपा को जिताने के लिए वोट डाल रहा है, पर उसके बारे में विश्लेषक से लेकर पत्रकार सब आम तौर पर खामोश हैं.
यहां हम बात कर रहे हैं, सवर्ण हिंदू या हिंदू उच्च जाति का कहे जाने वाले वोट बैंक की.
सवर्ण या तथाकथित उच्च जातियों को पहले ब्राह्मण, ठाकुर/राजपूत और वैश्य के तौर पर चिन्हित किया जाता था. लेकिन ईडब्लूएस आरक्षण के लिए हुए संविधान संशोधन के बाद इन्हें एक कानूनी परिभाषा भी मिल गई है. सवर्णों में वे सभी जातियां हैं जो एससी-एसटी और ओबीसी आरक्षण के दायरे में नहीं हैं. उच्च जातियों जातियों के ही आर्थिक रूप से कम संपन्न लोगों का ईडब्लूएस सर्टिफिकेट बन सकता है.
इन जातियों का बीजेपी की ओर रुझान 1989-90 में शुरू हो गया था, लेकिन इसकी पूर्णता 2014 में नजर आती है, जब से इन जातियों का ज्यादातर समर्थन बीजेपी को मिलने लगता है. 2014 लोकसभा चुनाव और उसके बाद हुए लोकसभा और उत्तर भारत के राज्यों के विधानसभा चुनावों के एक्जिट पोल और चुनाव बाद के सर्वेक्षणों और विश्लेषणों में ये बात निर्विवाद रूप से उभर कर सामने आती है.
मिसाल के तौर पर, 2014 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी को सबसे ज्यादा 71 सीटें उत्तर प्रदेश से मिली थीं. यहां सीएसडीएस के एक्जिट पोल के मुताबिक 72 फीसदी ब्राह्मणों, 77 फीसदी राजपूतों, 71 फीसदी वैश्यों और 79 फीसदी अन्य उच्च जातियों ने बीजेपी को वोट दिया. 2019 के लोकसभा चुनाव में ये ध्रुवीकरण और मजबूत हो गया. 2019 में 82 फीसदी ब्राह्मणों, 89 फीसदी राजपूतों, 70 फीसदी वैश्यों और 84 फीसदी अन्य उच्च जातियों ने बीजेपी को वोट दिया. अन्य सर्वे एजेंसियों के आंकड़ों में इससे मामूली फर्क है, लेकिन उच्च जातियों द्वारा बीजेपी को समर्थन दिए जाने की बात वहां भी पुष्टि हुई है.
दक्षिण और पूर्वी भारत के उन राज्यों में, जहां बीजेपी का अस्तित्व नदारद है या कम है, वहां ऐसा रुझान नहीं है. इसके बावजूद अखिल भारतीय आंकड़ों में, उच्च जातियों के सबसे ज्यादा वोट बीजेपी के पास हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव में, एक्जिट पोल के मुताबिक 60 फीसदी ब्राह्मणों और अन्य उच्च जातियों के 50 फीसदी लोगों के वोट बीजेपी को मिले. 2019 के लोकसभा चुनाव में ये समर्थन और मजबूत हो गया और उच्च जातियों के 61 फीसदी वोट बीजेपी को मिले.
बिहार में उच्च जातियों के 73 फीसदी वोट बीजेपी के खाते में गए. इसी तरह 2022 के उत्तराखंड विधानसभा चुनाव में सीएसडीएस के आंकड़े बताते हैं कि ब्राह्मणों और ठाकुरों का व्यापक समर्थन बीजेपी को मिला. गोवा विधानसभा चुनाव में भी यही पैटर्न देखने को मिलता है, जहां एक्जिट पोल के मुताबिक बीजेपी को उच्च जातियों का भरपूर समर्थन मिला. कर्नाटक विधानसभा चुनाव, 2023 में इंडिया टुडे के एक्जिट पोल में ब्राह्मण वोटर को शामिल नहीं किया गया है, पर वहां की प्रभावशाली जाति लिंगायत का 64 फीसदी वोट बीजेपी को जाता दिखाया गया है.
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मुसलमान वोटरों का राजनीतिक व्यवहार
इसी तरह का वोटिंग पैटर्न मुसलमानों के बारे में बताया जा रहा है. खासकर 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद ये रुझान देखा गया है. ऐसे तमाम विश्लेषक और राजनीति विज्ञानी हैं, जो बताते हैं कि उत्तर भारत में मुसलमान आम तौर पर उस पार्टी को वोट डालते हैं, जो बीजेपी को हराने के लिए सबसे मजबूत स्थिति में होता है. मुसलमान वोटरों का बड़ा हिस्सा ऐसा भी है, जो मुसलमान उम्मीदवार के मुकाबले भी ऐसे उम्मीदवार को चुनना पसंद करता है, जिसे वह सेक्युलर मानता, या जिसे वह बीजेपी को हराने में समर्थ मानता है. यही वजह है कि उत्तर भारत में कोई मुस्लिम पार्टी, जिसकी पहचान सिर्फ मुसलमानों से जुड़ी हो, फल-फूल नहीं पाई. ओवैसी इसके ताजा उदाहरण हैं, जिन्हें छुटपुट सफलताएं ही मिल पाईं.
इस संदर्भ में हिलाल अहमद का शोध पत्र पढ़ा जाना चाहिए. उनका तर्क है कि मुसलमान वोटर को बंद एकरूप समूह के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए. सीएसडीएस-लोकनीति के एक सर्वे के आधार पर उन्होंने ये निष्कर्ष निकाला है कि वे वोट देते समय शिक्षा-स्वास्थ्य समेत कई मुद्दों को ध्यान में रखते हैं. साथ ही अपने धर्म के कैंडिडेट को वोट देना उनकी प्राथमिकता में सबसे ऊपर नहीं होता. लेकिन मुसलमान वोटरों में ये पैटर्न तो होता है कि उनकी बड़ी संख्या गैर-बीजेपी पार्टियों को वोट डालती है. कर्नाटक में भी ये भी ये चलन दोहराया गया, जिसकी पुष्टि एक्जिट पोल में हुई.
इसका एक असर ये है कि मुसलमान वोटर्स को लेकर पक्ष और विपक्ष दोनों तरह की राजनीतिक पार्टियां आश्वस्त रहती हैं कि उनका वोट कहां जाएगा और उनसे किसी चौंकाने वाले व्यवहार की उम्मीद नहीं की जाती है. इस वजह से राजनीतिक पार्टियां उनको लुभाने की कोशिश नहीं करती और जिन दलों को उनका वोट मिलता हैं, वे उनको वाजिब प्रतिनिधित्व देने में भी परहेज कर जाती हैं.
ऐसा ही उच्च जाति के वोटर्स के साथ भी हो सकता है. जिस निरंतरता के साथ वे बीजेपी को वोट डाल रहे हैं, उसका असर दो रूप में नजर आ सकता है. गैर-बीजेपी पार्टियां उनको लुभाने की कोशिश बंद या कम कर दे सकतीं और उनका प्रतिनिधित्व घटा सकती हैं. अभी कर्नाटक चुनाव के बाद जब कांग्रेस मंत्रिमंडल के सदस्यों की पहली लिस्ट जारी की गई तो उसमें एक भी ब्राह्मण नाम का न होना सवर्णों के लिए खतरे की घंटी होनी चाहिए. दूसरी बात ये हो सकती है कि अगर बीजेपी को भरोसा है कि उच्च जाति के वोट उससे खिसक कर कहीं नहीं जा रहे हैं, तो वह उसकी परवाह कम कर सकती हैं और अपना ध्यान नए सामाजिक वर्गों को जोड़ने में कर सकती है. 2015 के विधानसभा चुनाव में बिहार में आरजेडी ने भूमिहार जाति के कैंडिडेट नहीं दिए क्योंकि उसे शायद ये यकीन रहा होगा कि ये समुदाय बीजेपी से बंध चुका है तो उसके कैंडिडेट क्यों देना!
ये लगभग वही स्थिति है, जहां मुसलमान पहुंच चुके हैं. तो क्या ये मान लिया जाए कि सवर्ण और खासकर ब्राह्मण भारतीय राजनीति के नए मुसलमान हैं? क्या एक विचार से बंधकर वोट देते-देते मुसलमान राजनीति में अपना महत्व खो चुके हैं. क्या यही ब्राह्मणों और सवर्णों के साथ भी होने वाला है? अगर ये हकीकत में तब्दील होता है तो इसके नतीजे कुछ इस प्रकार हो सकते हैं.
ऐसे समुदाय का राजनीतिक प्रतिनिधित्व घट सकता है, जिनका राजनीतिक व्यवहार स्थिर हो चुका हो. अगर हिंदू उच्च जातियां लंबे समय तक सिर्फ बीजेपी को वोट देती रहेंगी तो मुमकिन है कि बीजेपी भी उनका प्रतिनिधित्व कम कर दे. विपक्ष तो उन्हें सीट देना कम कर ही सकता है. साथ ही इन जातियों के अंदर उन लोगों की आवाज दबी रह जा सकती है, जो मुख्यधारा के विचार से सहमत नहीं हैं. इस तरह पूरा समुदाय एकरूप और कट्टर बन जा सकता है. इसका असर समुदाय की सौदेबाजी करने की क्षमता में कमी की शक्ल में भी आ सकता है.
सवर्णों को विचार इस समस्या पर करना चाहिए. उन्हें वोट देने का फैसला दलों की नीतियों और कैंडिडेट की क्षमताओं को देखकर भी करना चाहिए. ये लोकतंत्र के लिए भी अच्छा है.
(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व प्रबंध संपादक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Profdilipmandal है. यहां व्यक्त विचार निजी हैं.)
(संपादन: अलमिना खातून)
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