श्रीमती प्रियंका गांधी के सक्रिय राजनीति में विधिवत प्रवेश करने से राष्ट्रीय स्तर पर सियासत के रंग बदलने के पक्के आसार इस वजह से बनेंगे, क्योंकि वह अपने साथ स्व. इन्दिरा गांधी की उस अक्स को प्रदर्शित करेंगी, जिसकी चाहत में देश और खास कर उत्तर प्रदेश के लोग अर्से से उम्मीद लगाये बैठे थे. उनके उत्तर प्रदेश कांग्रेस के प्रभारी महासचिव बनने के साथ ही इस राज्य की राजनीति का स्तर जातिवाद और सम्प्रदायवाद के घेरे को तोड़कर भारतीयता के चक्र में प्रवेश करने को मजबूर हो जायेगा.
कांग्रेस की राजनीति कभी भी संकीर्ण दायरों जैसे कि जाति, धर्म, बिरादरी और वर्ग के खांचों में बांटने की नहीं रही है और इसने अपने बुरे से बुरे दौर में भी उन सिद्धांतों का दामन नहीं छोड़ा है, जो जिसकी अलम्बरदारी गांधी, नेहरू, मौलाना आज़ाद व आंबेडकर से लेकर इन्दिरा गांधी तक ने की और समाज के पिछड़े व गरीब तबकों के लिए जी-जान से इस तरह काम किया कि आज़ादी के बाद से भारत लगातार विकास की सीढ़ियां दुनिया को मुंह चिढ़ाते हुए चढ़ता रहा और खेत-मज़दूर से लेकर प्रयोगशालाओं में काम करने वाला वैज्ञानिक तक इसकी सम्पत्ति में इजाफा करता रहा.
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कांग्रेस की राजनीति का मुख्य केन्द्र सृजन रहा है और विध्वंस की राजनीति का इसने हमेशा तिरस्कार किया है. दरअसल, पिछली पूरी सदी का भारत का इतिहास कांग्रेस पार्टी का ही इतिहास है. इसी की कयादत में भारत के लोगों ने अपने मुल्क की तस्वीर बदलती देखी है और अन्न के लिए विदेशों से मदद मांगने की जगह आत्मनिर्भरता प्राप्त करते देखा है और परमाणु शक्ति बनते देखा है, साथ ही पूरी दुनिया में मानवीयता का मजबूत किला बनते भी देखा है.
नेहरू-गांधी परिवार के लोगों के कांग्रेस पार्टी में लगातार प्रभावी होने को अन्य विरोधी दल जिस तरह परिवारवाद की राजनीति बताते हैं वह सिवाय खिसियाहट मिटाने के अलावा और कुछ नहीं है, क्योंकि लोकतंत्र में वही नेता बनता है जिसकी रहनुमाई में लोग यकीन रखते हैं. इसके बावजूद कांग्रेस पार्टी आन्तरिक लोकतंत्र की वकालत में इस तरह खड़ी रही है कि श्रीमती सोनिया गांधी के खिलाफ स्व. जितेन्द्र प्रसाद ने अध्यक्ष पद का खुला चुनाव लड़ा था.
दूसरी तरफ भाजपा जिस तरह अपना दल से लेकर अकाली दल शिव सेना, लोजपा आदि पार्टियों के गठबन्धन में है वे सभी एक ही परिवार की पार्टियां हैं. अतः श्रीमती प्रियंका गांधी के खिलाफ परिवारवाद की दुहाई देना पूरी तरह बेमानी है. सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में 1989 के बाद से कांग्रेस के हाशिये पर चले जाने के बाद से सपा, बसपा व अन्य दलों ने मिलकर इसे साम्प्रदायिक माहौल के बीच जातियुद्ध की राजनीति में बदल दिया है.
इस माहौल के चलते पिछले 30 साल से उत्तर प्रदेश को भजन मंडली नुमा नेताओं और दूसरी तरफ जातिगत कबीलों के नेताओं में बंट गया है, जिसकी वजह से इस राज्य के लोगों की राष्ट्रीय राजनीति में भूमिका इन नेताओं ने सिर्फ सियासती सौदेबाजी की बना कर रख दी है. राष्ट्रीय चुनावों को म्युनिसिपलिटी की तर्ज पर लड़ने वाली इन पार्टियों ने इस राज्य के लोगों को जहां एक तरफ कंगाल बनाये रखने के लिए इन्हें आपस में ही लड़ाने की तकनीक इजाद की वहीं दूसरी तरफ जमकर भ्रष्टाचार भी किया और इसकी सम्पत्ति को पूंजीपतियों के हाथ में गिरवी रखने तक से संकोच नहीं किया.
प्रियंका गांधी के इस राज्य की राजनीति में कूदने से सबसे बड़ा परिवर्तन यह आयेगा कि राज्य के लोगों को एक मतदाता के रूप में हैसियत का असली अंदाजा होगा और उन्हें एहसास होगा कि वे पुनः इस देश की राजनीति का पूरा कलेवर बदल सकते हैं और इस तरह बदल सकते हैं कि उनके वोट से बनी हुई सरकार सबसे पहले सारे धर्म व जाति-बिरादरी के भेदभाव भूलकर उन गरीबों के हकों की रखवाली करे, जिनके वोट से सरकारें बनती हैं.
लोकसभा चुनावों में उन मुद्दों की ही बात हो जो इन्हें परेशान कर रहे हैं और इकतरफा प्रचार के चलते उनके बच्चों की अच्छी पढ़ाई के खर्चे से लेकर उनके काम धंधों की घटती कमाई ने उन्हें लावारिस बना कर फेंक रखा है. युवा वर्ग जिस बेताबी के साथ रोज़गार के अवसरों की तलाश में भटक-भटक कर नई-नई तजवीजें सुन-सुन कर हैरान हो रहा है उससे उसकी रूह बेचैन हो रही है.
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श्रीमती प्रियंका गांधी इस बदजुबानी की राजनीति में प्रवेश करके इसे वैचारिक धरातल पर सम्मान देकर अपना निर्णायक योगदान दे सकीं तो यह बहुत बड़े बदलाव की शुरुआत मानी जायेगी. युवा नेतृत्व को अभी तक जिस तरह जलील करने की तजवीजें निकाली जाती रही हैं उस पर एक महिला के केन्द्रीय भूमिका में आने पर कुछ लगाम लग सकेगी. वरना हम सभी जानते हैं कि सुश्री मायावती के लिए भाजपा की एक विधायक साधना सिंह ने किन शब्दों का इस्तेमाल किया यह बहुत बेहतर है कि प्रियंका गांधी ने लोकसभा चुनावों के अवसर पर राजनीति मे आने का फैसला किया, क्योंकि ये चुनाव स्वतंत्र भारत के लिए सामान्य चुनाव नहीं हैं.
इसमें सवाल भाजपा या कांग्रेस का नहीं है, बल्कि भारतीय विचारधारा का है. यह विचारधारा उस किसान और युवा व गरीब आदमी को ऊंचा मुकाम देने की है जिसका भाग्य रोज सड़कों पर निकल कर अपनी मांगों की फेहरिस्त दोहराने का हो गया है और दूसरी तरफ उसे जाति-बिरादरी व हिन्दू-मुसलमान में बांट कर चुनावी सीटें जीतने का गणित हो रहा है. प्रियंका के राजनीति में आने से उस खुश्बू का आना लाजिमी है जो किसी फूल के महकने से चमन में फैलती है.
(प्रियंका की महक शीर्षक से पंजाब केसरी में ये लेख 24 जनवरी को छपा था. अब उनकी अनुमति से यह पुन: प्रकाशित किया जा रहा है. अश्वनी कुमार चोपड़ा पंजाब केसरी के रेजीडेंट एडिटर और भाजपा के सांसद हैं)