बस चंद रोज पहले की बात है जब मुझपर ऑनलाइन धावा बोला गया. इस हमले ने मुझे हताशा की उस राजनीति के बारे में कुछ सिखाया जिसने हमें चारो तरफ से घेर रखा है.
यह हमला मेरे हाल के ‘संडे सत्संग’ पर हुआ जिसका शीर्षक था— ‘खालिस्तान, गजवा-ए-हिन्द और हिन्दू राष्ट्रः भारत के स्वधर्म पर आक्रमण के तीन मुखौटे.’ दरअसल, मैं संडे-सत्संग के नाम से फेसबुक, ट्वीटर और यू-ट्यूब पर हफ्तावार लाइव वीडियो शो करता हूं. मैंने इस बार के ‘संडे सत्संग’ में राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के एक बयान को समाचार-विश्लेषण की टेक के रूप में इस्तेमाल किया था. इस बयान में उन्होंने कहा था कि जो लोग हिन्दू-राष्ट्र की मांग करते हैं वे खालिस्तानियों को शह देने के जिम्मेदार है.
मैंने इस बयान का हाल के संडे सत्संग में एक सीधी-सादी बात समझाने के लिए इस्तेमाल किया. किसी भी धार्मिक समुदाय के दबदबे की बात, चाहे उस समुदाय का नाम खालिस्तान हो, गजवा-ए-हिन्द हो या फिर हिन्दू-राष्ट्र. दरअसल, भारत के स्वधर्म और स्वभाव से मेल नहीं खाती. फिर भी, इन तीनों में फर्क है. गजवा-ए-हिन्द का तो खैर, भारत के मुसलमानों में कोई नामलेवा ही नहीं और खालिस्तान का विचार मुठ्ठी भर समर्थकों तक सिमटा है, ज्यादातर सिक्खों ने इसे नकार दिया है. फिर भी, सुरक्षा एजेंसियां टोह में लगी रहती हैं कि कहीं गजवा-ए-हिन्द का समर्थक ईजाद किया जाए या खालिस्तान का कोई समर्थक दिखे तो उसे दंडित किया जाय.
इसके उलट हिन्दू-राष्ट्र के विचार की- जो समान रूप से राष्ट्र-विरोधी है- उसकी खुलेआम कसमें खायी जाती हैं और उसे बड़े पैमाने पर प्रचारित किया जाता है. संडे-सत्संग के अपने वीडियो में मैंने बताने की कोशिश की थी कि दरअसल यहीं हिन्दू राष्ट्र का विचार भारत के स्वधर्म के सामने असल खतरा है और शायद खालिस्तान तथा गजवा-ए-हिन्द के भूत को जगाये रखने के पीछे भी हिन्दू राष्ट्र के समर्थकों का हाथ हो सकता है.
आप बताइये, मेरी इस बात से तिलमिलाकर किसने मुझ पर हमला बोला होगा ? क्या भारतीय जनता पार्टी के आईटी सेल ने? ना, आप गलत सोच रहे हैं. हिन्दू-राष्ट्र के उत्साही वीरों की गाली गलौज तो खैर मेरे लिए रोजाना की ही बात हैं लेकिन इस बार हमले की कमान थाम रखी थी सेक्युलर खेमे की एक छोटी मगर बड़बोली टुकड़ी ने. मुझपर आरोप ये मढ़ा गया कि मैं तो गजवा-ए-हिन्द और हिन्दू राष्ट्र को एक ही तराजू पर तौल रहा हूं और इस तरह मुस्लिम समुदाय को लांछन लगा रहा हूं, जबकि वह समुदाय पहले से ही संकटों से घिरा है.
ये बात दीगर है कि वीडियो का मकसद ही यही था कि तीनों विचार (गजवा-ए-हिन्द, खालिस्तान और हिन्दू-राष्ट्र) को एक समान नहीं मान सकते. दरअसल, वीडियो में मैंने ये बात जोर देकर कही थी कि सिर्फ अल-कायदा और उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने गजवा-ए-हिन्द शब्द का प्रचार प्रसार किया है और कोई भी मुस्लिम नेता, पार्टी या संगठन, यहां तक सांप्रदायिक रूझान के मुस्लिम संगठन तक इसके नामलेवा नहीं. मेरे उस वीडियो के कुछ आलोचक हयादार निकले और वीडियो देख लेने के बाद उन्होंने अपनी तल्खियों के लिए ‘सॉरी’ लिखना ठीक समझा. लेकिन ज्यादातर आलोचक वीडियो में कही गई बातों पर कान देने के लिए तैयार ही नहीं थे, यहां तक कि उन्होंने वीडियो के शीर्षक में आये ‘मुखौटा’ शब्द पर भी गौर करना जरूरी नहीं समझा.
ऐसे में मामला ये बना कि लिफाफा देखने भर को खत का मजमून जान लेने के लिए काफी मान लिया गया और फिर वीडियो के शीर्षक में लफ्ज ‘गजवा-ए-हिन्द’ के इस्तेमाल के जुर्म में मुझे अपशब्दों की सूली पर टांग दिया गया. कायर, सांप और मच्छर को एक तराजू पर तौलने वाला, लिब्टार्ड यानी उदारवाद का ढोंगी, छुपा संघी और इस्लाम-डाही (इस्लामोफोबिक) जैसी गालियों की मुझ पर बौछार हुई. (जो छपने लायक नहीं थी वो छोड़ रह हूँ). ऑपइंडिया (OpIndia) ने चुटकी लेते हुए लिखा कि मुझे ‘भाईचारे के प्रवचन’ का सबक मिल गया. मजेदार बात यह कि अपशब्दों की यह आंधी ट्वीटर तक ही सीमित रही. इस आंधी की कोई गूंज या आहट फेसबुक या यू-ट्यूब पर नहीं सुनायी दी. जहां तक मेरी जानकारी है, असल जिन्दगी पर भी इस आंधी के धूल-धक्कड़ नहीं पड़े.
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हताशा की राजनीति बड़े गहरे तक आ जमी है
फिलहाल देश में सार्वजनिक बहसें जिस घटियापन को गिर आयी हैं, मैं यहां उसकी शिकायत करने नहीं बैठा. शायद ‘हम नहीं सुधरेंगे’ का मुहावरा ऐसे ही मौकों पर इस्तेमाल करने के लिए बना है. और आप ये भी देखें कि हम अर्णब-गोस्वामियों के जिस उत्तर-काल में जी रहे हैं उसमें तथ्य, प्रमाण या फिर कैसी भी शिष्टता-शालीनता की मांग ही बेमानी है. अगर आप सार्वजनिक जीवन में हैं तो आपको ऐसी बहुत सी बेहूदगियों को झेलने के लिए तैयार रहना चाहिए.
यहां मेरी चिन्ता कहीं ज्यादा गहरी है. इस छोटी सी घटना से पता चलता है कि मोदी-विरोधी खेमे में एक खास प्रवृत्ति उभार पर है और इस प्रवृत्ति को बस हताशा की राजनीति का नाम दिया जा सकता है. बीते नौ सालों में मोदी सरकार ने सार्वजनिक जीवन के हर कोने-अंतरे को जिस तरह से नाथ रखा है, उससे समूचा सार्वजनिक विमर्श जहरीला हो उठा है.
जो लोग संविधान-प्रदत्त भारत-स्वप्न के हामी हैं वे अपने सांस्थानिक और सामाजिक दायरे में अपने आपको घिरा महसूस करते हैं. जो मुसलमान हैं, वे लगातार हो रहे हमलों की जद में है. ये हमले प्रतीकात्मक भी हैं और शारीरिक भी. अगर वे अपने को घिरा हुआ महसूस कर रहे हैं तो इसलिए कि उनकी घेरेबंदी हो रखी है.
जाहिर है, फिर ऐसे परिवेश में वे लक्षण उभार पर हैं जो अपने को लगातार घिरा महसूस करने वाले व्यक्ति या समुदाय में होते हैं. वह जो ‘अन्य’ है, सोच-विचार में अपने जैसा नहीं जान पड़ता उसके साथ संवाद साध पाना निरंतर दुखदायी होता जा रहा है. सो, हम ऐसे संवाद से कतराने लगे हैं. समान सोच-विचार वाली छोटी-छोटी टोलियां बन चली हैं, जिसमें हम अपने जैसी सोच-समझ वाली किसी टोली में शामिल हो जाते हैं. ऐसी टोली में शामिल होने से सही-गलत की हमारी पहले से चली आ रही धारणाएं और भी ज्यादा पुष्ट होती जाती हैं.
यह कुछ ऐसा ही है जैसे हमारी आवाज टकराकर हमीं तक लौट आती हो और हम समझ रहे हों कि कोई सुन और गुन रहा है और समझकर जवाब दे रहा है. एकसार आवाजों के ऐसे तलघर और बंदघर बनाने की स्वाभाविक प्रवृत्ति को सोशल मीडिया और भी ज्यादा बढ़ाता है. अपनों जैसों को लेकर बनाये हुए इस बंद-घर में हम एक-दूसरे के जितना करीब आते जाते हैं, अपने से अलग सोच-विचार रखने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और बीजेपी से सहानुभूति रखने वाले ‘अन्य’ से संवाद कर पाना हमारे लिए उतना ही दूभर होते जाता है
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कट्टरता की प्रतिछवि
घिराव की मानसिकता चीजों को सफेद-स्याह के दो खानों में बांटकर देखने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देती है, इसमें सोच-विचार की किसी नफासत के लिए कोई जगह ही नहीं रह जाती. अगर पैगम्बर मोहम्मद साहब के बारे में नुपूर शर्मा की टिप्पणी से आप आहत हैं, लेकिन इस्लामी देशों से बीजेपी-विरोध को मिल रहे समर्थन के लिए आपके दिल में कोई उत्साह नहीं जाग रहा तो आपको इस्लामोफोबिक (इस्लाम-डाही) मान लिया जायेगा.
अगर कोई किसी विवादग्रस्त मुद्दे (मिसाल के लिए पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया) पर कोई सैद्धांतिक पक्ष लेता है, तो कहा जाता है इन्हें हवन करने और हाथ जलाने के बीच फर्क करना नहीं आता. जहां संतुलन साधने की किसी भी कोशिश को पाप-कर्म करार दे दिया जाये वहां सामूहिक विवेक ही सिरे से समाप्त हो जाता है. ऐसे में हम दूसरों की नजर में हास्यास्पद हो उठते हैं.
इस टेक पर सोचते जाने के कारण वे सांस्कृतिक संसाधन भी हाथ से फिसल जाते हैं जो अभी के समय में जारी विचारधाराई हमले से निपटने के लिए जरूरी हैं. चूंकि बीजेपी-आरएसएस की जुगल-जोड़ी हर वक्त राष्ट्रवाद और भारतीय परंपरा की दुहाई देती रहती है सो राष्ट्रवाद के ताकतवर प्रतीकों और परंपरा के समृद्ध संसाधनों की टेक लेकर कुछ कहना चाहो तो उसपर नाक-भौं सिकोड़ा जाता है. विचारों के बाजार में हम अकबक ठगे से खड़े रह जाते हैं, चूंकि हमने अपनी जेब से इस बाजार में चलने वाला हर सिक्का फेंक दिया है.
मौजूदा सत्तापक्ष जिस किस्म के सियासी खेल रच रहा है, उसने गहरे अविश्वास का माहौल पैदा किया है. हर नया वाकया, हर नया विवाद आपकी वफादारी का नया इम्तिहान मान लिया जा रहा है. आपसे पूछा जाता है कि ‘बिना ना-नुकुर और अगर-मगर किये’ बताइए कि आप किस तरफ खड़े हैं और बंटवारे की लकीर के जिस तरफ हम हैं उसी तरफ आप भी खड़े हैं तो ही आप सही हैं.
धीरे-धीरे, सेक्युलरवाद की तरफदारी और नफरत फैलाने की चाल के खिलाफ में खड़े होना अल्पसंख्यक समुदाय और उसके प्रवक्ताओं की तरफदारी में होने का पर्याय मान लिया जाता है, भले ही बात चाहे कोई हो. अनायास ही हम कट्टरता की उसी राजनीति की प्रतिछवि बन जाते हैं जिसके भंजन के लिए हम उठ खड़े हुए थे. हम अंदरूनी दुश्मनों की खोज में निकल पड़ते हैं. सच्चाई और ईमानदारी भी कोई चीज हुआ करती है – यह बोध हमारे भीतर से निकल जाता है. एक ऐसे समय में जब सेक्युलरवाद की राजनीति के लिए नये दोस्त बनाना बड़ा जरूरी हो उठा है, दरअसल हम तो दुश्मन बनाने की कला सीखने में जुट गये हैं.
यह मनःस्थिति राजनैतिक असफलता की गारंटी है. भारत नाम के गणराज्य पर फिर से अपना दावा ठोकने के लिए जनता-जनार्दन के एक बड़े हिस्से से, जिसमें ज्यादातर हिन्दू हैं और जिन्हें हमारे गणराज्य को मिस्मार करने की परियोजना में जोत दिया गया है – गहरा, सार्थक और कठिन संवाद साधने की जरूरत है. लेकिन, अपने जैसी सोच के तलघर में अपने को तालाबंद रखने की प्रवृत्ति ने हमें ऐसे संवाद से रोक रखा है. हम संवाद-हीनता को सद्गुण समझने लगे हैं. इससे भी बुरी बात ये है कि कोई ऐसे कठिन संवाद की शुरूआत करना चाहे तो हम उसपर हमलावर हो उठते हैं. यह हमें आत्मघात की राजनीति की तरफ लिये जाता है. चूंकि हमारे भीतर सामने आ रही चीज के लिए डर बैठा रहता है सो हम मानकर चलते हैं कि जो कुछ भी होगा बुरा ही होगा और इसके लिए हम अपने को तैयार किये रहते हैं.
कर्तव्यों की नयी फेहरिश्त
जब घेराबंदी चौतरफा है तो घिराव की इस मानसिकता से कैसे उबरें? इस सवाल का कोई भी आसान उत्तर नहीं. राममनोहर लोहिया के एक मशहूर लेख का शीर्षक है- ‘निराशा के कर्तव्य’. इस तर्ज पर कहें तो जो लोग इस स्याह समय में गणराज्य की हिफाजत करना चाहते हैं उन्हें अपने लिए निराशा के कर्तव्यों की एक नई फेहरिश्त बनानी होगी. सेक्युलरवाद की राजनीति को सेक्युलरों के तलघर और बंदघर में फंसे रहने से बचना होगा. ऐसे बंदघरों में चलने वाली सहमति की सिर-हिलाऊ बतकहियां सेकुलरवाद की राजनीति के लिए नुकसानदेह हैं.
गणराज्य की हिफाजत के लिए जरूरी कर्तव्य है कि हम बहुसंख्यक समुदाय के बड़े हिस्से के साथ संवाद के रास्ते खोलें, बावजूद इसके कि यह बड़ा हिस्सा अभी नफरत और कट्टरता के लुभावने जाल में जा फंसा है. ऐसे संवाद की शुरूआत के लिए अपने मौजूदा सांस्कृतिक संसाधनों को नया कलेवर देना, भारतीय राष्ट्रवाद की भाषा में नये प्राण फूंकना, अपने संविधान में व्यक्त भारत-स्वप्न की मनोहर मूर्ति गढ़ना और सच, ईमानदारी, संतुलन तथा विवेक-बुद्धि की जमीन पर पैर टिकाये रखना जरूरी है. सबसे जरूरी है, यह याद रखना कि घेरा बेशक तगड़ा है लेकिन वैसा अवेध्य नहीं जितना कि वह जान पड़ता है और हम उतने भी निष्कवच नहीं हैं जितना कि अभी जान पड़ते हैं.
निराशा ने हमारे लिए एक कर्तव्य निर्धारित किया है: सत्ता ध्यान भटकाने के लिए चाहे जो खेल रचे, हमें एक दूसरे से उलझे बिना आज की बड़ी चुनौतियों पर नजर टिकाये रखनी है.
(योगेंद्र यादव जय किसान आंदोलन और स्वराज इंडिया के संस्थापकों में से हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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