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Friday, 4 October, 2024
होममत-विमतसेंट्रल असेंबली में बम फेंक ब्रिटिश साम्राज्य का होश उड़ाने वाले बटुकेश्वर दत्त को मिली सिर्फ बेकद्री

सेंट्रल असेंबली में बम फेंक ब्रिटिश साम्राज्य का होश उड़ाने वाले बटुकेश्वर दत्त को मिली सिर्फ बेकद्री

आठ अप्रैल 1929 जब गोरों के हथकंडों से क्षुब्ध हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के दो जुझारू क्रांतिकारियों-भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त-ने दिल्ली की सेंट्रल असेम्बली में फेंका था बम.

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1929 में वह आज की ही तारीख थी-आठ अप्रैल, जब स्वतंत्रता संग्राम के दमन के गोरे हथकंडों से क्षुब्ध हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के दो जुझारू क्रांतिकारियों-भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त-ने दिल्ली की सेंट्रल असेम्बली {जिसे आजादी के बाद संसद कहा जाने लगा} के सभाकक्ष में दो बमों का विस्फोट करके गुलाम देश की छाती पर सवार ब्रिटिश साम्राज्य के होश उड़ा दिये थे. अपने इस ऐक्शन का उद्देश्य बताने के लिए उन्होंने असेम्बली में जो परचे फेंके थे, उनकी पहली पंक्ति फ्रांसीसी अराजकतावादी शहीद बेला से उधार ली थी-‘बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊंची आवाज की जरूरत होती है.’

पहले से तय योजना के अनुसार ऐक्शन के बाद वे भागे नहीं थे. ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ व ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ के नारे लगाते हुए अपनी जगह खड़े रहे थे और खुद को स्वेच्छा गिरफ्तार करा लिया था. फिर पूरी जिम्मेदारी से स्वीकार किया था कि वे साम्राज्यवाद के खिलाफ ऐसे युद्ध के सैनिक हैं, जिसे उन्होंने शुरू नहीं किया और जो उनके अंत के साथ खत्म भी नहीं होने वाला-तब तक जारी रहने वाला है, जब तक मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण और गैरबराबरी दोनों खत्म नहीं हो जाते.

उन्होंने तत्कालीन गवर्नर जनरल/वायसराय लार्ड इरविन {1926-1931} के {भगत सिंह व बटुकेश्वर को जेल जाते ही हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी ने जिनकी ट्रेन को बम से उड़ाने की विफल कोशिश की थी.} इस मंतव्य से भी सहमति जताई थी कि उनका ऐक्शन किसी व्यक्ति नहीं, समूची गोरी शासन व्यवस्था के खिलाफ था. इरविन ने यह मंतव्य विस्फोटों के बाद असेम्बली के दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन में व्यक्त किया था.

इस सिलसिले में भगत सिंह ने दिल्ली के तत्कालीन सेशन जज लियोनार्ड मिडिल्टन की अदालत में 6 जून, 1929 को दिये बयान में कहा था: हमारा उद्देश्य किसी की जान लेना नहीं बल्कि उस शासन व्यवस्था का प्रतिवाद करना था, जिसके हर एक काम से उसकी अयोग्यता ही नहीं वरन अपकार करने की उसकी असीम क्षमता भी प्रकट होती है. वह केवल संसार के सामने भारत की लज्जाजनक तथा असहाय अवस्था का ढिंढोरा पीटने के लिए ही कायम है और एक गैरजिम्मेदार तथा निरंकुश शासन का प्रतीक है.

सेंट्रल असेम्बली को मात्र ‘दिल को बहलाने वाली, थोथी, दिखावटी और शरारतों से भरी हुई संस्था’ बताते हुए उन्होंने कहा था कि ‘समझ में नहीं आता कि हमारे नेता भारत की असहाय परतंत्रता की खिल्ली उड़ाने वाले इतने स्पष्ट व पूर्वनियोजित प्रदर्शनों पर सार्वजनिक सम्पत्ति एवं समय बरबाद करने में सहायक क्यों बनते हैं?’

तदुपरांत 12 जून, 1929 को सेशन जज ने अपने फैसले में लिखा था: ‘बटुकेश्वर और भगत अदालत में ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ और ‘सर्वहारा जिन्दाबाद’ के नारे लगाते हुए आते थे और उनके इन्हीं विचारों के प्रचार को रोकने के लिए मैं दोनों को उम्रकैद की सजा देता हूं.’

लेकिन पंजाब पुलिस के असिस्टेंट सुपरिंटेंडेट जाॅन पी सांडर्स की हत्या {जो साइमन कमीशन के खिलाफ जुलूस निकाल रहे कांग्रेस के लोकप्रिय नेता लाला लाजपत राय की लाठीचार्ज से हुई मौत का बदला लेने के लिए 17 दिसम्बर, 1928 को की गई थी} के मामले में सात अक्टूबर, 1930 को भगत सिंह के साथ सुखदेव व राजगुरू को भी फांसी की सजा सुना दी गई तो बटुकेश्वर दुःखी हो उठे कि उन्हें उम्रकैद या काला पानी का पात्र ही क्यों समझा गया? तब भगत सिंह ने उन्हें लिखा: मेरा दृढ़ विश्वास है कि तुम यह सिद्ध कर सकोगे कि विप्लवी अपने उद्देश्यों के लिए…फांसी पर लटकने की ही नहीं, जीवन भर यंत्रणाएं व मुसीबतें झेलने की क्षमता भी रखते हैं.

बटुकेश्वर का उसके बाद का सारा जीवन गवाह है: बेहद प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करते और सान्त्वना के दो शब्दों तक के लिए तरसते हुए भी उन्होंने भगत सिंह का यह विश्वास नहीं तोड़ा. भले ही पहले जेलों की मर्मांतक यातनाएं झेंलीं, फिर तंगहाली के ऐसे-ऐसे कष्ट, जैसे जेल में भी नहीं झेले थे. नव स्वतंत्र देश की सरकारों की कृतघ्नता का लगातार सालता रहने वाला वह दंश तंगहाली के इन कष्टों से भी ऊपर था, जो उनसे बार-बार पूछता था कि ‘जरा याद उन्हें भी कर लो, जो लौट के घर न आये’ गाने वाले देशवासी उनके जैसे घर लौट आये अपने सेनानियों से ऐसा सौतेलापन क्यों बरतते है कि उन्हें अपना लौट आना अफसोसनाक लगने लगे.


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‘कांग्रेस के शासन में तो अपमान ही बचा है’

बहरहाल, बटुकेश्वर को पहले अंडमान की कुख्यात सेल्युलर जेल यानी कालापानी भेजा गया, फिर 1937 में पटना की बांकीपुर स्थित सेंट्रल जेल लाया गया. 1938 में वे जैसे-तैसे रिहा हुए तो जेल में ही ‘सौगात’ में मिली टीबी जानलेवा हो चली थी. इसके बावजूद उनका मनोबल जस का तस था. सो, असहयोग आंदोलन शुरू हुआ तो उसमें कूदे और फिर पकड़े गये, तो चार साल बाद 1945 में छूटे. आजादी मिली तो नवम्बर, 1947 में शादी कर घर बसा लिया. इस उम्मीद में कि अब जिंदगी के संघर्ष कुछ कम होंगे. लेकिन पटना में अपनी गृहस्थी की गाड़ी चलाने के लिए उन्हें कभी सिगरेट कंपनी का एजेंट बनना पड़ा तो कभी टूरिस्ट गाइड और कभी कुछ और.

एक बार बेहद निराशा में एक परमिट की अर्जी लेकर वे पटना के कमिश्नर के कार्यालय गये, जहां कमिश्नर ने उनसे स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाणपत्र मांग लिया तो उन्होंने खुद को इतना अपमानित महसूस किया कि अर्जी वापस ले ली और फाड़कर फेंक दिया. बाद में राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के दखल के बाद कमिश्नर ने इस दुर्व्यवहार के लिए माफी जरूर मांग ली, लेकिन बटुकेश्वर के निकट उसका कोई हासिल नहीं था.

यों, उनके नायक भगत सिंह ने भी कम सामाजिक कृतघ्नताएं नहीं झेलीं. कवि-गीतकार शंकर शैलेन्द्र ने अपनी एक कविता में इसका उलाहना दिया तो उत्तर प्रदेश की तत्कालीन गोविन्दवल्लभ पंत सरकार ने उस पर प्रतिबंध लगा दिया. उसका तर्क था कि यह कविता निर्वाचित सरकार के प्रति घृणा का प्रसार करती है.

फिर भी इसको लेकर संतुष्ट हुआ जा सकता है कि भगत सिंह अपने समय में तो क्रांतिकारियों के सबसे बड़े प्रवक्ता थे ही, आज भी युवाओं की वीरता के बेमिसाल प्रतीक हैं और शहीद-ए-आजम कहलाते हैं. लेकिन बटुकेश्वर के मामले में हमारी कृतघ्नताएं सारी सीमाएं पार कर चुकी हैं.

इस कदर कि 15 अगस्त, 2008 को संसद भवन में भगत सिंह की प्रतिमा लगाई गई तो भी बटुकेश्वर दत्त को उनके साथ नहीं रखा गया. यह बटुकेश्वर से सेंट्रल असेम्बली बमकांड का सहनायकत्व छीन लेने जैसा था, जबकि क्रांतिकारी आन्दोलन का सामूहिक नेतृत्व वाला स्वरूप उसे इतने व्यक्तिवादी नजरिये से देखने की इजाजत नहीं देता.

बटुकेश्वर ने ऐक्शन में ही नहीं, राजनीतिक बंन्दियों के अधिकारों के लिए जेल में तीन से ज्यादा महीनों लम्बी भूख हड़ताल में भी भगत सिंह का साथ दिया था और मौत के बाद भी उनसे अलग नहीं होना चाहते थे, जबकि भगत सिंह की माता उन्हें अपना दूसरा बेटा कहती थीं. कैंसर से पीड़ित हो जाने के बाद बटुकेश्वर को लगा कि अब वे जिन्दगी की जंग हारने वाले हैं, तो इच्छा जताई थी कि उनका अंतिम संस्कार वहीं किया जाये, जहां भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव का हुआ था. कैंसर की लम्बी व त्रासद यातना के बाद 20 जुलाई, 1965 को दिल्ली में उनकी सांसें टूटीं तो उनकी इस इच्छा का मान ही फिलहाल, उनके खाते में दर्ज एकमात्र सम्मान है. अन्यथा उन्हीं के शब्दों में: ‘कांग्रेस के शासन में तो हमारे लिए अपमान ही बचा है.’ खुद को चार महीनों के लिए बिहार विधान परिषद का सदस्य मनोनीत किये जाने को भी वे अपना अपमान ही मानते थे.

प्रसंगवश, बटुकेश्वर क्रांतिकारी आन्दोलन में लगभग उसी समय सक्रिय हुए थे, जिस समय भगत सिंह. हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी ने गहन विचार-विमर्श के बाद उन्हें सेंट्रल असेम्बली में बम विस्फोट के लिए भगत सिंह का सहनायक चुना तो उसे विश्वास था कि गिरफ्तारी के बाद अदालत व जेल दोनों के मोर्चों पर वे पूरी क्षमता से उनका साथ निभायेंगे. तब बटुकेश्वर खुश थे कि कानपुर में उन्होंने भगत सिंह के साथ आत्माहुति का जो सपना देखा था, अब वह साकार होगा. हालांकि इससे पहले किसी ऐक्शन में भाग लेने का अवसर न दिये जाने से वे बहुत खिन्न थे.

भारतीय क्रांतिकारी आन्दोलन के इतिहास के सजग अध्येता, लेखक और सम्पादक सुधीर विद्यार्थी ने उनके व्यक्तित्व व कृतित्व पर आधारित अपनी पुस्तक में लिखा है: बटुकेश्वर का नाम याद आते ही मेरे भीतर इनकलाब के लिए तनी हुई मुट्ठियों और फिर जेलों की अंधेरी कोठरियों के अन्दर भयंकर यातनाएं झेलते एक राजनीतिक योद्धा का चित्र उभरता है.

लेकिन थोड़ी ही देर में ये दोनों चित्र धुंधले होकर गायब हो जाते हैं और तीसरी तस्वीर में वही मुक्ति योद्धा पटना शहर की सड़कों पर एक पुरानी जर्जर साइकिल से अपनी शेष जिन्दगी का बोझ ढोता दिखाई पड़ने लगता है. मैं पूरे देश की ओर से उससे माफी मांगना चाहता हूं पर मेरे होंठ नहीं हिलते. शब्द गले में अटककर रह जाते हैं और मैं रो पड़ता हूं.’

(कृष्ण प्रताप सिंह अयोध्या स्थित जनमोर्चा अखबार के पूर्व संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(संपादन: पूजा मेहरोत्रा)


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