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Saturday, 21 December, 2024
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2024 में विश्वगुरु बनाम कौन? अगर विपक्ष राहुल गांधी से अलग कुछ देखना चाहता है तो उसके पास कई चेहरे हैं

एक दर्जन पीएम दावेदारों और प्रतियोगियों के बीच, विपक्ष के पास तीन जबरदस्त विकल्प हैं- एक दलित, एक महिला और एक ओबीसी नेता.

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शनिवार को हिरोशिमा में क्वाड की बैठक में, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत में अगले शिखर सम्मेलन की मेजबानी करने की पेशकश की. 2023 में जारी बड़े बड़े कार्यक्रमों में जब भारत जुलाई में शंघाई सहयोग संगठन में P5 और सितंबर में G20 सहित वैश्विक दिग्गजों की मेजबानी करेगा, वहीं 2024 के अपने चुनावी साल में क्वाड शिखर सम्मेलन कर अपने वैश्विक कद को बढ़ाए जाने की पुष्टि करेगा. क्वाड बैठक के लिए एक वर्ष के भीतर संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति और जापानी और ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्रियों के भारत लौटने के बारे में सोचेंगे.

मोदी सरकार ने 2023 जी20 शिखर सम्मेलन की मेजबानी के लिए कड़ी मेहनत की है. भारत को समूह की चक्रीय/ घूमनेवाली अध्यक्षता लेनी थी और 2021 में शिखर सम्मेलन की मेजबानी करनी थी, लेकिन इसने इटली के साथ अदला-बदली की ताकि 2022 में स्वतंत्रता के 75 वें वर्ष में इसकी मेजबानी की जा सके. बाद में, इसने 2023 में G20 की मेजबानी के लिए एक बार फिर इंडोनेशिया के साथ अदला-बदली की.

क्वाड शिखर सम्मेलन के लिए, इस वर्ष ऑस्ट्रेलिया को मेजबान होना था, लेकिन इसे जापान में जी7 शिखर सम्मेलन के साइडलाइन किए जाने पर ही आयोजित करना पड़ा क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन को डेब्ट कैप वार्ता के लिए स्वदेश लौटना था. क्वाड स्थल 2024 के लिए ऑस्ट्रेलिया में स्थानांतरित हो सकता था, लेकिन पीएम मोदी ने भारत में इसकी मेजबानी करने की पेशकश की और अवसर में तब्दील कर दिया.

यह भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को 2024 के लोकसभा चुनाव में एक नया चुनावी मुद्दा विकसित करने का एक सही मौका दे सकता है – विश्वगुरु या विश्व नेता. ऐसा दिखाना भारत के वैश्विक कद को ऊंचा करने और पीएम मोदी को भी विश्व के नेता के रूप में दिखाने को लेकर समान रूप से लागू हो सकती है. 2014 के लोकसभा चुनाव में, यह एक ‘कमजोर’ प्रधान मंत्री की जगह एक ‘हिंदू हृदय सम्राट’ के रूप में उभरे थे और उसके अलावा पूरे देश में विकास के गुजरात मॉडल की तो बात थी ही. 2019 का चुनाव एक मजबूत और निर्णायक प्रधान मंत्री के बारे में था जिन्होंने पाकिस्तान में सीमा पार हमला करने में संकोच नहीं किया और एक दयालु, कल्याणकारी पीएम के बारे में भी था जिन्होंने गरीब लोगों को एलपीजी सिलेंडर देता है, गांवों को बिजली देता है, पैसे गरीबों के बैंक के खातों में पैसे दिये और शौचालय भी बनवाया.

2024 में, भाजपा एक ऐसे प्रधानमंत्री के लिए वोट मांगेगी जिसने भारत को विश्वगुरु बनाया है, जिसके साथ सबसे शक्तिशाली राष्ट्रों के प्रमुख हजारों मील की दूरी तय करके उसके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलते हैं. जरा सोचिए कि भाजपा किस तरह की तुलना करेगी कि कैसे विपक्षी नेता लोकतंत्र को बहाल करने के लिए विदेशी हस्तक्षेप की मांग करके विदेशों में भारत को ‘निंदा’ करते हैं, जबकि पीएम मोदी ने भारत के वैश्विक कद को अभूतपूर्व ऊंचाइयों पर पहुंचाते हैं. यह भारतीयों के लिए राष्ट्रीय गौरव के लिए मतदान करने का आह्वान होगा, न कि उनके दैनिक जीवन से संबंधित सांसारिक मामलों के लिए. मतदाता तेजी से लेन-देन करने वाले हो सकते हैं, लेकिन एक प्रधान मंत्री जिसने ‘रेवड़ी’ (फ्रीबी) संस्कृति के खिलाफ सार्वजनिक स्टैंड लिया है, वह राष्ट्रीय गौरव के लिए एक नया जनादेश हासिल करने की उम्मीद कर सकता है.

विश्वगुरु के लिए विपक्ष का मुकाबला

क्या विपक्ष के पास विश्वगुरु के लिए कोई मैच है? उनके नेताओं के बताए गए रुख को देखते हुए लगता है कि वे इस ‘मोदी बनाम कौन’ सवाल को बाद के लिए छोड़ देंगे. हालांकि, हमें इतिहास बताता है कि विपक्ष को एक मजबूत और स्थिर सरकार को हटाने के लिए एक ऐसे चेहरे की जरूरत होती है- जैसे 1977 में जयप्रकाश नारायण (जेपी) थे, 1989 में वीपी सिंह और 2014 में खुद मोदी थे.

कोई यह तर्क दे सकता है कि 2004 में लोकप्रिय अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को हटाने के लिए विपक्ष के पास कोई लोकप्रिय चेहरा नहीं था. प्रतिवाद यह है कि वाजपेयी सरकार ने अपने इंडिया शाइनिंग अभियान के साथ अपनी ही कब्र खोद ली. सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने तब 145 लोकसभा सीटें हासिल कीं, जो भाजपा से सिर्फ 7 अधिक थीं.


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राहुल गांधी के अलावा और कौन?

अगर विपक्ष ‘मोदी बनाम कौन’ सवाल को खुला छोड़ देता है, तो इसका मतलब वस्तुतः एक और राहुल गांधी बनाम मोदी की लड़ाई होगी. उन्हें शायद तीसरी बार के भाग्यशाली कहावत पर विश्वास हो . लेकिन फिलहाल, राहुल गांधी के सवाल को छोड़ दें.

विपक्षी खेमे में अन्य संभावित प्रधानमंत्री कौन- कौन हैं? ऐसे नेताओं को छोड़ दें जो या तो भाजपा के साथ मित्रवत रहे हैं या जो इस समय कांग्रेस के साथ जाने के इच्छुक नहीं दिखते हैं – ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी, आंध्र प्रदेश में विपक्ष के नेता एन चंद्रबाबू नायडू और यूपी की पूर्व सीएम मायावती.

ऐसा लगता है कि कांग्रेस दो अन्य लोगों—तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल—के साथ जुड़ने को तैयार नहीं है, क्योंकि 20 मई को कर्नाटक के नए मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के शपथ ग्रहण समारोह में भी उन्हें आमंत्रित नहीं किया गया.

वैसे भी, लोकसभा की जितनी सीट ये दोनों ला सकते हैं उसको देखते हुए कांग्रेस के लिए उनकी आकांक्षाएं, यदि कोई हों, तो नजरअंदाज करना आसान होगा. समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव, हालांकि एक ऐसे राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री हैं, जो लोकसभा में 80 सांसद भेजते हैं, लेकिन उनका अभी तक वह राजनीतिक कद नहीं है- कम से कम 2024 के चुनाव से पहले तो नहीं. तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन भले ही विपक्ष को एक सामाजिक न्याय मंच के तहत एक साथ लाने की कोशिश कर रहे हों, लेकिन उन्होंने अभी तक प्रधानमंत्री बनने की कोई महत्वाकांक्षा नहीं दिखाई है.

इन नेताओं को छोड़ कर देखें तो गंभीर दावेदार हैं जैसे-राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के नेता शरद पवार, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार. कांग्रेस के बाहर के सभी दावेदारों में, पवार के पास इस पद के लिए सबसे अच्छी साख है. वह एक ऐसे राज्य (महाराष्ट्र) से आते हैं, जो 48 सांसदों को लोकसभा में भेजता है और वो ऐसे राजनेता हैं जिनके पास सभी विपक्षी दलों को साथ लाने वाला राजनीतिक कद है और कांग्रेस को भी उनके नाम पर ज्यादा एतराज नहीं होगा.

लेकिन इसमें दो बड़ी रुकावटें हैं.

जब अगला लोकसभा चुनाव होगा तब पवार अपने 84वें वर्ष में होंगे, और उनकी सेहत को देखते हुए देश भर में प्रचार अभियान चलाना उनके लिए मुश्किल होगा. हालांकि महाराष्ट्र से बाहर उनका कितना प्रभाव है और उनकी अपील पर कितना असर होगा यह भी एक बड़ा सवाल है.

राहुल गांधी के खिलाफ ममता बनर्जी के सार्वजनिक मंचों पर दिए गए बयान उन्हें बंगाल की मुख्यमंत्री की दावेदारी को कमजोर करती है. यही नहीं पश्चिम बंगाल से बाहर उनकी अपील पर भी सवाल उठना लाजिमी है.

इन सब कारणों से नीतीश कुमार की पीएम कैंडिडेट के लिये दावेदारी बजबूत हो जाती है. अगस्त 2022 के अपने #PoliticallyCorrect कॉलम में, मैंने तर्क दिया कि वह 2024 में कांग्रेस के लिए सबसे अच्छा दांव क्यों हैं. मैंने इसके मोटे तौर पर पांच कारण बताए थे. सबसे पहले, वह एक स्वच्छ छवि वाले नेता हैं और वंशवादी भी नहीं हैं. दूसरा, उनका कुर्मी होना अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को प्रेरित कर सकता है – न केवल बिहार में बल्कि यूपी और अन्य राज्यों में भी. तीसरा, ‘बिहार पीएम’ का नारा राज्य में मोदी की लोकप्रियता का मुकाबला करने में काम आ सकता है, जो लोकसभा में 40 सांसद भेजता है. चौथा, राहुल गांधी उनके लिए सॉफ्ट कॉर्नर रखने के लिए जाने जाते हैं. अंत में, 72 साल की उम्र में, जब वह अपने राजनीतिक करियर को लंबा करने के लिए सहयोगी दलों पर बहुत अधिक निर्भर हैं, तो वे कांग्रेस के लिए कोई दीर्घकालिक खतरा पैदा नहीं करते हैं.

जहां तक हिंदी पट्टी से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का संबंध है, मेरे पास अभी भी वही तर्क हैं.


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चुपचाप बढ़ता कदम

अगर प्रधानमंत्री कांग्रेस से कोई होना है तो अन्य उम्मीदवारों का नाम लिया जा सकता है. इससे पहले कि मैं यह कहने का साहस करूं कि राहुल के कई वफादार और प्रशंसक क्या हो सकते हैं, मुझे कमजोर दिल वालों को सावधान करना चाहिए: पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में प्रियंका वाड्रा को पेश करने के बारे में क्या सोचते हैं? मुझे पता है कि वे कैसी प्रतिक्रिया देंगे: कितना बड़ा बेवकूफ है! लेकिन जरा सोचिए- आखिरी बार कब किसी महिला को इस पद के लिए प्रोजेक्ट किया गया था? इंदिरा गांधी, है ना?

समकालीन भारतीय राजनीति में, महिला मतदाताओं के पास कुछ ज्यादा विकल्प नहीं हैं. खासकर ऐसे समय में जब मौजूदा बीजेपी की अगुआई वाली सरकार उनको कोई अच्छा संदेश नहीं दे रही है. महिला मतदाताओं के बीच पीएम मोदी की अपील के बारे में सत्तारूढ़ दल इतना आश्वस्त है कि उनकी कल्याणकारी योजनाओं के लिए धन्यवाद, कि यह भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह द्वारा यौन उत्पीड़न के आरोपों के खिलाफ दिल्ली के जंतर-मंतर पर विरोध करने वाली भारत की शीर्ष महिला पहलवानों के बारे में परवाह नहीं करता है. तीन हफ्ते हो गए हैं जब सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली पुलिस को उसके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने के लिए मजबूर किया, जिसमें POCSO अधिनियम के तहत भी एक शामिल है, लेकिन पुलिस ने उसे पूछताछ के लिए भी नहीं बुलाया, गिरफ्तार करना तो दूर की बात है.

दूसरा: हरियाणा के सीएम मनोहर लाल खट्टर, जो अपने मंत्री और यौन उत्पीड़न के आरोपी संदीप सिंह का जबरदस्त बचाव कर रहे हैं, ने पिछले हफ्ते एक महिला सरपंच को बोलने नहीं दे रहे थे नाराज होकर सरपंच ने अपना दुपट्टा उनके पैरों में फेंकते हुए कहा: “आप मेरी नहीं सुनते, कोई बात नहीं” . मेरे पति पर जानलेवा हमारा हुआ था. एक औरत की, एक हिंदुस्तानी औरत की इज्जत उसके दुपट्टे में होती है. ये लो इसे, ये है एक हिंदुस्तानी औरत का दुपट्टा. .”

पीएम मोदी के कल्याणकारी उपायों – शौचालय बनाने से लेकर, एलपीजी सिलेंडर देने, बेटी बचाओ, बेटी पढाओ अभियान शुरू करने, कोविड-19 के दौरान मुफ्त राशन उपलब्ध कराने तक -के कारण आज उन्हें महिलाओं का भरपूर समर्थन मिला. हालांकि पिछले कुछ विधानसभा चुनावों में भाजपा के लिए महिलाओं के समर्थन में गिरावट देखी गई है. लोकनीति-सीएसडीएस के चुनाव के बाद के सर्वेक्षण के अनुसार, 2022 के हिमाचल प्रदेश चुनाव में, भाजपा ने महिला मतदाताओं के समर्थन में छह प्रतिशत की गिरावट देखी. द इंडियन एक्सप्रेस ने बताया कि कर्नाटक में, कांग्रेस ने उन निर्वाचन क्षेत्रों में अधिकांश सीटें जीतीं, जहां महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक थी.

कोई यह तर्क दे सकता है कि जब महिलाओं को पीएम मोदी को वोट देने का समय आयेगा तो वह अलग तरह से वोट कर सकती हैं. लेकिन यह कांग्रेस के लिए महिला मतदाताओं पर गौर करने के लिए पर्याप्त कारण है. भाजपा की समस्या यह है कि उसने महिला नेताओं को बढ़ावा नहीं दिया है. मोदी कैबिनेट में 30 मंत्रियों में से केवल दो महिलाएं हैं – वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी. जबकि सीतारमण सरकार में अपनी भूमिका निभाती रहती हैं और वहीं पर सीमित हैं, ईरानी को उनकी क्षमताओं और क्षमता के बावजूद, काफी हद तक किनारे पर ही रखा हुआ है.

वहीं कांग्रेस या विपक्ष के पास महिला वोटरों को रिझाने का मौका है. ममता बनर्जी ने जाहिर तौर पर उन्हें पश्चिम बंगाल में अपने पक्ष में कर लिया है और संभावित रूप से उनके राज्य से बाहर उनके बीच एक अपील हो सकती है. लेकिन, जैसा कि ऊपर बताया गया है, कांग्रेस को उनके खिलाफ कई कारण हैं.

इसीलिए प्रियंका वाड्रा एक और विकल्प बन जाती हैं. वह चुपचाप अपने पदचिन्हों का विस्तार यूपी जिसकी वह प्रभारी महासचिव हैं के बाहर भी कर रही हैं. उन्होंने हिमाचल में कांग्रेस की जीत में अहम भूमिका निभाई थी. उनके अभियान ने कर्नाटक में काफी चर्चा पैदा की. कर्नाटक चुनाव अभियान समाप्त होने के ठीक बाद, वह तेलंगाना में अपनी पार्टी के लिए प्रचार कर रही थीं. वह अब अपनी पार्टी की तैयारियों को बढ़ावा देने के लिए जून के दूसरे सप्ताह में मध्य प्रदेश का दौरा करने वाली हैं. लगभग बिना नोटिस के, पार्टी के राष्ट्रीय प्रचारक और रणनीतिकार के रूप में उनका प्रोफाइल तेजी से आगे की ओर बढ़ रहा है .

कर्नाटक चुनाव के दौरान पीएम मोदी को निशाने पर लेने पर भी बीजेपी प्रियंका वाड्रा से सावधान रही है: “तू इधर-उधर की बात ना कर, ये बता कफीला क्यों लूटा.” प्रियंका ने प्रधानमंत्री के बारे में कहा था लेकिन फिरभी बीजेपी चुप रही.

कांग्रेस द्वारा किसी महिला को प्रधानमंत्री पद के लिए पेश करना महिलाओं के बीच भाजपा के समर्थन आधार को खतरे में डाल सकता है, लेकिन सत्ताधारी पार्टी अपने बेटे को सामने रखने के लिए सोनिया गांधी अपने बेटे पर ज्यादा भरोसा करती है. प्रियंका की उम्मीदवारी में कई जटिलताएं भी हो सकती हैं, निश्चित रूप से – भाजपा द्वारा वंशवादी राजनीति का उपहास, उनके पति पर भ्रष्टाचार के आरोप, और उनकी राजनीतिक और प्रशासनिक अनुभवहीनता. लेकिन वह बीजेपी को बचाव की मुद्रा में ला रही हैं. उन्हें निशाना बनाने में सत्तारूढ़ दल की अनिच्छा कांग्रेस को महिला चेहरे के साथ प्रयोग करने के लिए प्रोत्साहित कर सकती हैं. लेकिन, गांधी परिवार के बारे में हम सभी जानते हैं, प्रियंका को अपने भाई के लिए दूसरी भूमिका निभानी होगी.

आखिरी विकल्प

इसके बाद हमारे पास आखिरी विकल्प बचता है- कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे. करीब 17 फीसदी दलित आबादी वाले देश में जगजीवन राम के बाद कोई भी दलित राजनेता प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर नहीं देखा गया. मायावती को छोड़कर, जिनका दलितों के बीच, यहां तक कि यूपी में भी, व्यापक रूप से उनकी छवि घटी है या क्षऱण हुआ है, कोई भी राष्ट्रीय दलित नेता नहीं है जो इस उत्पीड़ित और वंचित मतदाताओं का विश्वास जीत सके. सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के अध्यक्ष के रूप में खड़गे एक संभावित प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार हो सकते हैं, लेकिन कांग्रेस गांधी परिवार से अलग नहीं देखती .

समाप्त करने से पहले मुझे एक चेतावनी देनी होगी. लोकप्रियता के मामले में नीतीश कुमार, खड़गे या प्रियंका का अब भी पीएम मोदी की लोकप्रियता से कोई मुकाबला नहीं है. लेकिन वे विपक्ष को एक नया नैरेटिव बनाने में मदद कर सकते हैं, जब उसके पास सत्ता विरोधी माहौल से परे कुछ भी नहीं है. वैसे भी, अगर कांग्रेस की चली तो विपक्षी दलों को तीसरी बार-भाग्यशाली वाली कहावत पर विश्वास करना होगा.

डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. व्यक्ति विचार निजी हैं.

(संपादन:पूजा मेहरोत्रा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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