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Friday, 1 November, 2024
होममत-विमतUP में BJP ने एड़ी-चोटी का जोर लगाकर अखिलेश को भले ही 'अर्जुन' न बनने दिया, 'अभिमन्यु' नहीं बना पाई

UP में BJP ने एड़ी-चोटी का जोर लगाकर अखिलेश को भले ही ‘अर्जुन’ न बनने दिया, ‘अभिमन्यु’ नहीं बना पाई

इन चुनावों को 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव का सेमी फाइनल बताया जा रहा था. और इस लिहाज से भी कि उसने प्रतिद्वंद्वी दलों को नतीजों में ही नहीं, मुद्दों, रणनीति, प्रबंधन और समीकरणों के चुनाव व मत-प्रतिशत के मामलों में भी शिकस्त दी है.

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देश के पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की जीत नि:स्संदेह उसकी बड़ी उपलब्धि है. इस लिहाज से भी कि इनमें से चार राज्यों में वह अपनी सरकारों की वापसी की चुनौती से जूझ रही थी और उसकी प्रतिष्ठा उसके प्रतिद्वंद्वियों से कहीं ज्यादा दांव पर थी. इस लिहाज से भी कि इन चुनावों को 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव का सेमी फाइनल बताया जा रहा था. और इस लिहाज से भी कि उसने प्रतिद्वंद्वी दलों को नतीजों में ही नहीं, मुद्दों, रणनीति, प्रबंधन और समीकरणों के चुनाव व मत-प्रतिशत के मामलों में भी शिकस्त दी है. हां, देश की लगातार जनविरोधी राजनीति में विचारधारा जैसी कोई चीज बची है, तो कहना होगा कि भाजपा ने अपनी विचारधारा को भी, उसके विरोधी जिसे संकीर्ण, साम्प्रदायिक और नफरत फैलाने वाली करार देकर धिक्कारते नहीं थकते, वैधता प्रदान करा दी है. दूसरे शब्दों में कहें तो उसने जता दिया है कि वह खुद को यों ही दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी नहीं कहती.

देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की बात करें तो उसकी सीटें घटी जरूर हैं, लेकिन बहुचर्चित योगी-मोदी अंतर्विरोध के कारण अपने अंदर मची उठापटक और बाहर नजर आती विभिन्न वर्गों की नाराजगी के बावजूद उसने पिछले कई विधानसभा चुनावों से चला आ रहा सत्ता परिवर्तन का सिलसिला तोड़कर अपनी धमाकेदार वापसी करा ली है-दर्पपूर्वक ‘आयेंगे तो योगी ही’ कहते हुए, जिसके बाद उसके उत्साही नेता व कार्यकर्ता दावा कर रहे हैं कि वे तो पहले से ही कहते आ रहे थे कि बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी और कोरोना कुप्रबंधन के कारण आम लोगों, खासकर किसानों व युवाओं में जिस असंतोष की बात पार्टी के विरोधी प्रचारित कर रहे थे, वह कहीं नहीं थी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट-मुस्लिम एकता की हवा तो गृहमंत्री अमित शाह ने जाट नेताओं के साथ अपनी बहुप्रचारित बैठक में ही निकाल दी थी.


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यह और बात है कि प्रदेश के जनादेश का एक अर्थ यह भी निकाला ही जायेगा कि उसके पीछे योगी सरकार की सराहनाएं कम समाजवादी पार्टी की सीमाएं ज्यादा हैं. भले ही चुनाव अभियान के दौरान सपा मुख्य विकल्प बनकर उभरी और भाजपा की बेदखली की इच्छुक शक्तियों की सदाशयता अर्जित की, जिससे उसे 2017 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले साफ बढ़त मिलती दिखी, उसके द्वारा अतीत में खुद बनाई गई अपनी सीमाओं के कारण ज्यादातर मतदाता उसके प्रति अपना मन साफ नहीं कर पाये और ढेर सारे असंतोषों के बावजूद भाजपा से जुड़े रह गये. अन्यथा नतीजे कुछ और होते. इसे यों समझा जा सकता है कि उत्तराखंड, गोवा व मणिपुर के मतदाताओं ने भी उत्तर प्रदेश के ही मतदाताओं की तरह भाजपा के ‘पहले आजमाये और नकारे जा चुके’ विकल्पों को आजमाने से मना कर दिया, लेकिन पंजाब में उपलब्ध कांग्रेस के नये विकल्प आम आदमी पार्टी को सत्ता सौंपने से गुरेज नहीं किया.

तिस पर सपा ने यह समझने में भी गलती की कि चुनाव केवल कुछ तबकों की सदाशयता के बूते नहीं जमीनी हकीकतों को अपने पक्ष में करके जीते जाते हैं. फिर उसके मुकाबले भाजपा की दो बड़ी सुविधाएं थीं. पहली: वह योगी सरकार से नाराज मतदाताओं को 2012 से 2017 के सपा के अखिलेश राज के ‘कहीं ज्यादा अंधेरे’ और ‘दंगाइयों, माफियाओं, परिवारवादियों, तमंचावादियों व दंगाइयों’ वाले दिनों की याद दिला दे. पूरे चुनाव अभियान के दौरान सपा उसकी इस सुविधा को असुविधा में नहीं बदल पाई और उसके समक्ष रक्षात्मक हो जाती रही.

भाजपा की दूसरी सुविधा यह थी कि 1995 में सपा और बसपा का गठबंधन टूटने, उसकी तत्कालीन मुलायम सरकार गिरने और मायावती के साथ बहुचर्चित गेस्टहाउस कांड के बाद जिस दलित-यादव दुश्मनी की नींव पड़ी थी, अखिलेश के ‘नयी सपा है, नई हवा है’ के नारे के बावजूद उसकी गांठ नहीं खुली. 2019 के लोकसभा चुनाव में ‘बुआ और बबुआ’ यानी मायावती व अखिलेश ने पुरानी कटुता भुलाकर फिर से गठबंधन किया था तो भी इस दुश्मनी के ही कारण वह उनके किसी काम नहीं आ सका.

इस बार भी, गैरयादव पिछड़ी व अति पिछड़ी और गैरजाटव दलित जातियों के जिन नेताओं ने भाजपा के साथ चार साढ़े चार साल तक सत्तासुख भोगने के बाद उसमें घुटन महसूस करके अथवा बसपा का कोई भविष्य न देखकर सपा की बांह गही, वे भी उसकी उम्मीदों को परवान नहीं चढ़ा सके. भले ही उनको जोड़ने के बाद सपा यह सोचकर अपने को अजेय मान बैठी थी कि अब उनकी जातियों के वे वोट बिना प्रयास उसकी झोली में आ गिरेंगे, नरेन्द्र मोदी के उभार के बाद जिनका रुख भाजपा की ओर हो गया था.

सपा इन नेताओं के बूते अपनी उम्मीदें परवान न चढ़ने के अपने गम को यह कहकर भी गलत नहीं कर सकती कि भाजपा ने उनमें सरकारी योजनाओं के लाभार्थियों की अलग श्रेणी बना ली और मुफ्त के राशन से उन्हें अपनी ओर कर लिया. क्योंकि प्रदेश की राजनीति में ‘मुफ्त’ की शुरुआत का श्रेय भी उसी को जाता है. 2012 के विधानसभा चुनाव में सपा ने ही मुफ्त लैपटाॅप का वादा करके युवाओं को अपनी ओर किया था. इस चुनाव में भी उसने मुफ्त के भाजपा से कुछ कम वादे नहीं किये, लेकिन उन्हें चला नहीं पाई.

साफ कहें तो इस मामले में उसके और भाजपा के बीच मतदाताओं की दूषित चेतनाओं के इस्तेमाल का जो खेल चला, उसमें भी भाजपा उससे इक्कीस साबित हुई. इसलिए कि सात दशकों के लोकतंत्र में नीति आधारित अलगाव को दरकिनार कर लगभग एक जैसे हो चले राजनीतिक दलों की मौका व मतलबपरस्ती के कारण आम मतदाता उस मोड़ पर जा पहुंचे हैं, जहां वे सत्ता परिवर्तन करके भी ठगे हुए से महसूस करते हैं और सरकारों को वापस लाकर भी. कई बार चुनावों में पाले खींचे जाने लगते हैं तो इन मतदाताओं को समझ में नहीं आता कि इधर जायें या उधर जायें. उनका यह असमंजस प्रायः सरकारों के पक्ष में जाता है क्योकि वे उनको कुछ तात्कालिक लाभ देकर समझा देती हैं. कुछ इस तरह कि महंगाई और बेरोजगारी जैसी समस्याओं से तो उन्हें सरकार बदलकर भी निजात नहीं ही मिलने वाली. भेंड़ जहां भी जायेगी, मूंड़ी तो जायेगी ही.

लेकिन बसपा व कांग्रेस को बख्श कर उत्तर प्रदेश में भाजपा को न हरा पाने का सारा ठीकरा समाजवादी पार्टी पर ही फोड़ देना इस कहावत को ही सही सिद्ध करना होगा कि जीत के सौ माई-बाप होते हैं, लेकिन हार का कोई नहीं. नि:स्संदेह, यह हार इस अर्थ में उसके लिए सबक है कि उसके सुप्रीमो अखिलेश यादव चुनावों से कुछ महीनों पूर्व तक, जब कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी कई जनमुद्दों को लेकर संघर्षरत थीं, काफी हद तक निष्क्रिय, निर्लिप्त और उदासीन से दिख रहे थे. यह वह वक्त था, जब उन्हें अपने कार्यकर्ताओं को मतदाता सूचियों के पुनरीक्षण के दौरान नामों की कतरब्यौत में किये जाने वाले खेलों से आगाह करना और उन्हें रोकने में लगाना था. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया और कई सीटों पर सपा के उम्मीदवारों ने इसका खामियाजा भुगता. दूसरे दलों से सपा में आये कई नेता सपा के टिकटार्थियों के बागी होकर चुनाव मैदान में उतरने व वोटों का बंटवारा कराने से हार गये, जो न हारते अगर अखिलेश समय रहते उनकी बगावत का शमन करा देते.

लेकिन अखिलेश ठीक से तब मैदान में उतरे, जब योगी सरकार के प्रति फैली भाजपा विधायकों तक में फैली नाराजगी मुखर होने लगी और लगा कि सपा को उससे कुछ हासिल हो सकता है. ठीक है कि उन्होंने इससे पहले भी जयंत चैधरी के राष्ट्रीय लोकदल और ओमप्रकाश राजभर की सुभासपा समेत कई छोटे दलों से गठबंधन करके उन्होंने अपनी व अपनी पार्टी की अपील विस्तृत करने की कुछ कोशिशें की थीं, लेकिन विषम चुनावी मुकाबले में उनकी ये कोशिशें अपर्याप्त सिद्ध हुईं और उनकी पार्टी उनके नेतृत्व में लगातार चैथा चुनाव हार गई. वैसे ही जैसे 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से और 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा से गठबंधन करके भी वह नहीं जीत पाई थी.

शिकस्तों के इस सिलसिले का उसके लिए सबसे बड़ा सबक यही है कि इस से उस चुनाव तक की ही सोचते रहने से ही वह इसे नहीं तोड़ सकती. खासकर, जब उसका मुकाबला ऐसी पार्टी से है, जिसके सामने न सिर्फ मीडिया नतमस्तक हुआ रहता है, बल्कि चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाएं भी अपनी साख दांव पर लगाने को तैयार रहती हैं.

हां, ताजा शिकस्त के बावजूद अखिलेश की प्रशंसा की जानी चाहिए कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह समेत भाजपा के ढेर सारे स्टार प्रचारकों के सामने वे दृढ़तापूर्वक अकेले खड़े रहे और एक पल को भी उनके ट्रैप में आते नहीं दिखे. दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी ने एड़ी-चोटी का जोर लगाकर उन्हें ‘अर्जुन’ भले ही नहीं बनने दिया, ‘अभिमन्यु’ नहीं ही बना पाई.

(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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