प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सत्ता संभालते ही घोषणा की थी कि वह 4 साल शासन चलाएंगे और 1 साल राजनीति करेंगे. अब लोकसभा चुनाव के महज कुछ महीने बचे हैं. मोदी राजनीति की चालें चल रहे हैं और विपक्ष को कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है. देश में राजनीतिक चर्चा बदल चुकी है और फिलहाल वह भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के पक्ष में है.
सरकार के जब 4 साल पूरे हुए तो विपक्ष ने काम का हिसाब मांगना शुरू किया. सरकार से पूछा जाने लगा कि हर साल 2 करोड़ लोगों को रोजगार देने के वादे का क्या हुआ. किसानों की आर्थिक बदहाली पूरे देश में अहम मसला बना. देश भर में किसानों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया. सवर्ण तुष्टीकरण और पिछड़े वर्ग के आरक्षण को खत्म किए जाने की प्रक्रिया को लेकर संसद से सड़क तक आवाज गूंजी. इस बीच लालू प्रसाद, अखिलेश यादव, मायावती, राहुल गांधी, राबर्ट वाड्रा, पी चिदंबरम सहित करीब सभी विपक्षी दलों पर छापे पड़े या केस दर्ज हुए. लेकिन राहुल गांधी के यह कहते ही कि ‘सरकार छापे किसी पर पड़वाए, लेकिन यह नहीं भूलना है कि चौकीदार ही चोर है,’ सभी छापों की हवा निकल गई.
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लेकिन अब माहौल बदल गया है. भारत में तमाम आतंकवादी हमले हुए. पठानकोट में तो हद ही हो गई थी, जब आतंकवादी सेना के स्थानीय मुख्यालय में ही घुस आए थे और घुसपैठियों को मारने के लिए एक हफ्ते के करीब अभियान चलाना पड़ा. इसके अलावा कश्मीर में ही तमाम बड़े हमले हुए हैं. एक-दो जवानों की सीमा पर मौत और हल्की-फुल्की गोलाबारी तो खबर भी नहीं बनती.
प्रधानमंत्री के पहले के बयान पर भरोसा करें तो अब वह राजनीति करने के मूड में हैं और पूरी तरह से राजनीति कर भी रहे हैं. भाजपा के मंत्रियों, सांसदों, मुख्यमंत्रियों को शहीदों के अंतिम संस्कार यात्रा में जाने के लिए कह दिया गया. प्रधानमंत्री ने खुद मोर्चा संभाल लिया है.
इस बीच केंद्र सरकार की सुस्ती और उसके द्वारा पक्ष न रखे जाने के कारण उच्चतम न्यायालय ने करीब 1 करोड़ आदिवासियों और वन क्षेत्र में रहने वाले लोगों को बेदखली का आदेश दे दिया. कांग्रेस अध्यक्ष ने उस पर सक्रियता दिखाते हुए कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों से उच्चतम न्यायालय में समीक्षा याचिका दायर करने को कहा. कांग्रेस ने अर्धसैनिक बलों में मरने वाले लोगों को शहीद का दर्जा देने को कहा, उनकी पुरानी पेंशन व्यवस्था बहाल करने का वादा किया. लेकिन सभी वादे, कार्रवाइयां बदले के माहौल में दब गईं.
इतना ही नहीं, दलितों, पिछड़ों के आरक्षण का मसला, बगैर विचार किए सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने का मसला, पूर्वोत्तर में नागरिकता का मसला, असम में जहरीली शराब पीने की वजह से 200 नागरिकों के मारे जाने का मसला, अरुणाचल प्रदेश में 6 आदिवासी समुदायों को स्थायी निवासी प्रमाण पत्र देने के प्रस्ताव के खिलाफ मुख्यमंत्री का ही घर जला दिए जाने का मसला विश्वविद्यालयों द्वारा 13 प्वाइंट रोस्टर के आधार पर बगैर एससी, एसटी ओबीसी आरक्षण के रिक्तियां निकाले जाने के मसले सहित तमाम मुद्दे चर्चा से बाहर हैं.
भारत के हर नागरिक की इच्छा है कि देश से आतंकवाद खत्म हो. देश में अमन चैन बहाल हो. हर धर्म, समुदाय, जाति, जातीय समूह के लोग खुशहाली से रहें. पहले की सरकारें भी आतंकवाद के खिलाफ कदम उठाती रही हैं, लेकिन इस बार यही एकमात्र मुद्दा बन गया है.
कांग्रेस सहित तमाम विपक्षी दल कोशिश में हैं कि सरकार के 4 साल के कामकाज को मसला बनाया जाए. वहीं मोदी ने सैन्य कार्रवाई और सैनिकों के मारे जाने से देश में उपजे गुस्से को मसला बना लिया है. सरकार की पूरी कवायद यही लग रही है कि सिर्फ इसी मसले पर बात हो. वह सफल भी है. विपक्षी दलों की बड़ी घोषणाएं भी बदले के उन्माद में दब जा रही हैं.
ऐसे में विपक्ष क्या करे, यह अहम सवाल है. आतंकवाद देश पर संकट से जुड़ा मसला है. हर दल का दायित्व है कि वह इस मसले पर सरकार का साथ दे. सरकार की हर कार्रवाई का समर्थन करे और सत्ता में आने के बाद आतंकवाद के मसले पर नो टॉलरेंस की नीति का वादा करे और उस पर अमल का भरोसा देश के नागरियों को दिलाए.
इसके अलावा देश की आंतरिक स्थिति को भी मसला बनाया जाना चाहिए. इसमें सबसे बड़ा मसला देश की 52 प्रतिशत से अधिक पिछड़े वर्ग की आबादी की हकमारी का है. संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार में तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने शिक्षण संस्थानों में ओबीसी के आरक्षण का प्रस्ताव पेश किया तो पूरे देश में सवर्णों ने जूता पॉलिश सहित तमाम तरह के विरोध प्रदर्शन शुरू किया था. लेकिन अर्जुन सिंह कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को बार बार पत्र लिखकर यह समझाने की कवायद करते रहे कि यह वंचितों को अधिकार देने का मसला है और कांग्रेस को इसका राजनीतिक लाभ भी मिलेगा. आखिरकार आरक्षण लागू हुआ और 2009 के चुनाव में कांग्रेस मजबूती से सत्ता में आने में कामयाब रही.
राजनीतिक चर्चा का रुख बदलने में वंचित तबके को अधिकार दिए जाने का मसला अभी भी उतना ही अहम है, जितना अर्जुन सिंह के कार्यकाल में था. कांग्रेस के शासनकाल में ही 1992 में न्यायालय के आदेश के बाद ओबीसी आरक्षण लागू किया गया था. लेकिन आज यह हालात है कि अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, त्रिपुरा, लक्षद्वीप में ओबीसी चिह्नित ही नहीं किए गए और वहां ओबीसी आरक्षण लागू नहीं है.
ओबीसी को छत्तीसगढ़ में 14 प्रतिशत, हरियाणा में क्लास 1 व और क्लास 2 सेवाओं में 10 प्रतिशत, हिमाचल प्रदेश में क्लास 1 और क्लास 2 सेवाओं में 12 प्रतिशत, झारखंड में 14 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 14 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 21 प्रतिशत, मणिपुर में 17 प्रतिशत, पंजाब में नौकरियों में 12 प्रतिशत और शैक्षणिक संस्थानों में 5 प्रतिशत, राजस्थान में 21 प्रतिशत, सिक्किम में 21 प्रतिशत, उत्तराखंड में 14 प्रतिशत, दादरा और नागर हवेली में 5 प्रतिशत ही आरक्षण मिलता है.
ऐसे में कांग्रेस को एक बार फिर अर्जुन सिंह की तरह ही साहसिक कदम उठाने की जरूरत है. कांग्रेस ने भले ही ओबीसी को आबादी के हिसाब से 52 प्रतिशत आरक्षण की बात की है. लेकिन अब बात से काम नहीं चलने वाला है. पाकिस्तान और आतंकवाद से भारत की रक्षा करने के लिए सरकार का साथ देने के साथ जरूरी है कि कांग्रेस आंतरिक सुरक्षा और नागरिकों के हकों को लेकर अति सक्रियता दिखाए.
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इसमें पहला कदम यह हो सकता है कि सरकार कम से कम कांग्रेस शासित बड़े राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और पंजाब में ओबीसी आरक्षण मंडल कमीशन की सिफारिशों के मुताबिक 27 प्रतिशत कर दे. साथ ही एक बेहतरीन मसौदा तैयार करके निजी क्षेत्र में पिछड़े वर्ग को आरक्षण दे दे, क्योंकि अब ज्यादातर नौकरियां निजी क्षेत्र में आ रही हैं. ऐसा करना कांग्रेस के लिए कठिन भी नहीं है, क्योंकि वह मनमोहन सिंह सरकार के यूपीए-1 के दौरान दलितों पिछड़ों को निजी क्षेत्र में प्रतिनिधित्व देने के लिए मसौदा के स्तर पर काम कर चुकी है.
अगर कांग्रेस ऐसा करने का साहस दिखाती है तो पूरी संभावना है कि देश के राजनीति की चर्चा बदल जाएगी और इससे देश में बिल्कुल वही माहौल बनने की संभावना है, जो अर्जुन सिंह के मानव संसाधन विकास मंत्री रहते हुए बनी थी.
(प्रीति सिंह राजनीतिक विश्लेषक हैं.)