जैसे-जैसे लोकसभा चुनावों के चरण निपटते जा रहे हैं, भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के दावे ज़मीनी होते जा रहे हैं. आरंभ में पार्टी नेता 350 से ऊपर सीटें पाने का दावा कर रहे थे, लेकिन पहले-दूसरे चरण के बाद वो भाजपा के अपने बूते पर सरकार बनाने की बात कहने लगे और आगे के चरणों में वो एनडीए के सभी दलों को मिलाकर सरकार बनाने की बात कहने लगे.
अब पांच चरण पूरे हो चुके हैं, तो भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेता सार्वजनिक रूप मानने लगे हैं कि भारतीय जनता पार्टी का बहुमत से पीछे रह जाना संभव है. ये ज़रूर है कि उनको ये लगता है कि चुनाव बाद कुछ दलों के सहयोग से सरकार भाजपा ही बनाएगी.
एक तरह से देखा जाए तो भाजपा के नेता अब दोबारा बहुमत पाने के आसार नहीं देखते, लेकिन सरकार बनाने की उम्मीद ज़रूर पाले हैं. इस अविश्वास भरे विश्वास के पीछे कुछ खास कारण हैं.
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पहला कारण ये है कि भाजपा ये मानकर चल रही है कि बुरी से बुरी हालत में भी वह 150 के आसपास सीटें पा जाएगी, साथ ही कांग्रेस अच्छे से अच्छी स्थिति में भी 150 तक नहीं पहुंच पाएगी. गौरतलब है कि 2004 में कांग्रेस के 145 सांसद जीते थे और उसने न सिर्फ सरकार बनाई थी, बल्कि सरकार पांच साल तक चली थी. अगर भाजपा सबसे बड़ी पार्टी रहेगी तो सरकार बना पाने के उसके आसार सबसे ज़्यादा रहेंगे. बीजेपी को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद पर भी भरोसा है, जो पहले बीजेपी के नेता रह चुके हैं.
दूसरा कारण ये है कि भाजपा के विरोध में कोई एक ऐसा मोर्चा नहीं बन सका है जो तमाम गैर भाजपाई दलों की एकता के लिए धुरी का काम करे. कांग्रेस के नेतृत्व वाला यूपीए है जिसमें आरजेडी, एनसीपी, जेडीएस, डीएमके, टीडीपी प्रमुख दल हैं. इन सबको मिलाकर कांग्रेस का गठबंधन उस स्थिति में ही 200 पार पहुंच सकता है, जब कांग्रेस अकेले 150 के आसपास सीटें पाए. आमतौर पर कांग्रेस को अधिक से अधिक सवा सौ सीटें पाने की उम्मीद है और कांग्रेसी इतनी सीटें पाने को ही बहुत अच्छा मानकर चल रहे हैं क्योंकि पिछली बार वह केवल 44 पर सिमट गई थी.
यूपीए के अलावा, एक गठबंधन समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल का है जो 70 सीटें जीतने का दावा कर रहा है. व्यावहारिक आकलन में उसके नेताओं का अनुमान 50 के करीब सीटें पाने का है.
भाजपा की सरकार बनाने की उम्मीदें इसी बात पर कायम हैं कि चुनाव बाद इन दोनों गठबंधनों से कई दल ‘उचित कीमत’ लेकर उसकी ओर आकर्षित हो सकते हैं. ऐसा पहले भी होता रहा है और इस बार तो भाजपा के पास खरीद-फरोख्त करने के संसाधन अन्य दलों की तुलना में बहुत ज़्यादा मौजूद हैं.
दरअसल, भाजपा नेताओं की सोच यह है कि जब 125 से 150 सीटें लेकर कांग्रेस केंद्र में सरकार बनाने का दावा कर सकती है, तो इस मामले में भाजपा और ज़्यादा आरामदायक स्थिति में है. कमज़ोर प्रदर्शन करके भी उसे इतनी सीटें जीतने की उम्मीद है कि अन्य दलों को मिलाकर वह 272 तक तुलनात्मक रूप से ज़्यादा आसानी से पहुंच सकती है.
वैसे एनडीए में भी भाजपा के अलावा, शिवसेना, जेडीयू, एआईएडीएमके जैसे दल हैं, जिनके प्रदर्शन को लेकर भी बीजेपी को उम्मीद है. हालांकि इनका सम्मिलित आंकड़ा 30 के आसपास सिमट सकता है.
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भाजपा की उम्मीद का एक कारण वे दल भी हैं जो अभी किसी मोर्चे में नहीं हैं. ऐसे दलों में तेलंगाना राष्ट्र समिति, वाईएसआर कांग्रेस और बीजू जनता दल प्रमुख हैं. यह भी माना जा रहा है कि ये दल अपने-अपने राज्यों में बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं.
साथ ही तृणमूल कांग्रेस भी संभावित साथियों में हो सकती है. आज भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के बीच तनाव सबसे ज़्यादा भले ही दिख रहा हो, लेकिन एक बार चुनाव निपट जाने के बाद नए सिरे से बात की जा सकती है. तृणमूल कांग्रेस पहले भी एनडीए के साथ रह चुकी है और नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री न बनाए जाने की सूरत में वह भी अपने संबंधों पर पुनर्विचार कर सकती है. यह ज़रूर है कि उसकी पहली कोशिश गैर भाजपा और गैर कांग्रेसी सरकार बनाने की होगी, लेकिन उसके पहले ही अगर एनडीए 272 का आंकड़ा छूता दिखे तो ममता बनर्जी भाजपा के साथ अपनी कटुता और ज़्यादा बढ़ाना नहीं चाहेंगी.
इसी तरह से टीआरएस का मामला है जो फेडरल फ्रंट बनाने की पहल करती दिखती रही है, लेकिन चुनाव बाद अपने स्टैंड पर फिर से विचार करने में उसे कोई नुकसान नहीं दिखेगा.
इस तरह से देखें, तो भाजपा हारकर भी जीत की संभावना देख रही है और अगर गैर भाजपाई दल तथा कांग्रेस उसे सत्ता से पूरी तरह दूर रखना चाहते हैं तो उनके लिए छठे और सातवें चरण में बड़ी सफलता पाना और भाजपा को 150 से कम पर सीमित करना ही एकमात्र विकल्प है.
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं)