scorecardresearch
Thursday, 31 October, 2024
होममत-विमतओबीसी पर वज्रपात की तैयारी में बीजेपी, लाखों वेतनभोगी आरक्षण से बाहर होंगे

ओबीसी पर वज्रपात की तैयारी में बीजेपी, लाखों वेतनभोगी आरक्षण से बाहर होंगे

ओबीसी कोटा अब तक आधा ही भर पाया है, वैसी स्थिति में अगर सरकार नौकरीपेशा लोगों के बच्चों को ओबीसी से बाहर करके ओबीसी कैंडिडेट की संख्या को और कम कर देती है तो इसका फायदा सिर्फ और सिर्फ सवर्णों को होगा.

Text Size:

हेडलाइंस यानी शीर्षक कई बार भ्रामक होते हैं. कई बार हेडलाइन अर्धसत्य बताते हैं तो कई बार वे असली खबर को छुपा ले जाते हैं. असली खबर कई बार नीचे, बहुत नीचे और मुमकिन है कि आखिरी लाइन में लिखी गई हो. ऐसा गलती से भी होता है और जान-बूझकर भी किया जाता है.

नरेंद्र मोदी सरकार का ओबीसी क्रीमी लेयर के लिए आमदनी की लिमिट को 8 लाख रुपए सालाना से बढ़ाकर 12 लाख रुपए करने का प्रस्ताव ऐसी ही भ्रामक हेडलाइंस की शक्ल में सामने आ रहा है, जबकि असली खबर ये है कि सरकार वेतनभोगी लोगों के एक बड़े हिस्से को ओबीसी से बाहर करने जा रही है. खबरें कुछ इस अंदाज में छापी जा रही है मानो बिहार चुनाव से पहले बीजेपी ओबीसी को कोई तोहफा देने जा रही है और कि इससे ओबीसी को कोई फायदा होने जा रहा है, जिसकी वजह से उसे बीजेपी की झोली वोटों से भर देनी चाहिए.

क्रीमी लेयर के लिए आय की लिमिट बढ़ाना रुटीन खबर

क्रीमी लेयर का सिद्धांत जब आया था तब क्रीमी लेयर के लिए आमदनी की लिमिट 1 लाख रुपए प्रति वर्ष थी. महंगाई के हिसाब से हर तीन साल में इसमें बढ़ोतरी का प्रावधान है. ओबीसी बुद्धिजीवियों का कहना है कि अगर महंगाई दर को ध्यान में रखा जाए तो क्रीमी लेयर के लिए आमदनी की लिमिट अब 22 लाख रुपए सालाना होनी चाहिए. इस लिहाज से देखा जाए तो क्रीमी लेयर की आमदनी की लिमिट 12 लाख रुपए करना बेहद मामूली बात है, जो वैसे भी हर तीन साल पर बढ़ती रहती है.

आगे बढ़ने से पहले ये जान लें कि ओबीसी या अन्य पिछड़ा वर्ग संविधान के अनुच्छेद 340 के मुताबिक देश का वह वर्ग है जो शैक्षणिक और सामाजिक रूप से पिछड़ा है. दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग यानि मंडल कमीशन के मुताबिक देश की 52% आबादी इस वर्ग में आती है. चूंकि केंद्र सरकार सामाजिक-आर्थिक और जातीय जनगणना, 2011 के आंकड़े जारी नहीं कर रही है, इसलिए हर किसी को इसी आंकड़े से काम चलाना पड़ता है.

अब लौटते हैं क्रीमी लेयर की खबर पर. 12 लाख रुपए की हेडलाइन के नीचे असली खबर ये है कि केंद्र सरकार पहली बार हर तरह के नौकरीपेशा लोगों के वेतन को आमदनी की गणना में इस्तेमाल करने जा रही है. ऐसी खबरें छपी हैं कि राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग इस बात के लिए तैयार हो गया है कि वेतन को आमदनी में गिना जाए. हालांकि आयोग की तरफ से इसकी आधिकारिक घोषणा नहीं हुई है. लेकिन सरकार की इस बारे में मंशा स्पष्ट है. सरकार चाहती है कि वेतन को भी आमदनी में जोड़कर क्रीमी लेयर का निर्धारण किया जाए.


यह भी पढ़ें: भारतीय सेक्युलरिज्म पर हिंदी की यह किताब उदारवादियों को बेनकाब कर सकती थी पर नजरअंदाज कर दी गई है


केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के नेतृत्व में गठित मंत्रियों के समूह और इसके निर्धारण के बारे में सिफारिश देने के लिए बनी बीपी शर्मा कमेटी की इस बारे में एक ही राय है. विरोध आयोग की तरफ से हुआ और सूचना है कि आयोग के सदस्यों पर दबाव डाला जा रहा है कि वे सरकार की राय पर मुहर लगा दें.

अगर ऐसा होता है तो सरकारी से लेकर निजी क्षेत्र के लाखों लोगों के बच्चे ओबीसी कोटे से बाहर हो जाएंगे. इस वजह से और क्या-क्या होगा, इस पर हम इस लेख में आगे विचार करेंगे. फिलहाल जान लेते हैं कि सरकार और बीजेपी इसके जरिए क्या हासिल करना चाहती है.

क्रीमी लेयर को लेकर क्या है ताजा विवाद

क्रीमी लेयर की अवधारणा दरअसल संविधान या मंडल कमीशन में नहीं है. जब केंद्र सरकार की नौकरियों में 27% ओबीसी आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई तब 9 जजों की संविधान पीठ ने इंदिरा साहनी मुकदमे में ये फैसला दिया कि सरकार ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण दे सकती है लेकिन ये आरक्षण ओबीसी के क्रीमी लेयर यानि आगे बढ़े हुए तबके को नहीं दिया जाएगा. इसी के आधार पर केंद्र सरकार ने 1993 में आदेश जारी करके निर्धारित किया कि कौन कौन से लोग क्रीमी लेयर में आएंगे. इसमें संवैधानिक पदों पर मौजूद व्यक्ति, क्लास वन अफसर और कई तरह की कटेगरी निर्धारित की गई. कुल आमदनी की लिमिट 1 लाख रुपए सालाना निर्धारित की गई. लेकिन वेतन की आय को आदमनी में नहीं जोड़ा गया.

अब पहली बार मोदी सरकार वेतन को आमदनी में जोड़कर क्रीमी लेयर का निर्धारण करना चाहती है. सरकार की तरफ से इसके लिए तर्क दिया जा रहा है कि अभी आमदनी की गणना को लेकर बहुत उलझन है. उन पेचीदगियों से बचने के लिए हर तरह की आमदनी, जिसमें वेतन शामिल है, को क्रीमी लेयर की गणना में शामिल किया जाए.

लेकिन ये वो बात है जो सरकार सार्वजनिक रूप से कह रही है. इसके पीछे बीजेपी की दो मंशा है.

एक, बिहार चुनाव से पहले बीजेपी मतदाताओं को ये कहेगी कि उसने ओबीसी के नौकरीपेशा वर्ग के बड़े हिस्से को ओबीसी कोटे से बाहर कर दिया है, जिससे आरक्षण का लाभ अब गरीब ओबीसी को मिलेगा. इस तरह बीजेपी बिहार में ओबीसी वोट में सेंधमारी करना चाहती है, जो तमाम कोशिशों के बावजूद अब तक उसका नहीं हुआ है. बिहार में ओबीसी वोट पर अब भी सबसे बड़ी दावेदारी आरजेडी की है, जिसकी बदौलत आरजेडी अब भी बिहार विधानसभा की सबसे बड़ी पार्टी है.

और दो, बीजेपी अपने सवर्ण कोर वोटरों को कहेगी कि उसने ओबीसी को खंड-खंड कर दिया है और उनमें आपस में ही झगड़ा लगा दिया है. सवर्णों को सबसे ज्यादा चुनौती ओबीसी से ही मिलती है. सवर्ण तुष्टीकरण की दिशा में बीजेपी का ये दूसरा बड़ा कदम होगा. इससे पहले बीजेपी सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण दे चुकी है.


यह भी पढ़ें: कोरोना संकट में ईश्वर की सत्ता का कुछ नहीं बिगड़ा, तस्लीमा नसरीन गलत साबित हुईं


ओबीसी बेशक इस बात को समझे या न समझें, सवर्ण बुद्धिजीवी इस बात को समझ रहे हैं कि अगर नौकरीपेशा ओबीसी का बड़ा हिस्सा ओबीसी आरक्षण से बाहर होता है तो इससे कुल मिलाकर ओबीसी की सत्ता और संसाधनों पर दावेदारी कमजोर होगी. किसी भी समाज में आगे बढ़ा हुआ तबका और खासकर पढ़ा-लिखा मिडिल क्लास ही उस वर्ग की दावेदारी को मजबूत करता है और वही उस तबके के हितों की रक्षा करने में समर्थ होता है. अगर ये तबका ओबीसी से काट कर अलग कर दिया गया, तो न तो ओबीसी आरक्षण को बचा पाना आसान होगा, न ही आरक्षण को सही तरीके से लागू करने की लड़ाई संभव होगी. खासकर तब जबकि लैटरल एंट्री और अदालती फैसलों का सहारा लेकर सरकार आरक्षण को कमजोर करने में जुटी हुई है.

क्रीमी लेयर की अवधारणा और आरक्षण

अगर सरकार वेतन को क्रीमी लेयर के निर्धारण में क्राइटेरिया के तौर पर शामिल करती है, तो निम्न मध्यमवर्गीय परिवार भी ओबीसी कोटा से बाहर हो जाएंगे. मिसाल के तौर पर अगर किसी परिवार में पति और पत्नी प्राइमरी स्कूल में शिक्षक हैं तो 23 या 24 साल की उम्र में जब उनकी बेटी किसी नौकरी के लिए तैयार होगी, तब तक उनकी आमदनी क्रीमी लेयर की लिमिट को पार कर चुकी होगी और उस लड़की को आरक्षण से बाहर होना पड़ेगा. इसमें प्राइवेट सेक्टर में काम करने वालो का वेतन भी शामिल होगा, जबकि वहां नौकरियों में कोई स्थायित्व नहीं होता.

दरअसल क्रीमी लेयर की पूरी धारणा ही समस्यामूलक है. संविधान का आर्टिकल-340 शैक्षणिक और सामाजिक पिछड़ापन की बात तो करता है लेकिन उसमें आर्थिक पिछड़ापन शब्द नहीं है. कुछ जातियों का सामाजिक पिछड़ापन इसलिए नहीं है कि वे गरीब हैं. उनके साथ अवमानना या अपमान का व्यवहार इसलिए होता है क्योंकि वे जातिक्रम में नीचे हैं. ये आर्थिक नहीं, सामाजिक समस्या है.

वैसे भी आरक्षण गरीबी उन्मूलन का कार्यक्रम नहीं है. उसके लिए सरकार की दर्जनों योजनाएं हैं, जिनके जरिए सरकार गरीबों का ख्याल रखती है. उसके लिए मनरेगा है, गरीब कल्याण योजना है, जन-धन खाते हैं, डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर है. आरक्षण का उद्देश्य सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन को दूर करना और राजकाज में जिन समूहों की हिस्सेदारी नहीं है या कम है, उन्हें हिस्सेदारी देना है.

हालांकि सरकार संविधान की मूल भावना की अनदेखी करके आरक्षण के लिए आर्थिक आधार को आगे बढ़ा रही है. मिसाल के तौर पर, 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले सवर्णों को आरक्षण देने के लिए संविधान के अनुच्छेद 15(4) और 16(4) में संशोधन किया गया.

बीजेपी की योजना आरक्षण को मनरेगा बना देना है, जबकि सवाल हिस्सेदारी का है.

मंडल कमीशन को दफनाने की कोशिश

इस कदम के जरिए बीजेपी और मोदी सरकार मंडल कमीशन के पिछले तीस साल के कामकाज को बेअसर करना चाहती है. राजकाज में सामाजिक विविधता लाने के प्राथमिक उद्देश्य से मंडल कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी को 27% रिजर्वेशन देने की सिफारिश की थी. मंडल आयोग ने ओबीसी को समर्थ और सक्षम बनाने के लिए 40 सिफारिशें की थीं, जिनमें से सिर्फ 2 पर ही अमल हुआ है और वह भी आधा-अधूरा.

ये महत्वपूर्ण है कि ओबीसी आरक्षण अभी आधा-अधूरा ही लागू हुआ है. दिप्रिंट में छपी खबर के मुताबिक केंद्र सरकार की नौकरशाही के शीर्ष पर मौजूद सेक्रेटरी स्तर के 89 पदों में से एक भी पद पर ओबीसी नहीं है. इसी तरह इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक विस्तृत रिपोर्ट में बताया गया कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर पदों पर ओबीसी अनुपस्थित हैं. खुद मोदी सरकार संसद के दोनों सदनों पर सांसदों के सवालों के जवाब में कई बार बता चुकी है कि ओबीसी कोटा अभी तक भर नहीं पाया है.


यह भी पढ़ें: अमेरिका और रूस को भारत कैसे अपने पाले में ले आया जिससे चीन अलग-थलग होने पर मजबूर हुआ


इस मामले में स्थिति की गंभीरता का अंदाजा तब लगेगा, जब केंद्र सरकार जाति जनगणना की रिपोर्ट जारी करेगी. हालांकि सरकार इस रिपोर्ट को कई साल से दबाए बैठी है.

ऐसी स्थिति में जब ओबीसी कोटा भर नहीं पाया है, वैसी में अगर सरकार नौकरीपेशा लोगों के बच्चों को ओबीसी से बाहर करके कैंडिडेट की संख्या को और कम कर देती है, तो इसका फायदा सिर्फ और सिर्फ सवर्णों को होगा क्योंकि ओबीसी की खाली रह गई सीटों पर उनका ही कब्जा हो जाता है.

सबसे दिलचस्प ये है कि बीजेपी ये करके साथ में ये उम्मीद भी कर रही है कि ओबीसी का एक हिस्सा उसका समर्थन करेगा.

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

share & View comments

10 टिप्पणी

  1. इस लेखक को सच में आरक्षण की बड़ी जरूरत है क्यूँकि ये मानसिक रूप से काफ़ी पिछड़ा मालूम पड़ता है !

  2. Ridiculous thoughts. Backward hone ka competition chlta rhega kya jindgi bhr. You gave example of teacher family. If Parents got benefit whole life for reservation and creme layer income criteria fullfilled then what is the reason behind to give reservation whole life to such family. Do we have small population? or we have unending resources. Don’t other people have constitution rights? Ya bs jindgi bhr desh prr BHOJHHH hi bnne rhna hai.

  3. बिहार 2020 का चुनाव और पिछड़ा वर्ग
    बिहार का चुनाव देश के पिछड़े वर्ग के लिए एक शानदार मौका लेकर आया है ।
    नोटबंदी और कोरोना ने बिहार के (पिछड़े वर्ग के) मतदाता के हाथ में आज एक नई ताकत थमा दी है ।
    ज्ञातव्य है कि बेरोजगारी की सबसे बुरी मार पिछड़ा वर्ग को झेलना पड़ी है । इसने बिहार में भाजपा की जीत को संदेह के घेरे में खड़ा कर दिया है । ओबीसी वोट बिहार में पहले ही बिखरा हुआ था , लेकिन अब हालात भाजपा के ज्यादा खिलाफ़ बन गए हैं ।
    मुसलमान वोट तो परम्परागत रूप से भाजपा के खिलाफ़ ही रहा है ।
    लेकिन , इस बार बनिया वोट भी भाजपा से छिटका हुआ है ।
    असल में नोटबंदी और कोरोना की वजह से फैली व्यापक बेरोजगारी ने देश की क्रय शक्ति को बहुत क्षति पहुँचाई है । इस वजह से आज व्यापारी वर्ग यह मान रहा है कि मोदी जी की नीतियों ने उसका धंधा भी चौपट किया है । इस वजह से बिहार के चुनाव में बिहार के बनियों का वोट भी बिखरने वाला है ।
    फिर , इनके अलावा वो लाखों लोग जो रेल्वे स्टेशनों पर , बस अड्डों पर , राजमार्गों पर स्थित ढाबों पर काम से लगे हुए थे , नाई , अख़बार बेचने वाले , सड़कों पर सब्जी का एवं अन्य सामान का ठेला लगाने वाले तमाम लोग कोरोना महामारी की वजह से बेरोजगार हो चुके हैं और भूखे हैं ।
    हालांकि यह महामारी मोदी जी की देन नहीं है , लेकिन तब भी चुनाव में भूखे लोगों का गुस्सा भी मोदी जी को झेलना तो पड़ेगा ।
    तो मुद्दा यह है कि इस बार हिन्दू वोट का पुनर् ध्रुवीकरण कैसे हो ?
    इस बारे में समाचार आ रहे हैं कि मोदी जी की सरकार पिछड़ा वर्ग की आरक्षण योजना में एक संशोधन कर क्रीमी लेयर को बाहर कर देना चाहती है ।
    स्पष्ट है कि इस संशोधन के फलस्वरूप सरकारी नौकरियों में क्रीमी लेयर का पीढ़ी दर पीढ़ी आरक्षण का लाभ लेने की पात्रता समाप्त हो जाएगी और व्यवस्था यह बनेगी कि कम से कम एक पीढ़ी को सरकारी नौकरी के लाभ से वंचित होना पड़ेगा और उसकी जगह पिछड़ा वर्ग के अन्य लोगों को सरकारी नौकरी करने का मौका मिलेगा ।
    मेरे विचार से यह एक न्यायसंगत कदम है । भले ही मोदी जी को यह कदम किसी राजनैतिक मजबूरी की वजह से उठाना पड़ रहा हो ।
    मेरे विचार से यह एक जन-हितैषी कदम है । इससे देश के पूरे पिछड़े वर्ग के उन लोगों को भी सरकारी नौकरी हासिल करने का मौका मिलेगा , जिन्हें पहले कभी भी आरक्षण का लाभ न मिला हो ।
    बल्कि , मैं तो यह कहूँगा कि आरक्षण हेतु क्रीमी लेयर भी उसे घोषित किया जाना चाहिए जिसकी वार्षिक आमदनी आय कर के दायरे में आ जाती हो । क्योंकि , सरकार जिन लोगों से आय कर वसूल करती है , वो उन्हें गरीब तो नहीं ही मानती है । फिर , आरक्षण के उद्देश्य से क्रीमी लेयर की आमदनी 8 लाख रुपये या 12 लाख रुपये वार्षिक निर्धारित करने का मतलब क्या है ?
    यह खोटी नीति है ।

  4. Samvidhan me creamilayer ka koi pravdhan nahin tha, pichhade varg ki jansankhya ke anusar 52% arakhan diya jana chahiye. BJP sirf voton ki rajniti hi nahin kar rahi hai, balki u manuvadiyon ko purn labh pahunchane ke liye OBC kakota kam kar rahi hai…

  5. The print is anti India news paper, it alway try to create turbulence in our nation.
    What written in this article was great example how it misled mass.

  6. 12 लाख सालाना , मतलब 1 लाख महीने का कमाने वाले गरीब को तो आरक्षण मिलना ही चाहिए, भले इसके लिए 1 हज़ार रुपये मासिक कमाने वाले लेकिन 1500 फिट के कवेलू के पुश्तेनी घर ( जो कस्बाई शहर में बमुश्किल 5-6 लाख से अधिक का न होगा ) में रहने वाले सवर्ण धन्नासेठ को न मिले ।

    सच मे मानसिक विकलांग व्यक्तियों का कुछ कर नही सकते । लेख का लेखक निहायती मूर्ख ओर मानसिक दिवालिया व्यक्ति है, जिसे तुरन्त इलाज की जरूरत है ।

  7. Bhai bjp hv decide to finish reservation. They r just playing a game.they started to sell public property. If there would be job in public sector than u will ask for reservations.
    Govt is making fool to both middle n upper.
    They work 4 adani n Ambani.

  8. लेखक तुरंत यह बताये की OBC जनसँख्या अगर ५२% है तो उनके उम्मीवार कैसे कम हो जाएंगे? और अगर उनके उम्मीदवार कम हो भी गए तो वो पद सवर्णों को कैसे मिल जायेगे – क्योंकि ऐसा कोई नियम नहीं है. दी प्रिंट को को इस जान बुझ कर लिखे इस झूठ की नैतिक जिम्मेदारी लेनी चाहिए.

Comments are closed.