भारत के एक यूथ आइकन, जो बिहार का रहने वाला था, ने खुदकुशी कर ली. और अगर आप राष्ट्रीय खबरों के स्तर पर सुशांत सिंह राजपूत की कवरेज देखें तो लगता है कि मौत की खबर और भारत में चुनाव हाथों में हाथ डाले साथ चल रहे हैं. इस जुनून की एक बड़ी वजह बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के शासन की विफलता है. इसे केवल नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व वाली भाजपा ही अच्छी तरह से समझती है. उनके पास बिहार में एनडीए वाला गठबंधन जारी रखने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है लेकिन अकेले नीतीश कुमार उन्हें अपने बलबूते जीत नहीं दिला सकते, तो सुशांत सिंह राजपूत को बिहार में एनडीए का एक अदृश्य साथी बना लिया गया है.
भाजपा इस बात को लेकर बहुत ज्यादा आश्वस्त नहीं है कि नीतीश कुमार-सुशील मोदी की जोड़ी पिछली चुनावी सफलता दोहरा पाएगी, यह महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के बिहार में कद्दावर चुनाव प्रबंधक के तौर पर भाजपा की पसंद बनने से भी स्पष्ट नजर आता है. भाजपा नेता, जो हाल ही में पटना में थे, सुशांत की मौत पर बिहार बनाम महाराष्ट्र की लड़ाई में दोनों पक्षों की तरफ से खिलाड़ी की भूमिका निभा सकते हैं. वह अभिनेता की मौत को आत्महत्या के तौर पर देखने को लेकर घिरी महाराष्ट्र की महा विकास विकास अघाड़ी सरकार का हिस्सा होने के कारण कांग्रेस पर खुलकर हमला कर पाएंगे, जो बिहार में भाजपा को वोट दिलाने में मददगार होगा और शिवसेना के पूर्वांचल विरोधी रुख के कारण दीर्घकालिक राजनीति में भी असरदार रहेगा.
यद्यपि दुनिया में कोरोनोवायरस मामलों में एक दिन में सबसे ज्यादा वृद्धि भारत में हो रही है, लेकिन मीडिया, विशेष रूप से टीवी पर एक ऐसी लालची गर्लफ्रेंड छाई हुई है जिसने अपने बॉयफ्रेंड को मौत की ओर धकेल दिया. एकबारगी तो आपको ऐसा ही लगेगा कि आप ‘लव, सेक्स और धोखा’ शीर्षक वाला कोई सी-ग्रेड का न्यूज शो देख रहे हैं. ऐसे बेसिर-पैर के कवरेज से आजिज आकर आप चैनल बदलते हैं लेकिन कहीं कुछ अलग नहीं दिखता. सुशांत सिंह राजपूत की मौत और इसकी जांच को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की तरफ से इससे ज्यादा स्पष्ट रूप से राजनीतिक रंग नहीं दिया जा सकता था. बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार की नाकामियों से ध्यान भटकाने की पार्टी की कोशिश, खासकर आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देनजर, एकदम साफ नजर आ रही है.
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मौत पर सियासत
भाजपा के सांस्कृतिक प्रकोष्ठ ने बिहार भर में सुशांत सिंह राजपूत के पोस्टर लगाए हैं जिस पर कैप्शन है, ‘न भूले हैं, न भूलने देंगे.’ यह कुछ उसी तरह का स्लोगन है जैसा संकल्प सीआरपीएफ ने पुलवामा हमले के बाद किए अपने ट्वीट में लिया था : ‘हम न भूलेंगे, न ही माफ करेंगे.’
नीतीश कुमार ने तो प्रचार अभियान के लिए अपने कार्यकाल की तुलना राजद के 15 साल के ‘जंगल राज’ से करने का जाना-समझा राजनीतिक दांव अपनाने की तैयारी कर रखी थी लेकिन तभी कोरोनावायरस आ गया, जिसने उनके सुशासन की पोल खोलकर रख दी. पिछले छह महीनों में बिहार के लोगों ने लॉकडाउन पर अमल में खामियां, बढ़ती बेरोजगारी, प्रवासी श्रमिक संकट और निश्चित तौर पर बाढ़ का संकट भी देखा है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा उद्घाटन किए जाने के 29 दिन बाद ही सत्तार घाट पुल ढहना बिहार में शासन के पतन का प्रतीक है. इस सबने बिहार के लोगों, खासकर युवाओं में नाराजगी काफी बढ़ा दी है.
नीतीश कुमार को इस तपिश का एहसास हो रहा है. स्वतंत्रता दिवस पर करीब एक घंटे चले भाषण में बिहार के मुख्यमंत्री ने अपनी सारी ऊर्जा अपने विरोधियों पर निशाना साधने में लगाई जो कि उनके मुताबिक सोशल मीडिया पर उनके और उनकी सरकार के बारे में झूठ फैला रहे हैं. उन्होंने अपने कार्यकाल की तुलना ‘कभी दोस्त-कभी दुश्मन’ रहे लालू यादव से करते हुए युवाओं से कहा कि वह 15 वर्षों में उनके द्वारा लाए गए परिवर्तनों को देखें.
भाजपा को भी नीतीश कुमार की अनुपयोगिता का अंदाजा हो रहा है, यही वजह है कि पार्टी ने बिहार में चुनाव प्रचार पर एक भावनात्मक मुद्दे की धार चढ़ाने का रचनात्मक अभियान छेड़ दिया जिसमें उसे महारत हासिल है. और बिहार के एक युवा अभिनेता की मौत से उन्हें भावनात्मक मुद्दा मिल भी गया. कई लोगों ने मान लिया था कि भाजपा बिहार में 2020 के विधानसभा चुनाव अपने दम पर लड़ेगी, लेकिन ऐसा लगता है कि मोदी-शाह की जोड़ी अभी अपने दम पर बिहार की राजनीति की दिशा बदलने का माद्दा नहीं रखती है.
इसलिए, भाजपा के पास अभी डैमेज कंट्रोल के लिए काफी कुछ है. लॉकडाउन के दौरान प्रवासी श्रमिकों का पलायन और हाल में आई बाढ़ को निश्चित तौर पर नीतीश कुमार सरकार के मौजूदा कार्यकाल की सबसे बड़ी नाकामियों में गिना जाएगा.
2020 के असली मुद्दे
बिहारी प्रवासियों की एक बड़ी आबादी जब अपनी दैनिक मजदूरी छिनने के बाद खाने और रहने की किसी व्यवस्था के बिना महानगरीय शहरों में फंस गई थी, नीतीश और उनकी सहयोगी भाजपा ने इस पर कुछ खास नहीं किया. वे मई में तब तक मूकदर्शक बने रहे जब पहले ही सड़कों पर आ चुके हजारों प्रवासियों ने अपने घरों तक पहुंचने के लिए सैकड़ों मील की दूरी पैदल ही तय करना शुरू कर दिया.
अनुमानों के मुताबिक, 18 से 28 लाख के बीच प्रवासी श्रमिक लॉकडाउन के दौरान बिहार में अपने घर लौटे होंगे. भाजपा बिहार के कामगार तबके की नाराजगी को पहले ही भांप चुकी है जो बढ़ती बेरोजगारी की मार झेल रहा है. यह स्पष्ट है कि मोदी सरकार ने राज्य में लौटे प्रवासी श्रमिकों के पुनर्वास की योजनाएं तैयार करने के लिए 125 करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा क्यों की.
बाढ़ ने राज्य के 12 जिलों में 66 लाख लोगों को प्रभावित किया है. स्पष्ट तौर पर तैयारियों में कमी के बावजूद नीतीश ने शायद यह सोचकर इसे दैवीय आपदा करार दे दिया कि यह उन्हें ‘हवाई सर्वेक्षण’ को छोड़कर बाकी सारी जिम्मेदारी से मुक्त कर देगा.
बाल यौन शोषण की सबसे बड़ी घटनाओं में से एक 2018 का मुजफ्फरपुर बालिका गृह कांड भी भाजपा-जदयू सरकार के समय सामने आया, जिसमें नाबालिग लड़कियों के यौन शोषण, बलात्कार और अत्याचारों का पता चला. ‘पाकिस्तान जाओ’ बोलने वाले सांसद गिरिराज सिंह के निर्वाचन क्षेत्र बेगूसराय में पारिस्थितिकी पर प्रहार नीतीश सरकार की नाकामियों का एक और उदाहरण है. खेती की जमीन के लिए बेगूसराय की कंवर झील– 6,311 हेक्टेयर में मीठे पानी की झील-को सुखाया जा रहा है. इस कदम का सबसे ज्यादा असर एक स्थानीय नाविक समुदाय साहनी पर पड़ेगा. 100,000 से अधिक प्रवासी पक्षियों को आकर्षित करने वाली झील की पारिस्थितिकी इसलिए भी प्रभावित हो रही है क्योंकि मछुआरे अपनी आजीविका के लिए पक्षियों का शिकार कर रहे हैं. नीतीश कुमार सरकार ने इस पर भी मौन साध रखा है क्योंकि वह बेगूसराय की प्रभावशाली जाति भूमिहारों को परेशान नहीं करना चाहती जो झील को कृषि भूमि में बदलना चाहती है.
सुशांत सिंह राजपूत मामले पर जब टीवी चैनलों और सोशल मीडिया पर लगातार एक ही तरह की बहस छाई हुई है, हमें इस पर बिहार चुनाव के मद्देनजर गहराई से देखना चाहिए. क्या एक अभिनेता की रहस्यमय मौत जमीनी स्तर पर मुश्किलों से जूझ रहे लोगों को प्रभावित करेगी या फिर बिहार के मतदाताओं के लिए गरीबी, बेरोजगारी और विकास जैसे मुद्दे ही अहम होंगे?
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(लेखिका एक राजनीतिक पर्यवेक्षक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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