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Saturday, 21 December, 2024
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बिहार विधानसभा चुनाव में ‘चिराग’ के बहाने नीतीश कुमार के ‘घर’ को जलाने की कोशिश में है भाजपा

भाजपा एलजेपी और जेडीयू दोनों से घोषित या अघोषित गठबंधन करना चाहती है, लेकिन जेडीयू को गठबंधन का लाभ नहीं लेने देना चाहती.

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बिहार विधानसभा चुनावों में गठबंधनों का दौर काफी दिलचस्प स्थिति में पहुंच गया है. साथ ही यह भी समझ में आने लगा है कि भारतीय जनता पार्टी अब इस राज्य में अपना मुख्यमंत्री बनाना चाहती है. एनडीए में रहते हुए लोक जनशक्ति पार्टी का अलग से चुनाव लड़ना भाजपा की चाल लगती है.

ताज़ा सूरत यह है कि एनडीए में भाजपा, जेडीयू और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा आपस में सीटों का तालमेल करके लड़ रहे हैं, वहीं एनडीए का एक और घटक दल लोकजनशक्ति पार्टी अलग से चुनाव मैदान में उतरने को तैयार है क्योंकि उसे नीतीश कुमार का नेतृत्व स्वीकार्य नहीं है.


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एलजेपी के बहाने नीतीश पर चोट

इस मामले में पेंच और भी हैं. एक पेंच यह भी है कि लोक जनशक्ति पार्टी अपने ज्यादातर उम्मीदवार उन्हीं सीटों पर उतारेगी जिन पर जेडीयू के उम्मीदवार होंगे और जिन सीटों पर भाजपा के उम्मीदवार होंगे, उन पर एलजेपी अपने प्रत्याशी नहीं उतारेगी और भाजपा का समर्थन करेगी. अभी तक एलजेपी ने 143 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े करने के संकेत दिए हैं.

ऐसे में स्थिति यह बनती है कि भाजपा एलजेपी और जेडीयू दोनों से घोषित या अघोषित गठबंधन करना चाहती है, लेकिन जेडीयू को गठबंधन का लाभ नहीं लेने देना चाहती.

अगर एलजेपी भाजपा की सहमति के बिना ही एनडीए से अलग होकर अपने प्रत्याशी खड़ी कर रही होती तो सबसे पहले तो केंद्र में एनडीए सरकार में कैबिनेट मंत्री का पद लिए बैठे रामविलास पासवान से मंत्रिपद छीनती. ऐसा न करना ही इस बात का सबूत है कि भाजपा की एलजेपी के साथ डीलिंग है.

भाजपा का असली खेल

अब सवाल यह है कि इस तरह का खेल करके भाजपा क्या और कैसे हासिल करना चाहती है? इसका जवाब भाजपा के स्थानीय नेताओं के कई महीनों से दिए जा रहे उन बयानों में छिपा है कि बिहार में मुख्यमंत्री अब भाजपा का होना चाहिए. खासतौर पर भूमिहार नेता गिरिराज सिंह कभी खुलकर तो कभी दबे सुर में मुख्यमंत्री बनने की इच्छा जताते रहे हैं. हालांकि भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व इन खबरों को नकारता रहा है, लेकिन हर कोई ये जानता है कि छोटे नेता जो भी कुछ भी कहते रहे हैं, उसमें बड़े नेताओं की सहमति रही है.

यह बात भाजपा को हमेशा अखरती रही है कि उत्तर भारत की हिंदी बेल्ट में केवल बिहार ही ऐसा राज्य बचा है जहां भाजपा को अपना मुख्यमंत्री बनाने का मौका कभी नहीं मिला.


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भाजपा की चाहत कैसे होगी पूरी

भाजपा की पूरी कोशिश है कि जेडीयू की सीटें इतनी तो आएं कि आरजेडी को बहुमत न मिल पाए, लेकिन वह यह भी चाहती है कि जेडीयू की सीटें भाजपा से कम रहें ताकि वह इस बार नीतीश से कह सके कि अब मुख्यमंत्री उसका होना चाहिए.

खास बात यह है कि भाजपा तो अपने विधायक ज्यादा होते हुए भी नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री के तौर पर स्वीकार करती रही है, इसलिए अब उसके मन में यह स्वाभाविक इच्छा है कि नीतीश भी उदारता दिखाएं और भाजपा को भी अपना सीएम बनाने का मौका दें.

अगर नीतीश इसके लिए सीधे तैयार नहीं होते, तो भाजपा अपने प्रांतीय नेताओं की मांग का हवाला दे सकती है, और इससे भी बात न बनी तो एलजेपी तो अपना समर्थन देने के लिए यह शर्त रख ही देगी कि इस बार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को नहीं होना चाहिए. बदले में भाजपा, एलजेपी के युवराज चिराग पासवान को उपमुख्यमंत्री का पद ऑफर कर सकती है या फिर केंद्र में मंत्रिपद दे सकती है.

2005 के अक्टूबर में हुए विधानसभा चुनावों में जेडीयू-भाजपा गठबंधन को 143 सीटें मिली थीं जिनमें जेडीयू की 88 और भाजपा की 55 थीं. इसी तरह से 2010 के विधानसभा चुनावों में एनडीए को 243 के सदन में 206 सीटें मिली थीं जिनमें जेडीयू के 141 और भाजपा के 91 विधायक थे.

भाजपा का इस बार का गणित

भाजपा का गणित है कि इस बार 2010 की तरह का माहौल तो है नहीं कि एनडीए एकदम से स्वीप कर जाए, लेकिन 2005 की सूरत जरूर बन सकती है. ऐसे में इस बात को भी ध्यान में रखा जाए कि अब कुशवाहा समाज के प्रभावी नेता उपेंद्र कुशवाहा राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी बनाकर जेडीयू से अलग होकर लड़ रहे हैं, तो जेडीयू की सीटें और भी कम हो सकती है. इसमें अगर पासवान की एलजेपी भी सेंध लगा दे तो निश्चित ही भाजपा उम्मीद कर सकती है कि जेडीयू की सीटें एनडीए में सबसे ज्यादा नहीं होंगी.

इसके अलावा भाजपा को यह भी भरोसा है कि जो भी छोटे-मोटे दल कुछ सीटें जीतकर आएंगे, उन्हें भी वह किसी न किसी तरह से अपने पाले में कर लेगी और जेडीयू पर छोटे भाई की भूमिका स्वीकार करने का दबाव डालेगी.
नीतीश के पास सीमित विकल्प बचते हैं.

भाजपा के जाल में घिरे और आरजेडी का भरोसा पूरी तरह से खो चुके जेडीयू के लिए इस मुश्किल से बचना आसान नहीं है. उसके पास एकमात्र विकल्प हर हाल में अपनी सीटें भाजपा से काफी ज्यादा लाने का ही है. वैसे भाजपा को रोकने के लिए वे वापस आरजेडी के पास में जाना चाहेंगे, लेकिन तेजस्वी उन्हें साथ लेंगे, इसमें शक है.

अगर राजनीतिक मजबूरी के तहत आरजेडी मान भी जाता है तो इस बार वो सीएम का पद ही नहीं, स्पीकर का पद भी अपने ही पास रखेगा. भाजपा जानती है कि यह स्थिति नीतीश को बहुत नागवार गुजरेगी और वे भाजपा का ही सीएम स्वीकार करने को मजबूर होंगे. फिलहाल भाजपा इसी लाइन पर आगे बढ़ती दिखती है.


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(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं. व्यक्त विचार निजी है)

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1 टिप्पणी

  1. Nitish Kumar ko aisi sthiti mei Tejashwi ki sarkaar banaa dena chahiye aur khud Sanyaas ki ghoshna.

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