कुछ दिन पहले बीजेपी की वरिष्ठ नेता मेनका गांधी ने उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर संसदीय क्षेत्र में मुसलमानों की एक भीड़ को संबोधित करते हुए कहा, ‘अगर मेरी जीत मुसलमानों के बिना होती है, तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा, क्योंकि तब दिल खट्टा हो जाता है. और जब कोई मुसलमान काम कराने के लिए आता है, तो मैं सोचती हूं कि रहने दो क्या फ़र्क पड़ता है. आखिर नौकरी एक सौदेबाज़ी भी तो होती है.’
दरअसल, मेनका गांधी नौकरी की नहीं, बल्कि वोट की सौदेबाज़ी की बात कर रही थीं, जो लोकतांत्रिक मूल्यों और चुनाव आचार संहिता का खुला उल्लंघन है. अच्छी बात यह है कि चुनाव आयोग ने इस मामले की गंभीरता को समझते हुए, गांधी को नोटिस भेजा है.
क्या मेनका गांधी जैसे वरिष्ठ नेता को यह यह बतलाने की ज़रूरत है कि किसी भी विजयी उम्मीदवार को कभी भी सारे मतदाताओं का वोट नहीं मिलता है. भारी लहर के बावजूद नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा को पिछले लोकसभा में सिर्फ 31 प्रतिशत वोट मिले थे. इसका मतलब यह है कि 69 प्रतिशत लोगों ने बीजेपी को नकार दिया था. अगर मेनका गांधी की दलील को मान लिए जाय तो फिर सरकार को सिर्फ 31 प्रतिशत लोगों को ही नौकरी देनी चाहिए और बाक़ी 69 प्रतिशत को बेरोज़गार रखना चाहिए!
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मगर लोकतांत्रिक चुनाव प्रणाली में ‘दुश्मनी’ का स्थान सैद्धांतिक रूप से नहीं होता है. जैसे ही कोई उम्मीदवार चुनाव जीत जाता है, वह सभी का प्रतिनिधि बन जाता है. किसने उसे वोट दिया और किसने नहीं, यह सब चुनाव के बाद भुला दिया जाता है. क्या यह सब मेनका गांधी को मालूम नहीं है?
इसी बीच उत्तर प्रदेश के बाराबंकी के भाजपा नेता रंजीत बहादुर श्रीवास्तव ने भी मुस्लिम विरोधी बयान दे डाला है. श्रीवास्तव ने मतदाताओं से कहा कि मुस्लिमों को बर्बाद करना है तो मोदी को वोट दें!
अपने चुनाव प्रचार के दौरान, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी बेधड़क मुस्लिम विरोधी बयान दे रहे हैं. एक अवसर पर उन्होंने कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बसपा को हज़रत अली का अनुयायी बताया और इसके विपरीत, भाजपा को हिन्दुओं के भगवान बजरंगबली का पैरोकार.
इस तरह की बात कहकर योगी हज़रत अली और कांग्रेस को हिंदू विरोधी साबित करने का प्रयास कर रहे हैं.
क्या यह कहने की ज़रूरत है कि इस सब के पीछे भाजपा का असल मकसद मुस्लिम मुखालिफ वोटों का ध्रुवीकरण करना है. उसकी पूरी कोशिश है कि वह विपक्ष को मुसलमानों की ‘जमात’ साबित किया जाए और खुद को हिन्दुओं का दल. शायद इस कोशिश के नतीजे में भाजपा को कुछ वोट मिल जाए मगर इसका बड़ा नुकसान है. यह भारत की साझी विरासत के ताने-बाने को तार तार भी कर सकता है.
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योगी यहीं तक नहीं रुके. उन्होंने कांग्रेस सपा और बसपा को ‘ग्रीन वायरस’ से ग्रसित बताया. हालांकि बाद में उन्हें ये ट्वीट हटाना पड़ा. बेगूसराय से भाजपा के उम्मीदवार और सांप्रदायिक बयान देने के लिए बदनाम गिरिराज सिंह ने योगी की बात को आगे बढ़ते हुए कहा कि हरे झंडे पर बैन लगना चाहिए क्योंकि इसको देखकर उन्हें ऐसा लगता है कि वह पाकिस्तान में हैं!
क्या हरा को इस्लाम/मुसलमान और पाकिस्तान से ही जोड़ कर देखना सही है? हरगिज़ नहीं. दरअसल हरे रंग का परचम सिर्फ इंडियन मुस्लिम लीग या पाकिस्तान का ही नहीं है. इस तथ्य को आसानी दबा दिया जाता है कि सामाजिक न्याय के कई दलों का झंडा भी हरा ही है. लालू प्रसाद यादव का राष्ट्रीय जनता का झंडा भी तो हरा है. हरा रंग तो बीजेपी के झंडे में भी है.
हरे रंग का अपना अलग महत्व है. यह प्रकृति और जीवन का प्रतीक भी है. आदिवासी लोगों के पर्व सरहुल में भी लोग हरे रंग का वस्त्र जैसे अंगोछा, साफा, साड़ी, कुर्ता पहन कर सामूहिक नृत्य करते हैं. सावन के महीने में बिहार की हिंदू महिलाएं हरी चूड़ियां और हरी साड़ी पहनकर बरसात का स्वागत करती हैं. अगर योगी और गिरिराज की दलील को मान लिया जाए तो ये महिलाएं, कांग्रेस बसपा की तरह ग्रीन वायरस के शिकार हैं.
विपक्षी उम्मीदवारों से कड़ी टक्कर महसूस कर, गिरिराज बार बार चुनावी प्रचार को कम्युनल करने की कोशिश कर रहे हैं. चुनाव प्रचार के दौरान उनके इशारे पर उन्हें हिन्दुओं का शेर कह कर पुकारा जा रहा है. यही नहीं, उन्होंने तो मुसलमानों को अब एक नई धमकी दी है कि अगर उन्होंने वन्देमातरम नहीं कहा तो उनको क़ब्र के लिए तीन हाथ ज़मीन नहीं मिलेगी. अगर वन्देमातरम कहने से दो गज जमीन क़ब्रिस्तान में मिल जाती है तो स्वास्थ्य, शिक्षा, रोज़गार के लिए मुसलमानों को क्या कहना होगा?
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यही नहीं, मालेगांव बम धमाका केस में जमानत पर रिहा प्रज्ञा ठाकुर को भाजपा ने भोपाल से टिकट दे दिया है. इसके बाद वे ‘फख्र’ करते हुए कहती हैं कि बाबरी मस्जिद विध्वंस में वह भी शामिल थीं, क्योंकि वह देश के लिए ‘कलंक’ था.
विरोधभास देखिए कि विपक्ष को विकास के नाम पर लताड़ने वाली मोदी सरकार चुनाव के दौरान विकास की बात करना भूलती जा रही है. चुनावी नैय्या को पार लगाने के लिए विकास की जगह मुस्लिम विरोधी बयान और धार्मिक और जज्बाती इश्यूज का सहारा लिया जा रहा है. मकसद है कि किसी तरह चुनावी प्रक्रिया को सांप्रदायिक बनाया जाए. क्या वोट की खातिर लोकतांत्रिक स्तंभों पर हमला करना मुनासिब है?
(जेएनयू से जुड़े अभय कुमार शोधार्थी हैं. उनके रिसर्च का विषय ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड है)