यह निश्चित है कि तीन प्रमुख राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों के परिणामों को छह माह में होने वाले लोकसभा चुनावों के पूर्वसंकेत के रूप में देखा जाएगा. लेकिन राजनीतिक टीकाकारों को थोड़ी सावधानी बरतनी होगी क्योंकि राज्यों के चुनावों की तुलना राष्ट्रीय चुनाव से नहीं की जानी चाहिए.
ख़ासकर संसदीय चुनावों में मोदी-प्रभाव दिखेगा, जो कि 2014 के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के लिए छह महीने पहले 2013 में हुए विधानसभा चुनावों के मुकाबले कहीं बड़ा वोट शेयर जुटाने में सहायक था. इस बार भी विधानसभा चुनावों पर सूखे की क्षेत्रीय समस्या जैसे राज्यस्तरीय मामलों का प्रभाव दिख रहा है, जबकि मई में लोकसभा चुनावों के नेता-केंद्रित होने की उम्मीद की जा सकती है, यानि 2014 का दोहराव. सीधे कहें तो भाजपा की स्थिति राज्यों के चुनावों के मुकाबले संसदीय चुनावों में बेहतर रहेगी.
फिलहाल राजनीतिक टीकाकारों का आमतौर पर यही मत है कि कांग्रेस राजस्थान में आगे है, जबकि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा से उसका कड़ा मुकाबला है. यदि ऐसा हुआ तो इसका मतलब होगा इन राज्यों में 2013 में हुए पिछले चुनावों के मुकाबले मतदाताओं के व्यवहार में एक बड़ा बदलाव. पर देखने वाली बात यह होगी कि इसका मई के संसदीय चुनावों पर कितना असर पड़ता है.
आंकड़ों से पूरा मामला समझ में आ जाता है. मध्य प्रदेश में 2013 में भाजपा को 45 प्रतिशत और कांग्रेस को 36 प्रतिशत मत मिले थे. वोटिंग पैटर्न में 4-5 प्रतिशत के स्विंग से 2013 की सीटों की स्थिति, भाजपा को 165 और कांग्रेस को 58, में बड़ा बदलाव आ सकता है. सवाल यह है कि क्या इससे लोकसभा चुनावों की तस्वीर बदलेगी?
शायद नहीं, इन दो कारणों से: पहले तो लोकसभा के 2014 के चुनावों में भाजपा को डाले गए मतों का कहीं बड़ा हिस्सा (55 प्रतिशत) हासिल हुआ था, वहीं कांग्रेस के मतों में थोड़ी कमी आई थी. कांग्रेस के पक्ष में 5-7 प्रतिशत स्विंग से मई में ज़्यादा कुछ नहीं बदलेगा: भाजपा तब भी बहुत आगे रहेगी. उसे 2014 की तरह 29 में से 26 सीटें नहीं मिलेंगी, फिर भी वह अधिकतर सीटों पर जीत सकती है.
राजस्थान की कहानी थोड़ी अलग हो सकती है, जहां 2013 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को 45 प्रतिशत और कांग्रेस को 33 प्रतिशत मत मिले थे. इसके कुछ ही महीनों बाद लोकसभा चुनावों में भाजपा का वोट शेयर बढ़कर 51 प्रतिशत हो गया, जबकि कांग्रेस का हिस्सा घटकर 30 प्रतिशत रह गया. यदि राजनीतिक पंडितों की बात सही निकली कि मौजूदा विधानसभा चुनावों में कांग्रेस बहुत आगे है, यानि शायद 8-10 प्रतिशत मतदाता भाजपा से छिटक सकते हैं, तो इतने मात्र से लोकसभा चुनावों पर प्रभाव पड़ सकता है, हालांकि अभी की तुलना में मई में ज़्यादा करीबी मुक़ाबला होगा. निश्चय ही इस बार 2014 की तरह 25-0 के अंतर वाला स्कोर नहीं होगा.
और, तीसरे राज्य छत्तीसगढ़ की क्या स्थिति है? पांच साल पहले 2013 में यहां भाजपा और कांग्रेस लगभग बराबरी पर थे. भाजपा का वोट शेयर 41 प्रतिशत था जबकि कांग्रेस का 40 प्रतिशत. इस नाममात्र के अंतर ने ही भाजपा को बहुमत दिला दिया.
परंतु जब 2014 के लोकसभा चुनावों की बारी आई, दोनों के बीच वोट शेयर का फासला बढ़कर 49 बनाम 38 का हो गया, और भाजपा 11 में से 10 सीटें जीत गई. यदि मौजूदा विधानसभा चुनावों में मुकाबला कांटे का लगता हो, पर मई में मोदी प्रभाव दिखा, तो इसका मतलब होगा संसदीय चुनावों में भाजपा का बढ़िया प्रदर्शन.
मुख्य बात यह है: यदि मौजूदा विधानसभा चुनावों में मतदान का पैटर्न मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस के पक्ष में स्विंग समेत रायशुमारियों और राजनीतिक टीकाकारों की भविष्यवाणी के अनुरूप रहा, तो इसका स्वत: ही यह मतलब यह नहीं है कि मई में संसदीय चुनावों के समय भी इन राज्यों और छत्तीसगढ़ में ऐसा ही होगा.
यहां तक कि मौजूदा विधानसभा चुनावों में कांग्रेस इन तीन में से दो राज्यों में जीत जाती है तो भी भाजपा इन तीन राज्यों में लोकसभा की ज़्यादातर सीटों पर जीत सकती है, हालांकि परिणाम 2014 की तरह, 65 में से 61 सीटें, एकतरफा नहीं होंगे.
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