हम भारत के मुस्लिम अल्पसंख्यकों के बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रतीत होने वाले विरोधाभासी बयानों की व्याख्या किस प्रकार से कर सकते हैं? मंगलवार को वाराणसी में न्यूज़ 18 इंडिया से बात करते हुए, मोदी ने उन बातों पर नाराजगी जताई कि उन्होंने चुनाव अभियान में सांप्रदायिक तत्व डाला है. पीएम मोदी ने कहा, ”जिस दिन मैं हिंदू-मुस्लिम करूंगा, उस दिन सार्वजनिक जीवन में रहने लायक नहीं रहूंगा.”
हां, लेकिन क्या यह बयान सीधे तौर पर उनके भाषणों के विपरीत नहीं है जो उन्होंने अपने कैंपेन के पहले भाग में दिए थे? जहां उन्होंने सुझाव दिया था कि कांग्रेस मंगलसूत्र और भैंसें छीन लेगी और उन्हें “घुसपैठियों” और “ऐसे लोगों” को दे देगी जिनके कई बच्चे हैं?
बिल्कुल नहीं, प्रधानमंत्री ने दृढ़तापूर्वक कहा. वास्तव में, वह इस बात से हैरान लग रहे थे कि ये इस तरह के वाक्य अप्रत्यक्ष तौर पर मुसलमानों के लिए कह जाने के लिए प्रसिद्ध हैं.प्रधानमंत्री ने अपने (मुस्लिम) साक्षात्कारकर्ता से कहा, “आपको किसने बताया कि जब भी कोई अधिक बच्चों वाले लोगों के बारे में बात करता है, तो यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि वे मुसलमान हैं? आप मुसलमानों के साथ अन्याय क्यों कर रहे हैं?”
हां. सही है.
राजनेता क्या कहते हैं और उसका मतलब क्या होता है, अक्सर ये दोनों बातें अलग-अलग होती हैं. और बाद में वे जो दावा करते हैं कि उनका वास्तव में मतलब था, वह और भी अधिक चकित करने वाला हो सकता है.
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मोदी-बीजेपी का आत्म-विश्वास वापस आ गया है
तो आइए, बहस के लिए प्रधानमंत्री की टिप्पणियों के सीधे-सीधे अर्थ को लें. अब वह खुद को पुरानी मुस्लिम विरोधी बयानबाजी से दूर करने और यह दावा करने के लिए इतने उत्सुक क्यों हैं कि यह सब गलतफहमी थी?
मैं जिन्हें जानता हूं उनमें से कोई भी (उन लोगों सहित जो उनके करीबी होने का दावा करते हैं) प्रधानमंत्री के दिमाग को पढ़ने में सक्षम नहीं है. राजनीतिक दृष्टि से नरेंद्र मोदी अकेले हैं. वह निर्णय लेते हैं कि वह क्या करना चाहते हैं और किसे उच्च पद पर नियुक्त करना चाहते हैं. उनकी नियुक्तियों के बारे में पत्रकारीय अटकलें लगभग हर तरह से गलत हैं: किसी ने भी कभी भी कैबिनेट फेरबदल की रूपरेखा की सही भविष्यवाणी नहीं की है. और कोई भी इस बात की भविष्यवाणी नहीं कर सकता कि वह क्या और कब कहने जा रहे हैं: कैंपेन की बयानबाजी में सांप्रदायिक बढ़त और उसी बयानबाजी की अचानक अस्वीकृति ने भाजपा-फ्रेंडली टिप्पणीकारों को भी आश्चर्यचकित कर दिया.
क्या भाजपा कार्यकर्ता भी आत्मसंतुष्ट थे? क्या उन्हें ऊर्जावान होने की आवश्यकता थी? क्या यह प्रधानमंत्री के लिए अपने रिकॉर्ड पर चलने के लिए पर्याप्त नहीं होगा? क्या उन्हें कैंपेन में डर और घृणा लाने की ज़रूरत थी? क्या उनके भाषण ऐसे हिंदू-मुस्लिम संदर्भों से भरे होने चाहिए जो भाजपा के वफादारों को उत्साहित करें?
जिस किसी ने भी दूसरे दौर के चुनाव प्रचार पर नज़र रखी होगी, उसे पता होगा कि भाजपा ने उन सवालों का कैसे जवाब दिया. यह असंभव नहीं है कि हम इस बात से आश्चर्यचकित न हों कि पुरानी निश्चितता और आत्मविश्वास में किसी तरह की कमी दिख रही थी. प्रधानमंत्री के कई बयान सावधानी से तैयार किए गए राजनेता जैसे व्यक्तित्व से हटकर थे जो कैंपेन शुरू होने से पहले उनके भाषणों में दिखते थे. और जब उन्होंने अंबानी और अडानी द्वारा टेंपो में नकदी भरकर कांग्रेस को भेजने का संदर्भ भी दिया, तो यह स्पष्ट हो गया कि पीएम मोदी अपनी बात से भटक गए थे.
लेकिन पिछले कुछ दिनों से हम प्रचार अभियान में अधिक सहज नरेंद्र मोदी को देख रहे हैं. उनकी शैली में अधिक समता है. सांप्रदायिक चीजें खत्म हो गई हैं (जैसा कि अडानी और अंबानी के संदर्भ में है), और वह हमें यह याद दिलाने के लिए उत्सुक हैं कि वह एक राजनेता हैं जो सभी भारतीयों के लिए निष्पक्ष हैं (“मोदी सबका है,” उन्होंने एक साक्षात्कारकर्ता से कहा).
इसके कई कारण हो सकते हैं. सम्मानित चुनाव विश्लेषक यशवन्त देशमुख ने मतदान के आंकड़ों को करीब से देखा और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि भाजपा शायद बहुत अधिक चिंतित हो गई है. हां, जिन सीटों पर लड़ाई एकतरफा लग रही थी, वहां लोगों ने वोटिंग के प्रति उतना उत्साह नहीं दिखाया. लेकिन हर जगह जहां कड़ा मुकाबला था, वहां मतदान प्रतिशत या तो मजबूत रहा या बढ़ गया. लेकिन, जब दक्षिणी राज्यों में भी मतदान में गिरावट देखी गई तो इससे यह संकेत मिला कि जिस भी कारण से वोटिंग प्रतिशत में गिरावट देखी गई उसका कारण बीजेपी से जुड़ा हुआ नहीं था.
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विचारधारा विहीन भाजपा
जैसे-जैसे मतदान प्रतिशत में सुधार हुआ है और जैसा कि भाजपा के अपने आंतरिक सर्वेक्षणों से पता चला है कि चुनाव योजना के अनुसार आगे बढ़ रहा है, पार्टी का आत्मविश्वास बढ़ा है. अमित शाह ने पश्चिम बंगाल में एक रैली में यहां तक कहा कि भाजपा ने पहले ही “पूर्ण बहुमत” हासिल कर लिया है और 380 में से 270 सीटें जीत ली हैं, जहां चार चरणों में मतदान हुआ था, जिससे पता चलता है कि घबराने का समय बीत चुका है.
यह प्रधानमंत्री का राजनेता जैसी मुद्रा में लौटने का संकेत है. भले ही भयभीत मुस्लिम मतदाताओं को आश्वस्त करने में बहुत देर हो चुकी है, लेकिन हिंदू-मुस्लिम राजनीति कभी न खेलने के बारे में वर्तमान बयानबाजी दो अन्य महत्वपूर्ण उद्देश्यों को पूरा करती है.
यह अक्सर कहा जाता रहा है कि अगर भाजपा के प्रधानमंत्री अपनी लगभग 15 प्रतिशत आबादी पर हमला करते रहेंगे या उन्हें कमजोर करते रहेंगे तो भाजपा के लिए भारत पर न्यायसंगत शासन करना मुश्किल होगा.
ऐसा लगता है कि मोदी को भी इसका अहसास हो गया है. अब जब उन्हें लगता है कि वह जीत रहे हैं, तो वह यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि वह एक सांप्रदायिक और बांटने वाले प्रधानमंत्री के रूप में शासन नहीं करेंगे. इसलिए ‘मोदी सबका है’ कहकर उच्च नैतिकता की बात की जा रही है.
एक और एजेंडा है. अब यह स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री एक वैश्विक राजनेता के रूप में प्रशंसा और सम्मान पाना चाहते हैं. यही कारण है कि पश्चिमी प्रेस में किसी भी अप्रिय लेख को उनके समर्थकों द्वारा भारत के खिलाफ गोरे लोगों की साजिश का हिस्सा बताया जाता है, जो भूरे लोगों को सफल होते नहीं देख सकते.
जब प्रधानमंत्री स्वयं रैलियों में अप्रत्यक्ष रूप से कुछ कहते हैं, तो पश्चिम में पश्चिमी मीडिया और पश्चिम में भारत के सहयोगियों और विशेष रूप से मध्य पूर्व में भारत के सहयोगियों को यह बताना अधिक कठिन हो जाता है कि सरकार किसी भी सांप्रदायिक एजेंडे से मुक्त है. इसलिए अब पीछे हटा जा रहा है और यह दावा किया जा रहा है कि प्रधानमंत्री को गलत समझा गया है.
तीन बातें अब स्पष्ट लगती हैं. पहला तो यह कि भाजपा अब उतनी घबराई हुई नहीं है जितनी पहले कैंपेन में दिख रही थी. उसका मानना है कि उसने यह चुनाव जीत लिया है.
दो: इस परंपरा को तोड़ने के बाद कि वह केवल उच्च विचारों वाले भाषण देते हैं जबकि मुस्लिम विरोधी सारी बातें छोटे नेता करते हैं, प्रधानमंत्री अब चुनाव प्रचार के सामान्य तरीके पर वापस जाना चाहते हैं और उस दुर्भाग्यपूर्ण चुनावी चरण अपने कैंपेन रिकॉर्ड से बाहर करना चाहते हैं.
और तीन: इन बदलावों के साथ, यह तय करना कम आसान होता जा रहा है कि भाजपा वास्तव में क्या चाहती है. यह इस तथ्य से और भी बदतर हो गया है कि संभवतः नई लोकसभा में बैठने वाले भाजपा सांसदों की एक बड़ी संख्या में भाजपा की विचारधारा के प्रति कोई प्रतिबद्धता न हो. इस चुनाव में सभी भाजपा उम्मीदवारों में से लगभग एक चौथाई ऐसे दलबदलू उम्मीदवार हैं जो मोदी के सत्ता हासिल करने के बाद ही अपनी पार्टियां छोड़कर भाजपा में शामिल हुए थे. इन 106 नए लोगों में से 90 पिछले पांच वर्षों में भाजपा में शामिल हुए.
जो पार्टी वैचारिक शुचिता पर गर्व करती थी, उसके लिए यह एक आश्चर्यजनक घटनाक्रम है. और तथ्य यह है कि प्रधानमंत्री एक कैंपेन के दौरान अचानक एक मुद्दा बना सकते हैं और फिर, कुछ हफ्तों बाद, इसे पूरी तरह से अस्वीकार कर सकते हैं, यह बताता है कि भाजपा अब वैचारिक रूप से सुसंगत पार्टी नहीं है जो पहले हुआ करती थी.
(वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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