14 अक्टूबर 2023 को संयुक्त राज्य अमेरिका में एक महत्वपूर्ण मौका सामने आया. व्हाइट हाउस से कुछ मील की दूरी पर, भारतीय-अमेरिकी आंबेडकरवादियों ने दलितों की परिवर्तनकारी यात्रा का जश्न मनाते हुए, धम्म चक्र प्रवर्तन दिवस मनाने के लिए बीआर आंबेडकर की ‘स्टैच्यू ऑफ इक्वेलिटी’ का अनावरण किया.
ऐसा लगता है कि यह मील का पत्थर, इसके ऐतिहासिक महत्व के बावजूद, भारत सरकार के शीर्ष अधिकारियों द्वारा ध्यान नहीं दिया गया है. इस तरह की अनदेखी एक मार्मिक सवाल उठाती है: भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने न्याय और सामाजिक उत्थान के इस स्मारकीय प्रतीक को स्वीकार क्यों नहीं किया, जो सीमाओं से परे है? यह सिर्फ एक मूर्ति नहीं है; यह आंबेडकर की स्थायी विरासत और उनके आदर्शों की वैश्विक प्रतिध्वनि का प्रमाण है. ऐसी उपलब्धियों को मान्यता देना उन योगदानों को स्वीकार करना है जो भारत को विश्व मंच पर गौरवान्वित करते हैं.
‘स्टैच्यू ऑफ इक्वेलिटी’ हमें याद दिलाता है कि न्याय और समानता की खोज की कोई सीमा नहीं होती और यह एक ऐसा मौका था जिस पर ज्यादा ध्यान देने की ज़रूरत थी — खासकर भारतीय नेतृत्व की ओर से. हालांकि, ऐसा लग रहा था कि मोदी का ध्यान कहीं और केंद्रित था.
उनकी एक्स फीड हिंदू देवी-देवताओं के विषयों से भरी थी. मां दुर्गा को शुभकामनाएं देने से लेकर FIDE वर्ल्ड जूनियर रैपिड शतरंज चैंपियनशिप 2023 को स्वीकार करने और केंद्रीय मंत्री महेंद्र नाथ पांडे को जन्मदिन की शुभकामनाएं भेजने तक, उनका ध्यान विभिन्न विषयों पर बिखरा हुआ नज़र आया.
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महत्वपूर्ण मील के पत्थर
प्रतिष्ठित आइवी लीग संस्थान में शैक्षणिक गतिविधियों को आगे बढ़ाते हुए आंबेडकर, जिन्होंने अमेरिका की धरती पर अपना नाम दर्ज़ कराने वाले पहले ज्ञात दलित के रूप में अपना नाम दर्ज़ कराया, आज अदम्य भावना के प्रतीक और अनगिनत पीढ़ियों के लिए आशा की किरण के रूप में खड़े हैं. 1913 में कोलंबिया यूनिवर्सिटी के पवित्र कैंपस में उनके शुरुआती कदमों ने बहुसंख्यक लोगों के लिए सबसे अधिक हाशिये पर पड़े लोगों, विशेष रूप से दलितों, जिन्हें अब तक ‘अछूत’ के रूप में किनारे धकेल दिया गया था, के हितों की रक्षा करने का मार्ग प्रशस्त किया.
यह सोचना असाधारण से कम नहीं है कि आंबेडकर के अमेरिकी तटों पर पहली बार प्रवेश के लगभग 11 दशक बीत जाने के बाद, हज़ारों दलित परिवारों ने अमेरिकी यूनिवर्सिटी में पढ़ाई की है. लेखक इस महान समूह से संबंधित हैं, जिन्हें हार्वर्ड, यूपीएन और जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय जैसे प्रसिद्ध आइवी लीग के गढ़ों में मैट्रिक पास करने का मौका मिला है. असल में मुख्य रूप से उत्तरी भारतीय विस्तार — पंजाब, बंगाल, बिहार — की दलित जनसांख्यिकी से उपजे हज़ारों परिवारों को, जो बाद में अपने दक्षिणी समकक्षों के साथ जुड़ गए, अमेरिका में सांत्वना और अवसर मिले हैं. ‘स्टैच्यू ऑफ इक्वेलिटी’ भारतीय अमेरिकी आंबेडकरवादियों की एकता के प्रतीक के रूप में खड़ी है, जो दुनिया भर में आंबेडकरवादियों की अटूट भावना और भौतिक सीमाओं से परे न्याय और समानता की खोज का प्रमाण है.
2016 से जब संयुक्त राष्ट्र ने आंबेडकर का जन्मदिन मनाया, दूरदर्शी के अनुयायियों ने बहुत महत्व के साथ असाधारण उपलब्धियां हासिल की हैं. संयुक्त राष्ट्र में आंबेडकर की जयंती के उद्घाटन समारोह से — एक ऐसा कार्यक्रम जिसमें संयुक्त राष्ट्र हॉल की क्षमता की बाधाओं के बावजूद 5,000 से अधिक लोगों ने हिस्सा लिया — “सामाजिक न्याय के लिए एआई” और समानता के स्मरणोत्सव विषय पर एक समर्पित NASDAQ कार्यक्रम की स्थापना तक व्हाइट हाउस में दिन, इनमें से प्रत्येक घटना आंबेडकर की स्थायी विरासत की बढ़ती वैश्विक मान्यता को रेखांकित करती है.
2018 में अमेरिकी कांग्रेस के सम्मानित सदनों ने आंबेडकर की जयंती का वार्षिकोत्सव शुरू किया, जबकि कैलिफोर्निया legislators ने जाति-आधारित भेदभाव को विधायी रूप से प्रतिबंधित करने का प्रयास करके इतिहास रचा. इस बढ़ते प्रभाव का एक मार्मिक प्रतीक न्यूयॉर्क की एक हलचल भरी सड़क का नाम डॉ. आंबेडकर वे रखने में निहित है. ये मील के पत्थर भारतीय वाणिज्य दूतावासों के व्यापक समर्थन या सरकारी खजाने की उदारता के बिना हासिल किए गए. यह केवल मान्यता की इच्छा नहीं है, बल्कि आंबेडकर के विचारों की शक्ति और उनकी विरासत के वैश्विक प्रभाव का एक प्रमाण है, जो सच्चे नेतृत्व का उदाहरण है जो आलोचनात्मक आवाज़ों का स्वागत करता है और उनके साथ जुड़ता है, लोकतांत्रिक भागीदारी के सार को दर्शाता है.
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धुंधली विरासत
गौरतलब है कि अमेरिका में महात्मा गांधी की असंख्य प्रतिमाएं भारतीय वाणिज्य दूतावास या भारत सरकार के अनुरोध पर स्थापित की गई हैं.
इसके बिल्कुल अलट आंबेडकर की विरासत भारतीय उपमहाद्वीप से परे सापेक्षिक अस्पष्टता में है. एक विडंबनापूर्ण असंगति तब उत्पन्न होती है जब कोई यह मानता है कि जहां भाजपा चुनावी अभियानों के दौरान आंबेडकर के नाम का जोर-शोर से आह्वान करती है, वहीं विदेशों में उसके दूतावास अक्सर अपने कैंपस से उनकी तस्वीर हटा देते हैं. यह मोदी के कार्यकारी आदेश में व्यक्त प्रशासनिक आदेशों से विचलन है.
मोदी, जो अक्सर दावा करते हैं कि आंबेडकर के बिना, वह पद पर नहीं होते, उन्होंने सार्वजनिक रूप से इन ऐतिहासिक कदमों को स्वीकार नहीं किया, खासकर जब कुछ संगठनों की छोटी-छोटी घटनाओं ने तुरंत उनका ध्यान खींचा. क्या भारत को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले दूरदर्शी आंबेडकर देश के सर्वोच्च पद से अधिक मान्यता के पात्र नहीं हैं? बहिष्कार की छाया में भारतीय अमेरिकी आंबेडकरवादी खड़े हैं और इंतज़ार कर रहे हैं कि मोदी उन्हें पहचानें और उन्हें अपने सोशल मीडिया पेज पर वो जगह दें जिसके वे हकदार हैं. क्या यह स्थायी ‘अस्पृश्यता’, ग्लोबल मंच पर यह अकथनीय चुप्पी, कभी परिवर्तन और स्वीकार्यता की बयार को जन्म देगी?
(लेखक संयुक्त राष्ट्र से संबद्ध एनजीओ फाउंडेशन फॉर ह्यूमन होराइजन के अध्यक्ष हैं, जो संयुक्त राज्य अमेरिका में जाति-विरोधी कानून आंदोलन का नेतृत्व कर रहा है और जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी में एक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) रिसर्च स्कॉलर हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)
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