कांग्रेस को जो हासिल करने में सत्तर साल लगे उसे भाजपा ने सिर्फ सात साल में हासिल कर लिया है और यह चीज है— आलाकमान वाली संस्कृति.
असम का नया मुख्यमंत्री कौन होगा, यह तय करने में पिछले सप्ताह जो नाटक चला उसने साफ कर दिया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की भाजपा का कामकाज किस तरह चल रहा है.
असम में भाजपा को निर्णायक जनादेश हासिल हुआ, जो उसकी पारंपरिक जमीन नहीं रही है, वहां वह दोबारा सत्ता में आई. इसमें शक नहीं है कि यह जनादेश सर्वानंद सोनोवाल की सरकार के पक्ष में है. लेकिन इसमें हिमंता बिस्वा सरमा के नेतृत्व में चुस्त रणनीति, कुशल प्रबंधन के साथ चलाए गए भाजपा के चुनाव अभियान की निर्णायक भूमिका रही है.
सरमा ही इस क्षेत्र में पार्टी की कमान संभाल रहे थे. इसलिए मुख्यमंत्री पद के लिए दोनों में से किसी एक का चुनाव करना पेचीदा मामला बन गया था. लेकिन इसे पेचीदा बनाने की जरूरत भी नहीं थी. विधायक दल की बैठक में मतदान करवा के फैसला किया जा सकता था. या दोनों क्षेत्रीय दिग्गजों को आपस में मामला निपटाने दिया जा सकता था.
लेकिन भाजपा ‘आलाकमान’ ने क्या किया? उसने फैसला करने में एक सप्ताह लगा दिया, सोनोवल और सरमा दोनों नेताओं को दिल्ली में नेतृत्व के सामने तलब किया और अपना फैसला उन्हें सुना दिया. भाजपा अब तक जिस प्रक्रिया को अपनाने का खंडन करती रही है, उसका यह उलटा ही था— ऊपर से निर्णय थोपने की प्रक्रिया जिसमें आलाकमान ही सर्वेसर्वा होता है.
आमतौर पर यह तरीका कांग्रेस का माना जाता रहा है, जहां कामकाज का तरीका यह है कि ‘हर फैसले के लिए गांधी परिवार के पास जाओ’. ऐसा लगता है कि भाजपा अपनी मुख्य प्रतिद्वंदी की सबसे पुरानी किताब से ही सबक ले रही है.
यह सब खास तौर से इसलिए बुरा लगता है क्योंकि भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व मुख्यमंत्री का चुनाव करने में व्यस्त रहा जबकि उसे स्पष्ट तौर पर कोविड महामारी की दूसरी लहर और इसके चलते पिछले दो महीने से जारी तबाही से निपटने को प्राथमिकता देनी चाहिए थी.
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सरमा बनाम सोनोवाल
जब ‘सरमा या सोनोवाल’ में से एक को चुनने का सवाल सामने उभरा तो भाजपा को कोई आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि कांग्रेस की तरह उसने भी किसी एक चेहरे को आगे किए बिना चुनाव लड़ा था. वैसे, चुनाव से पहले इन दोनों दलों की इसी तरह की दुविधा में काफी फर्क था. लेकिन चुनाव नतीजे के बाद भाजपा खेमे में जो नज़ारा सामने आया वह उस नज़ारे से कोई अलग नहीं था जो कांग्रेस की जीत के बाद उसके खेमे में दिखता. तब ऊंची कुर्सी के उसके दावेदार दिल्ली में डेरा जमा कर अपने लिए पैरवी कर रहे होते.
इस तरह, भाजपा आलाकमान ने छड़ी घुमाते हेडमास्टर की तरह अपनी असम इकाई को लोकतांत्रिक ढंग से फैसला न करने देकर नेताओं को दिल्ली बुलाना ही ठीक समझा. भाजपा के अंदरूनी सूत्रों ने बताया कि सरमा-सोनोवाल और पार्टी आलाकमान की बैठकों में ज्यादा समय अमित शाह ही बोलते रहे. बताया जाता है कि शाह ने पूर्व मुख्यमंत्री सोनोवाल को आश्वस्त किया कि उन्हें कोई सजा नहीं दी जा रही है कि उन्होंने सरकार अच्छी तरह चलाई लेकिन सरमा को इसलिए चुना जा रहा है क्योंकि उनका समय आ गया है.
दिखावे के लिए सब कुछ किया गया. पार्टी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने असम के नये भाजपा विधायकों की बैठक बुलाई, उसमें वरिष्ठ नेता नरेंद्र सिंह तोमर ने सरमा के नाम की घोषणा की, सब कुछ उम्मीद के मुताबिक किया गया मगर सब बनावटी लगा.
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नयी तहजीब- ऊपर से आदेश
कोई भी राजनीतिक दल या संगठन फैसलों पर शीर्ष नेताओं की मुहर लगने पर ही काम करता है. ऐसा लगता है कि इस मामले में ही भाजपा की ‘आलाकमान संस्कृति’ ज्यादा नुमाया हो गई, जिसमें मोदी-शाह की जोड़ी का फरमान ही चलता है. यह और बात है कि इस पार्टी ने अपने चरित्र को ऐसे समय में उजागर किया जब प्रधानमंत्री और गृह मंत्री को अपनी सारी ताकत कोविड की बेकाबू लहर पर काबू पाने में लगानी चाहिए थी मगर वे सियासत में उलझे थे.
वैसे यह कोई पहला मौका नहीं है जब भाजपा की यह प्रवृत्ति आसानी से उजागर हुई हो. मोदी-शाह उस शासन की सदारत कर रहे हैं जिसमें राज्य पार्टी इकाइयों— चाहे वह कर्नाटक हो या मध्य प्रदेश या अब असम— की अंदरूनी कलह को इस हद तक बढ़ने दिया जाता रहा है जब आलाकमान कांग्रेस आलाकमान की तरह ‘लड़ाओ और राज करो’ की नीति लागू कर सके.
जे.पी. नड्डा को मोदी और शाह के हितों की ही खातिर पार्टी अध्यक्ष बनाया गया क्योंकि वे जानते थे कि कमान अपने वफादार के हाथ में देकर दरअसल वे ही पार्टी को चलाते रहेंगे. यह वही भाजपा है जिसने 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी को पार्टी की कमान सौंप दी थी हालांकि लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेता इसके खिलाफ थे.
मोदी और शाह के साथ दिक्कत यह है कि वे प्रधानमंत्री और गृह मंत्री की भूमिका के साथ भाजपा की कमान भी थामे रखना चाहते हैं और हर फैसले पर अपनी मुहर जरूरी मानते हैं. यह जोड़ी इतनी ताकतवर हो गई है और पार्टी इनके ऊपर इतनी निर्भर हो गई है कि यह कांग्रेस के साथ गांधी परिवार के संबंध जैसा मामला लगने लगा है जिसमें केवल एक पक्ष का फरमान ही चलता है.
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कांग्रेसी संस्कृति
असम के नये मुख्यमंत्री के चुनाव में एक सप्ताह तक जो खेमेबाजी और खींचतान चली वह दशकों से 10 जनपथ पर कांग्रेसी नेता जो करते रहे हैं उससे मिलती-जुलती ही थी. 2004 में सोनिया गांधी ने अपने ‘विदेशी’ मूल को लेकर उठे विवाद के कारण प्रधानमंत्री बनने से मना करके और अपने भरोसेमंद सहयोगी मनमोहन सिंह की कथित ‘ताजपोशी’ करके पूरे मामले को नाटकीय मोड़ दे दिया था. यह कांग्रेसी संस्कृति में बिल्कुल फिट बैठता था, जिसमें निर्णय प्रक्रिया पर पूरा नियंत्रण रखना सबसे अहम माना जाता है.
सोमवार को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक ने पार्टी के आंतरिक चुनावों को टालने का फैसला यह कहकर कर दिया कि फिलहाल वह कोविड महामारी से लड़ने पर ज्यादा ज़ोर देना चाहती है. लेकिन जब सर्वशक्तिमान आलाकमान सारे फैसले करने को मौजूद है ही, तब नये चुनाव करवाने और लोकतांत्रिक रूप से चुने गए चेहरों की क्या जरूरत है?
प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक के चुनाव और अपने चहेतों को आगे बढ़ाने में कांग्रेस आलाकमान को अति-केंद्रीकरण का दोषी ठहराया जाता रहा है. भाजपा अब उसी के नक्शेकदम पर चल पड़ी है.
इसी आलाकमान वाली संस्कृति और शीर्ष नेतृत्व के पूर्वाग्रहों ने हिमंता बिस्वा सरमा को 2015 में कांग्रेस से अलग होने पर मजबूर किया था. विडंबना यह है कि इसी संस्कृति ने अब भाजपा में उन्हें असम की ऊंची गद्दी पर बैठा दिया है.
आलाकमान वाली संस्कृति पर अति निर्भरता के कारण ही आज कांग्रेस अपनी दुर्गति झेल रही है. लेकिन मोदी-शाह को शायद यह यकीन है कि उनके साथ यह नहीं होगा.
(व्यक्त विचार निजी हैं)
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