बीजेपी के अंदरखाने में सबकुछ ठीक नहीं है. उसके सांसद, विधायक और कार्यकर्ता हर कोई भ्रम में है और एक दूसरे की टांग खींचने में लगा है. इसके कुछ सहयोगी दल, जिसने इसको ब्राह्मण-बनिया संगठन की छवि से उबारा था, वह भी इसी तरह का बर्ताव कर रहे हैं.
मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में मिली हार के दो दिन बाद, नई दिल्ली में 13 दिसंबर को भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष अमित शाह ने पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित किया. पीछे बैठे कार्यकर्ता आपस में हंसी मजाक कर रहे थे. उसी में किसी ने अपने बगल वाले के कान में फुसफुसा कर कहा, ‘हमारी पार्टी की हार हुई है, लेकिन कार्यकर्ताओं की जीत हुई है’.
जैसे ही अमित शाह ने हार के कारणों की तुलना भारत में ब्रिटिश शासन के नींव रखने वाले पेशवा और पानीपत की लड़ाई से की, वैसे ही बैठक में चल रही हंसी-ठिठोली एक चिंताजनक मुस्कान में बदल गई.
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एक बड़े संग्राम में अब केवल 4 महीने बचे हैं. ऐसे में अमित शाह को अपने योद्धाओं की चिंता करनी चाहिए. पार्टी के वे नेता जो मध्य प्रदेश में मिली हार को भी कार्यकर्ताओं की जीत बता रहे थे, वे 13 दिसंबर की मीटिंग में पार्टी की कार्यप्रणाली में कार्यकर्ताओं की विफलताओं का भी जिक्र कर रहे थे. भाजपा के सांसदों और विधायकों की अब संयुक्त समस्या यही है कि कार्यकर्ताओं में एक रोष है कि आलाकमान से मिले आदेशों को पूरा करने के बाद भी बदले में उन्हें कुछ नहीं मिल रहा.
इसलिए अगर कोई चुनाव के दौरान राजस्थान भाजपा मुख्यालय देखता तो वह इसकी रेगिस्तानी स्थिति को देखकर जरूर अचंभित हो जाता. बाकी राज्यों में भी भाजपा के कार्यकर्ता कोई बहुत ज्यादा खुश नहीं हैं. उनसे यह उम्मीद की जा रही है कि, ‘यह मत पूछो कि देश (यहां पार्टी पढ़िए) ने तुम्हें क्या दिया’, लेकिन पार्टी में कोई निर्णय लेने में उनकी कुछ सुनी नहीं जा रही.
‘ये (विधानसभा चुनाव परिणाम) अच्छा हुआ. उन्हें (सेंट्रल बीजेपी नेतृत्व) एक झटका लगना जरूरी था.’ यह बात भाजपा सांसद और मोदी के एक समर्थक ने इस लेखक से कही. उन्होंने यह बताया कि किस तरह ‘एकतरफा संवाद’ (आलाकमान से सांसदों, विधायकों और कार्यकर्ताओं को लगातार मिल रहे निर्देश जिनकी आवाज कभी बाहर नहीं आ पा रही) पार्टी की मदद नहीं कर रहा.
कांग्रेस और अन्य पार्टियों द्वारा बनाई गई संरक्षण पद्धति से कोई भी फायदा पार्टी में ऊपर से नीचे तक सभी कार्यकर्ताओं तक पहुंचता था. वहींं भाजपा के शासन में हर चीज आलाकमान के ही हाथों में है, जहां सासंदों और विधायकों को भी उनकी ही पार्टी और सरकार में नजरअदांज किया जा रहा है.
चार भाजपा सांसदों ने पिछले एक साल में पार्टी छोड़ दी. नाना पाटोले महाराष्ट्र से, थुंपस्टन छेवांग जम्मू और कश्मीर से, हरिश्चंद्र मीणा राजस्थान से और सावित्री फुले बहराइच (उत्तर प्रदेश) से. पार्टी के अंदर के सूत्रों का मानना है कि लोकसभा चुनाव से पहले अभी और लोग पार्टी छोड़ने की फिराक में हैं. दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा को चुनाव जीतने वाली एक उपयुक्त इलेक्शन मशीन माना जाता है, लेकिन अब इस मशीन के सबसे महत्वपूर्ण पुर्जे हिलने लगे हैं.
एनडीए में असंतोष है. वह भी तब जब चंद्रबाबू नायडू की तेलगु देशम पार्टी और उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी आरएलएसपी इससे अलग हो गई और अभी कुछ अन्य पार्टियां भी इस कतार में शामिल होने को हैं. लोक जनशक्ति पार्टी के चिराग पासवान भाजपा के राम मंदिर मुद्दे पर अचानक सवाल उठाने लगे हैं.
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यहां वह तर्क नहींं है कि उनके पिता और केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान को भारतीय राजनीति का मौसम वैज्ञानी कहा जाता है. वे एनडीए में बने रह सकते हैं लेकिन ऐसा कहा जा रहा है कि वे इस भगवा पार्टी में चल रहे ‘एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप’ संकट से खुश नहीं हैं.
जहां भाजपा सरकार ने एससी-एसटी एक्ट मुद्दे को कमजोर करने के आरोप में संसदीय रास्ता अपनाने का निर्णय लिया, वहीं राम विलास पासवान ने इस राजनीतिक विभाजन को भुनाने के लिए रैलियों का आयोजन किया. जब तक उन्हें कथित रूप से भाजपा आलाकमान ने आग में घी डालने से मना नहीं किया, उन्होंने दो रैलियां की. एक पटना और एक दिल्ली में. और लोजपा प्रमुख ने इसका अनुपालन भी किया. भाजपा इस मुद्दे पर संसद में जाने के फैसले से ऊंची जातियों में आई प्रतिक्रिया से चिंतित थी.
भाजपा के एक सहयोगी दल ने कहा है, ‘दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम’. 2016 में ऊना में हुए दलित उत्पीड़न की घटना के बाद देश भर में हुए विरोध प्रदर्शन के बाद बीजेपी के सांसद उदित राज ऊना जाना चाहते थे लेकिन दोनों को कथित रूप से भाजपा के आलाकमान द्वारा पीछे हट जाने को कहा गया.
भाजपा ने 2014 के आम चुनाव के बाद गैर यादव ओबीसी, ईबीसी और गैर जाटव दलितों के वोटों को साधने में पूरा जोर लगाया है. इसके लिए उसने इन वोट बैंकों का प्रतिनिधित्व करने वाले कई दलों को साथ में मिलाया है. उसे पिछले पांच सालों में मिली चुनावी सफलताओं का यही कारण भी है.
2019 के लोकसभा चुनावों से पहले भाजपा के रणनीतिकार एनडीए छोड़ कर जा रहे दलों को लेकर चिंतित नहीं हैं. उपेंद्र कुशवाहा ने भाजपा से बातचीत के लिए पुरजोर कोशिश की, लेकिन अमित शाह ने उन्हें मिलने का समय तक नहीं दिया. उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार की एक सहयोगी भारतीय समाज पार्टी के ओमप्रकाश राजभर ने भाजपा के खिलाफ अपना दुखड़ा सार्वजनिक कर दिया लेकिन फिर भी वे अमित शाह का ध्यान खींचने में असफल रहें. भाजपा का समीकरण एनडीए के अन्य दलों के साथ भी सही नहीं है.
अगर भाजपा के अंदरखाने की मानें तो पार्टी के आलाकमान को फर्क नहीं पड़ रहा है. उन्हें लगता है कि एनडीए के ज्यादातर सहयोगियों को 2014 में आई मोदी लहर का फायदा मिला है इसलिए उन सबका खुद का कोई अब उतना वजूद नहीं है. 2019 का मुकाबला मोदी और राहुल के बीच हो या फिर मोदी और अन्य के बीच, नतीजा नेताओं की व्यक्तिगत लोकप्रियता के आधार पर ही आएगा.
लेकिन हालिया विधानसभा चुनाव नतीजों से जो एक सबक लिया जा सकता है वह यह है कि किसी की व्यक्तिगत लोकप्रिया जीत सुनिश्चित नहीं करा सकती.
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