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Friday, 22 November, 2024
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भाजपा ने राहुल गांधी की खोई साख लौटाकर उन पर बहुत बड़ा एहसान किया है

ब्रिटेन में दिए बयान को लेकर राहुल को लोकसभा से बाहर निकालने की कोशिशों से लेकर उन्हें अयोग्य ठहराए जाने तक, ऐसा लगता है कि भाजपा उन्हें लेकर चिंतित है.

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राहुल गांधी की छवि के साथ कुछ तो असामान्य घट रहा है, और हमने शायद इसपर बहुत ध्यान नहीं दिया है. अभी तक, राहुल को लेकर जो भी धारणाएं बनी हैं वो दो चरम स्तरों पर बंटी हैं. भारतीय जनता पार्टी उन्हें ‘पप्पू’ के तौर पर चित्रित करने में बहुत समय और पैसा खर्च कर चुकी है, और इसने उनके बारे में ऐसी धारणा बनाई है कि वो एक वंशवादी हैं जिन्हें राजनीति की कोई वास्तविक समझ नहीं है, उन्हें विदेश में छुट्टियां मनाना पसंद है, और भारत के लोगों के साथ तो उनका कोई जुड़ाव ही नहीं है.

एक और धारणा भी बनी है, यद्यपि ऐसा नजरिया रखने वालों की संख्या बहुत कम है. बहरहाल, कांग्रेस के कट्टर समर्थक सोचते हैं कि राहुल का व्यक्तित्व अद्भुत हैं, और इससे इतर राय रखने वालों को वे गालियां तक देने से नहीं चूकते. वे राहुल के हर कदम की तारीफ करते हैं और उनकी गलतियों पर भी खुश ही होते हैं. उनकी नजर में राहुल की जरा-सी भी आलोचना करने वाला स्पष्ट रूप से मोदी-प्रेमी या संघी ही होता है.

शेष भारत का दृष्टिकोण इन अतिवादी विचारों के बीच ही कहीं निहित है. तमाम ऐसे लोग हैं जो राहुल को गंभीरता से नहीं लेते और मानते हैं कि वह कभी किसी महत्वपूर्ण राजनीतिक पद पर काबिज होने लायक नहीं हैं. इनमें से कई लोग वैसे भी शायद भाजपा और नरेंद्र मोदी को वोट देंगे.

मित्रविहीन होती राहुल की राह

हालांकि, इस सबके बीच एक ऐसा महत्वपूर्ण वर्ग भी है जो उदारवादी है, धर्मनिरपेक्ष है और कांग्रेस के प्रति असहिष्णु भी नहीं है. राहुल ने पिछले कुछ सालों में इसे व्यवस्थित ढंग से अलग किया है. यही वो लोग हैं जो भाजपा की कार्यशैली का विरोध करते हैं, उनकी राय है कि ये सरकार भारत का मूल चरित्र बदल रही है, और यह एक धर्मनिरपेक्ष देश को हिंदू राष्ट्र में बदलने के विचार से असहज हैं.

ऐसे लोग वंशवाद की राजनीति के विचार से भी असहज रहे हैं और उन्होंने यह स्वीकारने में लंबा समय लगाया कि सोनिया गांधी कांग्रेस की एक प्रभावशाली नेता हो सकती हैं. और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान भले ही राहुल के प्रति उनमें कोई बैरभाव न रहा हो लेकिन यूपीए-2 के दौरान उन्होंने संदेह जताना शुरू कर दिया था. यही वो समय था जब खराब स्वास्थ्य की वजह से अपनी मां की अनुपस्थिति में राहुल चुनावों में कोई खास नतीजा हासिल करने में विफल रहे, उन्होंने एक अध्यादेश की प्रति फाड़ी और अपने पहले टीवी साक्षात्कार के दौरान खुद को बेवकूफ ही साबित किया.


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पहली बार, जब 2014 में नरेंद्र मोदी को पीएम के रूप में चुना गया था (लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को हराने के बाद, जब राहुल ने अभियान की अगुवाई की थी), तब लोगों को उम्मीद थी कि कांग्रेस एकजुट होकर काम करेगी और अगले आम चुनाव में भाजपा को हराने (या फिर गंभीर क्षति पहुंचाने) में सफल रहेगी. लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ तो वे राहुल को जिम्मेदार ठहराने लगे. उन्होंने कहा, मोदी सफल हुए क्योंकि राहुल को कोई गंभीरता से नहीं लेता.

जैसे-जैसे समय बीता, इस सरकार के कामकाज से नाखुश लोगों के बीच भी राहुल की एक जिद्दी लेकिन काफी हद तक निष्प्रभावी नेता वाली छवि बनने लगी. इसके पीछे खासी जिज्ञासा जगाने वाली राहुल की निजी पसंद-नापसंद, सरकार के विरोध के लिए उनकी तरफ से चुने गए मुद्दे, अन्य विपक्षी नेताओं के साथ तालमेल बनाने की उनकी अक्षमता, और भारत के कठोर समय से गुजरने के दौरान उनका स्कीइंग के लिए बाहर जाना आदि बड़ी वजहें रहीं.

यह विश्वास करना भले ही कितना कठिन क्यों न हो लेकिन जो लोग राहुल गांधी के सबसे बड़े आलोचक हैं, वे कट्टर संघी नहीं हैं. असल में वे तो उदारवादी हैं जिन्हें लगता है कि राहुल ने निराश किया है. उन्होंने नाटकीय रूप से कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा तो दे दिया लेकिन संविधान से इतर एक वंशवादी के तौर पर पार्टी चलाते रहे. उन्होंने दूसरी पंक्ति का नेतृत्व उभरने नहीं दिया. और जब निराश कांग्रेसियों ने अपनी आवाज उठाई, तो उन्होंने इसे अपने खिलाफ बगावत के तौर पर देखा और इसका समाधान निकालने की कोई कोशिश नहीं की.

इन सबने राहुल को अकेला और मित्रविहीन बना दिया. भाजपा-समर्थकों की तरफ से मजाक के पात्र और संभावित भाजपा-विरोधी समर्थकों के बीच उदारवादियों को निराश करने वाले की छवि के बीच उन्होंने खुद को चमचों की एक मंडली से घेर लिया, और किसी की भी बात सुनें बिना एक चेतना-शून्य अवस्था की तरफ बढ़ने लगे.

कुछ महीने पहले तक ऐसी ही स्थिति रही.

भाजपा की नाक के ठीक नीचे बदली सूरत

वैसे, अभी यह बताने का कोई तरीका नहीं मिल सका है जिसके आधार पर पुष्ट तौर पर बताया जा सके कि पिछले कुछ महीनों में बढ़ी राहुल की लोकप्रियता ने भाजपा के लिए किसी तरह का खतरा पैदा किया है. लेकिन जो स्पष्ट है वह यह है कि वह उस उदारवादी खेमे के बीच फिर से अपनी पैठ बनाने लगे हैं जिसने उनका साथ छोड़ दिया था.

इसमें बहुत कुछ योगदा भारत जोड़ो यात्रा का रहा है. हम इस पर तो बहस कर सकते हैं कि इसका कोई चुनावी असर होगा या नहीं लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि इसने राहुल की पप्पू वाली छवि पर विराम जरूर लगाया है. इस तथ्य के अलावा, वह एकबारगी लोगों तक यह सरल और स्पष्ट संदेश पहुंचाने में सफल रहे कि नफरत के कारण बंटे देश को मोहब्बत से साथ आना चाहिए, साथ ही महीनों तक मीलों की यात्रा के बाद किसी को इस पर कोई संदेह नहीं रह गया कि वह राजनीति के प्रति वाकई गंभीर हैं. उन्होंने इस दौरान अपने उस पहलू को भी सामने रखा जो आम तौर पर शायद ही कभी लोगों को देखने को मिला हो: आम लोगों के साथ सीधे तौर पर आमने-सामने की बातचीत से उनकी एक विनम्र और ईमानदार छवि सामने आई.

अब वो सिर्फ उदारवादी ही नहीं हैं जो उन्हें अधिक गंभीरता से ले रहे हैं. बल्कि भाजपा ने भी राहुल पर हमले तेज कर दिए हैं. उनकी यूके यात्रा को लेकर तीखी प्रतिक्रियाएं जताई गईं और उन्होंने वहां जो कुछ कहा उसके बारे में जानबूझकर मनगढ़ंत बातें किए जाने से स्पष्ट तौर पर यह सवाल उठता है: यदि वह, जैसा आप कहते हैं, एक पप्पू हैं तो फिर आप उनकी बातों की इतनी परवाह क्यों करते हैं? जबकि आप हमें तो यही बताते रहे हैं कि कोई उन्हें गंभीरता से नहीं लेता.

राहुल गांधी को संसद में बोलने न देना, यूके में की गई टिप्पणियों को लेकर उन्हें लोकसभा से बाहर निकालने की कोशिशें और फिर सूरत की अदालत के फैसले के बाद त्वरित गति से अयोग्य करार दिया जाना, ये सब कहीं न कहीं यही बताता है कि तमाम उपहास के बावजूद भाजपा राहुल गांधी को लेकर काफी चिंतित है.

वास्तव में इस सबसे उन्हें फायदा ही पहुंचा है. पहले तो ऐसा लगता था कि वह विरोधियों के झांसे में आ गए हैं. लेकिन उनके खिलाफ अभियान ने उन पर उपकार ही किया है. भाजपा शायद यह भूल गई कि अपने प्रतिद्वंद्वी का मजाक बनाना हमेशा अधिक प्रभावी होता है. एक बार जब आप उसे निशाना बनाना शुरू करते हैं तो वह कारगर भी हो सकता है, और नहीं भी हो सकता, लेकिन उससे यह तो साफ पता चलता है कि कहीं न कहीं आप उसे लेकर चिंतित हैं—बहरहाल, अब वह मजाक के पात्र नहीं रहे हैं.

भाजपा का अभियान राहुल के लिए पिछले कुछ वर्षों में खोया उदारवादी समर्थन फिर हासिल करके अपनी साख बढ़ाने में मददगार रहा है. अब यह उनके ऊपर है कि वह खुद को हासिल विश्वसनीयता का इस्तेमाल कैसे करते हैं. वैसे तो वो पहले ही दो चूक कर चुके हैं. एक प्रेस कांफ्रेंस में मीडियाकर्मी पर निशाना साधना तुच्छ और अनावश्यक कदम था, और वीडी सावरकर की आलोचना करते समय उन्होंने यह नहीं सोचा कि उनकी टिप्पणी का नतीजा क्या हो सकता है.

पिछला अनुभव हमें यही दिखाता है कि राहुल हमेशा अपने फायदे या सामने नजर आ रहे अवसरों को अच्छी तरह भुना नहीं कर पाते. फिर भी, इस बारे में कोई भविष्यवाणी करना जल्दबाजी ही होगा कि चीजें आगे कैसे बढ़ेंगी.

लेकिन एक बात तो स्पष्ट है: पिछले कुछ वर्षों की तुलना में राहुल गांधी आज काफी बेहतर स्थिति में हैं.

वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार और टॉक शो होस्ट हैं. वह @virsangvi पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(अनुवाद/ संपादन- पूजा मेहरोत्रा)


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