कोई पूछे कि इस वक्त देश की वैकल्पिक राजनीति की सबसे बड़ी विडम्बना क्या है, तो जवाब शायद एक ही हो: जिस विपक्षी एकता की जरूरत 2019 के लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी सरकार की वापसी के फौरन बाद ही महसूस की जाने लगी थी, उसका हाल अगला लोकसभा चुनाव यानी 2024 पास आ जाने के बाद भी बीरबल की खिचड़ी जैसा ही है! इसलिए दूध के जले उसके ‘भूखे’ {यानी शुभचिन्तक} तक उस पर तभी ‘पतियाने’ {यानी भरोसा करने} को तैयार हैं, जब वह पककर इतनी ठंडी हो जाये कि उसके दो कौर सुभीते से हलक के नीचे उतारे जा सकें.
क्षेत्रीय दलों ने उनके क्षत्रपों की महत्वाकांक्षाओं और विपक्षी गठबंधन के नेतृत्व जैसे अनसुलझे सवालों के दो पाटों के बीच कभी तो यह खिचड़ी पकती-पकती काठ की हांड़ी की गति को प्राप्त हो जाती है और कभी ऐसे मुसकुराने लगती है जैसे गाना चाहती हो-मोसे छल किहे जाय सइयां बेईमान! ऐसे में सवाल है कि यह एकता मुमकिन भी हुई तो वह नीतियों की एकता होगी या नेताओं की, मन की होगी या मजबूरी की, कितनी उम्र पायेगी और उसका हासिल क्या होगा?
पिछले दिनों कांग्रेस नेता राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा की मार्फत लस्त-पस्त कांग्रेस का टेम्पो थोड़ा हाई कर सत्तारूढ़ भाजपा के निशाने पर आये और ‘मोदियों’ की कथित मानहानि में सजा के बाद लोकसभा की सदस्यता व सरकारी बंगला गंवाकर दूसरे विपक्षी दलों की भरपूर सदभावना व समर्थन अर्जित किया तो कहा जाने लगा कि इस ‘विक्टिम कार्ड’ ने विपक्षी एकता की बात लगभग बना दी है.
मोदी सरकार की एजेंसियों ने ‘भ्रष्ट’ विपक्षी नेताओं के खिलाफ कार्रवाइयां अचानक और तेज कर दीं तो भी कुछ ऐसा ही कहा गया. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तो इन नेताओं की एकता के लिए प्रवर्तन निदेशालय और केन्द्रीय जांच ब्यूरो आदि को धन्यवाद भी देने लगे. अलबत्ता, व्यंग्यपूर्वक.
लेकिन अब? इस एकता के अंतर्विरोधों को कभी कांग्रेस के अन्दर से शशि थरूर कुरेद देते हैं, तो कभी उसके बाहर से समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो अखिलेश यादव, तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के मुखिया शरद पवार, जबकि सबसे बड़ी वामपंथी पार्टी माकपा ने सबसे आगे बढ़कर इस एकता को नामुमकिन ही बता डाला है.
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बराबरी
इस महीने के शुरू में एक न्यूज एजेंसी से बात करते हुए शशि थरूर जहां ‘राहुल की लोकसभा सदस्यता छीने जाने से विपक्ष में पैदा हुई एकता की लहर’ से अभिभूत दिखे, वहीं यह भी कहा कि कांग्रेस ही इस एकता की वास्तविक केन्द्र बिन्दु होगी. लेकिन इसके बाद बेसब्र से होकर यह भी कह डाला कि वे उसके नेतृत्व में यानी कांग्रेस अध्यक्ष होते, तो उसके केन्द्र बिन्दु होने की शेखी नहीं बघारते, बल्कि किसी छोटी पार्टी को विपक्ष के राष्ट्रीय गठबंधन का संयोजक बनाते.
उनका यह कथन एक तरह से अखिलेश द्वारा एक हफ्ता पहले कांग्रेस को दी गई उस नसीहत का ही विस्तार था कि ‘भाजपा की ही तरह क्षेत्रीय दलों को अपमानित करती आई’ कांग्रेस की जिम्मेदारी है कि अब वह भाजपा के मुकाबले क्षेत्रीय दलों को आगे करें और उनके साथ खड़ी रहे.
वह तो अच्छा हुआ कि कांग्रेस उनके ट्रैप में नहीं आई. उसकी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने मोदी सरकार की रीति-नीति को लेकर अंग्रेजी दैनिक ‘हिन्दू’ में छपे अपने लेख में इतना भर लिखा कि संविधान के आदर्शों की रक्षा के लिए कांग्रेस सहमना दलों से हाथ मिलायेगी. साफ है कि उन्होंने क्षेत्रीय दलों को बराबरी के सलूक का संकेत दिया और ऐसा नहीं जताया कि कांग्रेस खुद को अनिवार्य रूप से नेतृत्वकारी भूमिका में रखना चाहती है.
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल से भेंट के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश ने भी कुल मिलाकर यही कहा कि उन्हें विपक्षी एकता के प्रयासों के लिए फ्री हैंड मिल गया है. उन्होंने अपने नये एकता प्रयासों के तहत तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी व सपा प्रमुख अखिलेश यादव से वार्ता के बाद सब कुछ हरा हरा होने के संकेत दिये हैं, लेकिन सवाल अपनी जगह है कि ये दल कांग्रेस से सौतेलेपन के अपने इतिहास के विपरीत उसे लेकर कितने सहज हो सकेंगे.
तिस पर यह साफ होना भी अभी बाकी है कि कांग्रेस नीतीश को विपक्षी गठबंधन का संयोजक बनाकर थरूर की मंशा पूरी करेगी या नहीं. कई बार पाला बदल चुके नीतीश की विश्वसनीयता का निम्न स्तर भी उनके एकता प्रयासों की राह रोकेगा ही.
ठीक इसी समय राष्ट्रवादी कांग्रेस के मुखिया शरद पवार ने बहुचर्चित अडाणी मामले की जांच हेतु संयुक्त संसदीय समिति की विपक्ष की मांग को असंगत ठहरा दिया, फिर अडाणी से मुलाकात भी कर डाली है.
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भाजपा के खिलाफ चुनावी लड़ाई
अलबत्ता, उन्होंने कहा है कि वे संयुक्त संसदीय समिति की मांग से सहमत न होने पर भी उसका विरोध नहीं करेंगे, लेकिन उन्होंने भाजपा को इस एकता के एक बड़े छेद का पता तो बता ही दिया है. इस एकता को लेकर कभी नरम तो कभी गरम रवैया अपनाने वाली तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा की पवार अडाणी भेंट पर कड़ी प्रतिक्रिया ने भी उससे विपक्षी एकता का मार्ग कंटकाकीर्ण होने का ही संकेत दिया है.
दूसरी ओर तृणमूल कांग्रेस की परम्परागत प्रतिद्वंद्वी माकपा ने इस विचार को ही ‘गलत और संकीर्ण चुनावी रवैये से निकला’ करार दिया है कि 2024 में भाजपा के खिलाफ चुनावी लड़ाई की सफलता सभी लोकसभा सीटों पर एक के खिलाफ एक का लड़ना पक्का करने पर ही निर्भर है.
पार्टी के मुखपत्र ‘पीपुल्स डेमोक्रेसी’ ने अपने सम्पादकीय में राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन या मोर्चे के तौर पर विपक्षी एकता को असंभव बताया और लिखा है कि इसके बजाय विपक्ष में जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक के पुलवामा कांड सम्बन्धी रहस्योद्घाटनों व अडाणी के ‘भष्टाचार’ को प्रधानमंत्री के गैरवाजिब संरक्षण जैसे बड़े मुद्दों पर नीति आधारित सहमति बनाना बेहतर होगा. मुखपत्र के अनुसार किसी एक राज्य में सबसे प्रमुख विपक्षी दल को ही भाजपा के खिलाफ रणनीति तय करने की जिम्मेदारी सौंपना कहीं से भी उचित नहीं होगा.
विपक्षी एकता
विपक्षी एकता का एक और पेंच यह भी है कि गत दिनों कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने सीबीआई द्वारा दिल्ली के मुख्यमंत्री व आम आदमी पार्टी सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल से पूछताछ को लेकर उनके साथ एकजुटता दर्शाई {राहुल को सजा और लोकसभा सदस्यता से बर्खास्तगी के मामले में केजरीवाल भी खुलकर कांग्रेस के समर्थन में उतरे थे}, तो पंजाब, जहां आम आदमी पार्टी सत्ता में और कांग्रेस विपक्ष में हैं, विधानसभा में विपक्ष के नेता प्रताप सिंह बाजवा केजरीवाल को भ्रष्ट बताते हुए कह रहे हैं कि भ्रष्टाचार से लड़ाई में केजरीवाल कतई दया के पात्र नहीं हैं.
‘उन्होंने पंजाब में कांग्रेस को खत्म कर दिया और हम उनके प्रति नरमी नहीं बरत सकते. कहते हैं कि कांग्रेस का एक घड़ा मानता है कि भाजपा या नरेंद्र मोदी के भ्रष्टाचार से लड़ाई आप और केजरीवाल जैसों से एकता कायम कर नहीं जीती जा सकती, क्योंकि उनके हाथों में भी भ्रष्टाचार का कीचड़ लगा हुआ है.
कई प्रेक्षक यह भी कहते हैं कि अभी कर्नाटक, फिर तेलंगाना, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनावों में नतीजे कांग्रेस के अनुकूल आये तो उसकी सौदेबाजी की ताकत बढ़ जायेगी और तब बहुत संभव है कि क्षेत्रीय दलों व विपक्षी एकता को लेकर उसका रवैया वही न रहे, जो आज है.
दूसरी ओर कांग्रेस के बाहर माकपा के अलावा भी ऐसी पार्टियां हैं-मसलन योगेन्द्र यादव की स्वराज इंडिया-जो मानती हैं कि विपक्ष में नीतिगत एकता नहीं हुई तो चुनावी समीकरणों की एकता उसके बहुत काम नहीं आने वाली. क्योंकि किसी भी सरकार या सत्तारूढ़ दल को सबसे ज्यादा डर अपने नीति आधारित विपक्ष से लगता है. वही उनकी पोल खोलकर उन्हें सच्ची चुनौती भी दे पाता है.
अभी भाजपा और मोदी सरकार खुश हो सकती हैं कि उनका नीतियों पर दृढ़ विपक्ष से साबका ही नहीं है और जिस विपक्षी एकता की कवायद की जा रही है, उसके रथ के घोडे़ भी अलग-अलग दिशाओं में बढ़ने के लिए जोर लगा रहे हैं. राहुल गांधी कर्नाटक में जाति जनगणना की मांग उठाकर सामाजिक न्याय की खोयी जमीन सहेजने के फेर में हैं, तो शरद पवार उनके अडाणी मुद्दे की हवा निकाले दे रहे हैं.
यहां इस तथ्य में ढाढ़स महसूस किया जा सकता है कि ठीक है कि विपक्ष एक नहीं हो पा रहा तो सत्तारुढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन भी एकजुट नहीं रह गया है? सत्ता की तमाम चिक चिक के बावजूद कई दल, जो 2019 में उसके घटक थे, अब नहीं हैं. लेकिन सवाल है कि विपक्ष जैसे-तैसे एक हो भी जाये तो नीतियों की एकता के अभाव और खीरे जैसी प्रीति के प्रभाव में वह भाजपा के ‘मिथकीय हिन्दुत्व और महानायकीय विकास’ के ट्रैप में फंसने से खुद को कैसे बचायेगा?
वह एक होकर भी समता, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता जैसे संवैधानिक मूल्यों और अल्पसंख्यकों को ऐसे ही अनाथ किये रखेगा और भाजपा से हार्ड बनाम साफ्ट हिन्दुत्व की लड़ाई में ही उलझा रहेगा, तो भला क्या पायेगा? खासकर जब उसके पास किसान आंदोलन जैसे गैरराजनीतिक व गैरदलीय जन आंदोलनों से समन्वय का कोई रोडमैप भी नहीं है, जो उसके बगैर अपने ही बूते भाजपा की बदगुमानियों की हवा निकालते और मोदी सरकार के अहंकार पर निर्णायक चोट करते आये हैं.
हां, भाजपा को विपक्षी एकता से नहीं तो जनता के आक्रोश से तो डरना ही चाहिए, क्योंकि नाराज मतदाता सरकारों की बेदखली का हुक्म देने के लिए किसी के मोहताज नहीं होते. इसे वे 1977 में भी सिद्ध कर चुके हैं और 1989 व 2014 में भी.
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