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Saturday, 4 May, 2024
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कर्नाटक में भाजपा की रणनीति मोदी का काम मुश्किल बना रही है

वर्तमान और पूर्व विधायक प्रतिद्वंद्वी खेमे में टिकट बंटवारे को लेकर विरोध हो रहा है. सार्वजनिक रूप से आलाकमान की आलोचना करने वाले नेता कांग्रेस की पहचान थी. बीजेपी कर्नाटक में ये सब देख रही है.

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1980 में, जब जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आज़ाद लोकसभा चुनाव के लिए अपना नामांकन पत्र दाखिल करने के लिए महाराष्ट्र के वाशिम गए, तो अधिवक्ता आरजी राठी ने उन्हें अपने एक ड्राइवर के साथ नई फिएट कार और एक महीने के लिए पेट्रोल के पैसे भी दिए. आजाद ने अपनी नई आई आत्मकथा पर किताब में जिंदगी के इन पन्नों को याद किया है. उस चुनाव के छह महीने बाद, आज़ाद लिखते हैं, “मैं उन्हें विधानसभा का टिकट देकर उनके (राठी) द्वारा दिखाई गई सद्भावना और उदारता का प्रतिदान कर सका.”

क्या बात है. एक बड़े नेता के लिए एक कार, एक ड्राइवर और पेट्रोल दे दो और कांग्रेस का टिकट पाओ. कांग्रेस में उन दिनों आजाद के दिनों के बारे में पढ़कर खुशी होती है.

पार्टी के नेता आपको बताएंगे कि टिकट और भी सस्ते में मिल सकता है. जब कांग्रेस के पूर्व नेता पार्टी के बारे में लिखते हैं या बात करते हैं, तो वो जानकारी मनोरंजक तरीके के साथ सामने आती है. महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री शरद पवार का भी एक और दिलचस्प किस्सा है कि कैसे कांग्रेस आलाकमान मुख्यमंत्रियों को चुनते थे. 1982 में, जब एआर अंतुले ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दिया, तब तत्कालीन प्रधान मंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष इंदिरा गांधी ने बाबासाहेब भोसले को चुना, जो पहली बार के विधायक थे. अपनी आत्मकथा ऑन माई टर्म्स में, पवार याद करते हुए बताते हैं कि इस बारे में और भी कई कहानियां थीं. इसमें एक यह थी कि उनका दूसरा नाम मराठा योद्धा छत्रपति शिवाजी के साथ जुड़ा था और इंदिरा गांधी ने सोचा कि भोसले उनके वंशज हैं. एक और बात यह थी कि उनके विधानसभा क्षेत्र का नाम नेहरू नगर भी उनके काम आया. पवार लिखते हैं, “मेरा व्यक्तिगत अनुमान था कि … क्योंकि वह… तुलसीदास जाधव के दामाद थे …. 1969 के राष्ट्रपति चुनाव में … पांच या छह मतों (गांधी के उम्मीदवार) में जो डॉ. वीवी गिरी के राज्य से मतदान हुआ था, उनमें से एक थे तुलसीदास जाधव.”

ऐसे ही, माता-पिता, दादा-दादी या परदादा-नाना-नानी द्वारा कांग्रेस आलाकमान के लिए किए गए ‘अच्छे’ काम कब किसी को विधानसभा या संसद का टिकट या यहां तक कि मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचा देंगे, आपको नहीं पता. इंदिरा गांधी के उत्तराधिकारियों ने बड़े पैमाने पर इस प्रथा का पालन किया.

यह तर्क संगत है कि भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी), जिसने कांग्रेस को हटाकर प्रमुख पार्टी के रूप में अपनी जगह बना ली है, को भी उन प्रथाओं को विरासत के रूप में अपना लेना चाहिए जो सबसे पुरानी पार्टी ने अपनाई थी.

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इसलिए, जब आलाकमान एमएल खट्टर, भूपेंद्र पटेल, पुष्कर धामी, या माणिक साहा को मुख्यमंत्री के रूप में चुनते हैं, तो भाजपा नेता और कार्यकर्ता अब आश्चर्यचकित नहीं होते हैं. लेकिन गूगल अंकल के लिए यह अक्सर आश्चर्य की बात होती है. ऐसा लगता है कि भाजपा ने पार्टी उम्मीदवारों के चयन में भी पुरानी कांग्रेस से प्रेरणा ली है.अगर ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि 2022 के हिमाचल प्रदेश चुनाव में क्या हुआ और अब कर्नाटक में क्या हो रहा है. हिमाचल में मौजूदा विधायक सहित कम से कम 17 भाजपा नेताओं ने बागी उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ने के लिए पार्टी से नाता तोड़ लिया था. यह टूट विधानसभा की कुल 68 सीटों में से एक-चौथाई थी.

बीजेपी में कांग्रेस की पहचान

वर्तमान परिदृश्य को अगर देखें तो अब तक  कर्नाटक बीजेपी के कम से कम 10 विधायक और एमएलसी पार्टी छोड़ चुके हैं. अगर राजनीति विज्ञान के बारे में बात करें तो 10 मई को होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले दक्षिणी राज्य में भाजपा भयानक प्रदर्शन कर रही है. लिंगायत चेहरा माने जाने वाले, 67 वर्षीय पूर्व मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार ने पार्टी टिकट नहीं मिलने के बाद भाजपा से इस्तीफा दे दिया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) में वैचारिक जुड़ाव रखने वाले छह बार के विधायक कांग्रेस के शासन के दौरान विपक्ष के नेता थे. वह अब इस चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं और भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव (संगठन) बीएल संतोष को उनके बाहर निकलने के लिए जिम्मेदार ठहरा रहे हैं.

शेट्टार ने कहा कि एक व्यक्ति (संतोष) के प्रति वफादारी पार्टी के प्रति वफादारी से ज्यादा महत्वपूर्ण है. भाजपा ने उन्हें हुबली-धारवाड़ (मध्य) सीट से टिकट देने से इनकार कर दिया और महेश तेंगिनाकई को टिकट दे दिया, जिन्हें शेट्टार संतोष का “मनसा पुत्र” बताते हैं.

शेट्टार ने यह भी आरोप लगाया कि संतोष के करीबी टीएस श्रीवत्स को एडजस्ट करने के लिए पूर्व मंत्री एसए रामदास को मैसूर में टिकट से वंचित कर दिया गया था. एक अन्य प्रमुख लिंगायत नेता, 63 वर्षीय पूर्व उपमुख्यमंत्री लक्ष्मण सावदी ने भी टिकट नहीं मिलने के बाद भाजपा छोड़ दी. वह अब कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं.

सत्ताधारी और पूर्व विधायकों का प्रतिद्वंद्वी खेमे में जाना, पार्टी कार्यकर्ताओं का सड़कों पर विरोध और नेता द्वारा सार्वजनिक रूप से आलाकमान की आलोचना करना – ये चुनावी मौसम के दौरान कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों की पहचान हुआ करती थी. लेकिन यह सब कुछ कर्नाटक में बीजेपी देख रही है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का पार्टी के प्रति प्रतिबद्धता दिखाने के लिए कुरुबा नेता केएस ईश्वरप्पा को फोन करना कर्नाटक में भाजपा की स्थिति बताता है. उस कॉल में एक अनकहा संदेश था: “पार्टी न छोड़ने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद.” ईश्वरप्पा को पहले चुनावी दौड़ से बाहर होने के लिए कहा गया, और फिर अपने बेटे के लिए टिकट की उनकी इच्छा को खारिज कर दिया गया.


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भाजपा प्रत्याशी चयन को लेकर माथापच्ची

उम्मीदवारों को टिकट देने के बीजेपी के क्या मापदंड हैं? पिछले नौ वर्षों में, पार्टी के नेता अलिखित दिशानिर्देशों के एक सेट का हवाला देते रहे हैं: 75 से ऊपर के उम्मीदवारों को कोई टिकट नहीं, वंशवाद का प्रचार नहीं, एक साफ छवि और निश्चित रूप से जीतने की क्षमता. ईश्वरप्पा को पार्टी से हटाने के लिए लिए उनकी उम्र – 74 – और बेलगावी स्थित ठेकेदार संतोष पाटिल की आत्महत्या पर विवाद के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है. बाद में  ईश्वरप्पा को मंत्रिमंडल से इस्तीफा देना पड़ा. हालांकि, बाद में उडुपी पुलिस ने उन्हें क्लीन चिट दे दी, लेकिन उन्हें वापस नहीं लिया गया.

2017 में, बीएस येदियुरप्पा ने सार्वजनिक रूप से संतोष पर उनके खिलाफ विद्रोह शुरू करने में ईश्वरप्पा का समर्थन करने का आरोप लगाया था. कांग्रेस द्वारा “40 प्रतिशत कमीशन सरकार” पर एक अभियान शुरू करने के साथ, भाजपा ने स्पष्ट रूप से उन्हें या उनके बेटे को पार्टी का टिकट नहीं देने में ही भाजपा ने अपनी भलाई समझी. यह निश्चित रूप से उम्र की कसौटी नहीं थी क्योंकि पार्टी ने चित्रदुर्ग से जीएच थिप्पारेड्डी को मैदान में उतारा है- जो कुछ महीनों में 76 साल के हो जाएंगे. शेट्टार को टिकट न देने की कसौटी उम्र भी नहीं हो सकती थी. स्वच्छ छवि के लिए, कर्नाटक स्टेट कॉन्ट्रैक्टर्स एसोसिएशन (KSCA) ने थिप्पारेड्डी पर 90 लाख रुपये रिश्वत लेने का आरोप लगाया था.

वंशवाद की राजनीति पर भाजपा के रुख को देखते हुए, यह कर्नाटक में चयनात्मक रहा है. इसने येदियुरप्पा के बेटे विजयेंद्र को उनके पिता के घरेलू मैदान शिकारीपुरा से टिकट दिया है. येदियुरप्पा के बड़े बेटे राघवेंद्र पहले से ही बीजेपी सांसद हैं. भाजपा विधायक उमेश कट्टी के बेटे और भाई को भी पार्टी का टिकट दिया गया है.

जबकि ईश्वरप्पा के बेटे को चुनावी दौड़ से हटने के बाद भी टिकट से वंचित कर दिया गया था, भाजपा के मंत्री आनंद सिंह ने अपने बेटे सिद्धार्थ के लिए पार्टी का टिकट सुनिश्चित करने के लिए दौड़ से बाहर होने का विकल्प चुना. 2019 में बीजेपी ने मौजूदा विधायक शशिकला जोले के पति अन्नासाहेब जोले को लोकसभा का टिकट दिया था. 2023 में जब उनके पति सांसद हैं तो उन्हें दोबारा विधानसभा चुनाव में बीजेपी का टिकट दिया गया है. 2018 के विधानसभा चुनाव में पति-पत्नी दोनों बीजेपी के उम्मीदवार थे. भाजपा ने विधायक अरविंद लिंबावली को टिकट देने से इनकार कर दिया, लेकिन महादेवपुरा निर्वाचन क्षेत्र में उनकी पत्नी मंजुला को टिकट देना चुना.

कर्नाटक में भाजपा की उम्मीदवारों की सूची में कई और राजवंशों और राजनेताओं के रिश्तेदारों के नाम हैं. इसने कांग्रेस प्रवक्ता गौरव वल्लभ को भाजपा पर कटाक्ष करने के लिए प्रेरित किया. उन्होंने कहा कि भाजपा के 34 उम्मीदवार भाई-भतीजावाद के कारण थे.

खोखला हो गया मोदी का जादू

विधानसभा चुनावों में पीएम मोदी की अपील के मूल में तीन मुद्दे हैं- भ्रष्टाचार, वंशवाद और डबल इंजन सरकार.

पिछले चार वर्षों में कर्नाटक में भाजपा विधायकों और मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोपों की झड़ी लग गई है. यहां तक कि बीजेपी ने उम्मीदवारों का चयन करते समय इन आरोपों की चिंता करना बंद कर दिया है. उदाहरण के लिए, थिप्पारेड्डी की उम्मीदवारी.

चुनावी भाषणों में मोदी दूसरा प्रमुख मुद्दा उठाते हैं कि कैसे वंशवादी राजनीति लोकतंत्र की ‘सबसे बड़ी दुश्मन’ है. कर्नाटक में चुनाव प्रचार के दौरान, पीएम मोदी वंशवादी राजनीति के बारे में बात करने से पहले मंच पर पार्टी उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि की जांच कर सकते हैं. क्योंकि अगर वह वंशवाद की राजनीति का राग अलापते रहे तो इससे बीजेपी के कई उम्मीदवारों की संभावनाओं को नुकसान पहुंचा सकता है.

दोहरे इंजन के विकास के अपने वादे के लिए, यह कहना पर्याप्त है कि मोदी ने इस साल कर्नाटक की अपनी आठ यात्राओं में, बसवराज बोम्मई के नेतृत्व वाली सरकार के विकास के बारे में कुछ भी कहे बिना केंद्र में अपनी सरकार की उपलब्धियों पर ध्यान केंद्रित करने का विकल्प चुना है.

इन बाधाओं को एक तरफ रखते हुए, भाजपा अभी भी कर्नाटक में घर चलाने के लिए मोदी की लोकप्रियता और हिंदुत्व पर भरोसा कर सकती है, हालांकि पार्टी के स्टार प्रचारक के प्रभाव पर उनके ‘जादुई’ शब्दों या सूत्रों – भ्रष्टाचार, वंशवाद और भ्रष्टाचार पर एक बड़ा सवालिया निशान बना हुआ है. यदि किसी को आगे की चुनावी लड़ाई कठिन प्रतीत होती है, तो तिनके को पकड़ना है, तो यहां एक है. हिमाचल में भाजपा के बागी कृपाल परमार याद हैं? पहाड़ी राज्य में चुनाव से हफ्तों पहले, मोदी ने उन्हें फोन किया था और उनसे चुनाव से बाहर बैठने का आग्रह किया था – “मेरा कृपाल ऐसा नहीं कर सकता”. कृपाल ने भरोसा नहीं किया.

पीएम मोदी ने शुक्रवार को कर्नाटक के ईश्वरप्पा को फोन किया. पार्टी द्वारा उनके बेटे को टिकट देने से इनकार करने के बाद वे अपनी प्रतिकूल प्रतिक्रिया से आशंकित थे. हालांकि ईश्वरप्पा शांत दिख रहे हैं – अभी के लिए, कम से कम.

डीके सिंह दिप्रिंट के राजनीतिक संपादक हैं. यहां व्यक्त विचार निजी हैं.

(संपादन- पूजा मेहरोत्रा)
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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