जब क्रिकेट टीम की पोशाक के रंग को लेकर भी विवाद छिड़ जाता हो, ऐसे समय में एक बात है. जिस पर नरेंद्र मोदी के भक्त और आलोचक, दोनों एकमत नज़र आते है और वह यह है कि मोदी को मात देना नामुमकिन है. आज भी और निकट भविष्य में भी.
आइए, पहले मोदी भक्तों की बात करें. उनका मानना है कि अगली चौथाई सदी तक तो कोई भी उन्हें सत्ता से बेदखल नहीं कर सकता. यह कुल मिलकर 1952 से 1989 तक कांग्रेस के राज के, जिसमें 1977 से 1979 के बीच थोड़ा व्यवधान आया था, बराबर बैठेगा. इन भक्तों का कहना है कि यह जायज भी होगा. क्योंकि राष्ट्रवादी दक्षिणपंथ को भी भारत को बदलने का वैसा मौका मिलना ही चाहिए, जो मौका सेकुलर वामपंथ को देश की आज़ादी के बाद मिला.
बीते पांच वर्षों में इन लोगों ने दिखा दिया है कि पुराने सामाजिक-राजनीतिक फार्मूले, खासकर कट्टर धर्मनिरपेक्षतावाद, कितने बेमानी हो चुके हैं और यह कि समाजवाद तथा जनकल्याणवाद जैसे फार्मूलों को पुरानी, वामपंथी झुकाव वाली जमात से झटक लेना कितना आसान है. इन्हें गरीबों के हक में इस तरह लागू भी किया जा सकता है कि वे वोटों में तब्दील हो सकें. शिक्षा जगत और बुद्धिजीवियों की जमात के सैद्धान्तिक एवं दार्शनिक रुझान को बदलने का प्रोजेक्ट अच्छी तरह प्रगति कर रहा है.
उनका मानना है कि बार-बार बहुमत हासिल करके वे मोदी का तीसरा कार्यकाल शुरू होने तक यानी 2025 तक अपनी विचारधारा से जुड़े अपने ज़्यादातर लक्ष्यों को हासिल कर लेंगे. उनका मानना है कि भारत को इसी संविधान और उसके मूल चरित्र के दायरे में हिंदू राष्ट्र की अपनी अवधारणा के मुताबिक ढालने का लक्ष्य अगले छह वर्षों में हासिल किया जा सकता है. गौरतलब है कि 2025 में आरएसएस की स्थापना की शताब्दी भी मनाई जाएगी.
मोदी भक्तों का मानना है कि उन्होंने भारत के गरीबों के साथ वैसा ही सामाजिक जुड़ाव बना लिया है जैसा जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी ने बनाया था. वे मानते हैं कि उन्होंने कांग्रेस की कमर हिंदू राष्ट्रवाद के नारे से नहीं, बल्कि उसके पुराने कांग्रेसवाद यानी जनकल्याणवाद, राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर उग्र जुनून और घोर व्यक्तिवाद के बूते तोड़ दी है. गरीबों के साथ मोदी के इस नए सामाजिक जुड़ाव ने उन्हें अपराजेय बना दिया है.
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अच्छे-से-अच्छी सेना लड़ाई तो हार सकती है, लेकिन उसकी जितनी परीक्षा नशीली जीत में होती है, उतनी ही सोची-समझी वापसी में भी होती है. कांग्रेस के नेतृत्व में कायर जनरलों और अनाड़ी नेताओं की अगुआई में विपक्ष ठीक उसी तरह मैदान छोड़ रहा है. जिस तरह हमारी सेना ने 1962 में मैदान छोड़ा था. इस सबसे बना मूड मतदाताओं के प्रति विपक्ष की पाखंडी नाराजगी से उजागर होता है. कांग्रेस का मानना है कि ‘मोदी तो जीत गए मगर देश हार गया’. इस पर प्रधानमंत्री ने संसद में पिछले दिनों तंज़ भी कसा.
कांग्रेस के सहयोगियों और दूसरों का हाल तो और भी बुरा है. उदाहरण के लिए, इस दिवालिएपन को कर्नाटक के मुख्यमंत्री एच.डी. कुमारस्वामी ने प्रदर्शनकारी बेरोजगारों पर अपनी इस नाराजगी से उजागर किया ‘तुम लोगों ने मोदी को वोट दिया, अब उनसे ही रोजगार मांगो.’ उधर मायावती ने अपनी हार के लिए अपने सहयोगी अखिलेश यादव को दोषी ठहराया. बसपा नेता की राजनीति आज सबसे उतावलेपन की राजनीति नज़र आ रही है, तो ममता बनर्जी भी पीछे नहीं हैं.
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने भाजपा के खिलाफ साझा मोर्चे में उनका साथ देने के लिए कांग्रेस और वामदलों का जो आह्वान किया. वह नैतिक दिवालियापन तो दिखाता ही है. दिलचस्प राजनीति और अविवेकपूर्ण चुनावी रणनीति की भी मिसाल पेश करता है. ऐसा लगता है, ममता ने अगले विधानसभा चुनाव में अपनी हार पहले ही कबूल कर ली है. वैसे, वामदलों से लेकर नवीन पटनायक, जगन रेड्डी, केसीआर और एम.के. स्टालिन तक तो किसी गिनती में हैं ही नहीं.
विपक्ष के इस मूड को कबूल करने का लालच तगड़ा है कि मोदी संसाधनों पर विपक्ष के 5 प्रतिशत की तुलना में 95 पर कब्जे के अलावा संस्थानों पर अपनी कसती जकड़ एवं नतमस्तक मीडिया के बूते अपराजेय हो गए हैं. उसका तर्क यह होता है कि अगर मतदाता निर्वाचित तानाशाही को ही पसंद करते हैं तो आप क्या कर सकते हैं?
पीछे मुड़कर देखें तो लगेगा कि राजीव गांधी के बाद से कांग्रेस का नज़रिया यही रहा है. जो लोग उसे पूरी तरह खारिज कर देते हैं, उनके प्रति उसका रुख ऐसा ही रहता है. उनके प्रति वह इतनी नफरत पाल लेती है कि वह उनके पास जाकर यह भी नहीं जानने की कोशिश करती कि उन्होंने उसे क्यों खारिज कर दिया. चुनावी आंकड़ा विश्लेषक के अपने अवतार में योगेंद्र यादव ने यह चौंकाऊ निष्कर्ष निकाला था कि जिस राज्य में कांग्रेस का वोट प्रतिशत 20 प्रतिशत से नीचे चला जाता है वहां फिर वह उबर नहीं पाती.
मतदाताओं की ‘मूर्खता’ से वह इतनी नाराज हो जाती है, मानो वह यह संदेश दे रही हो. ‘ठीक है भाइयो, आप लोग हमारे लायक नहीं है और हमें भी आप जैसे एहसान फरामोश लोगों की जरूरत नहीं है.’ यह उस सामंत के गुस्से के इजहार जैसा है जिसे ठुकरा दिया गया हो. शायद, यही वजह है कि अपने परिवार के वफादार गढ़ माने गए अमेठी में चुनाव हारने के पांच सप्ताह बाद तक भी राहुल गांधी वहां नहीं गए. आप ऐसी उपेक्षा तभी कर सकते हैं. जब आपने यह फैसला कर लिया हो कि अब मोदी को हराना नामुमकिन है. इसलिए बेहतर यही है कि मोदी के विरोध का जिम्मा ‘उदारवादी’ एक्टिविस्टों, बुद्धिजीवियों और पीआइएल के रणबांकुरों को ही सौंप दिया जाए. इसलिए, राजनीतिक परिवर्तन लाने की चुनौती ‘प्रतिरोध’ के नशीले मगर अधकचरे-से विचार में बदलकर रह जाती है.
अगर मोदी भक्तों और मोदी विरोधियों का यह सोच सही है कि मोदी अपराजेय हो चुके हैं, तो सबसे पहले तो हम जैसे राजनीतिक टीकाकारों के दिन लद जाएंगे. हमारे लिए कहने को कुछ नहीं रह जाएगा. लेकिन, हकीकत यह है कि राजनीति लंबे समय तक लकवे की स्थिति में, या स्थिर नहीं रह सकती. इसका चक्का घूमता रहता है, बेशक कभी-कभी यह चक्का धीरे-धीरे घूमता है, जैसा कि नेहरू-गांधी परिवार के मामले में हुआ. लोकतंत्रों का इतिहास समय से बहुत पहले ही जीत या हार को घोषणा करने वाले दोनों तरह के लोगों के आत्म-विनाश के उदाहरणों से भरा पड़ा है. लेकिन, ऐसे भी कई हुए हैं जिन्होंने हार नहीं मानी, हार से मिले सबक और सदमे को कबूल करके पूरे धैर्य के साथ पुनर्निर्माण में जुट गए. इसकी उम्दा मिसाल इमरजेंसी के बाद की इंदिरा की कांग्रेस भी है और आडवाणी-वाजपेयी की भाजपा भी. इंदिरा गांधी ने जेल जाकर और बेल्छी में हाथी की सवारी करके महज ढाई साल में अपने को फिर से मजबूत कर लिया था. जब उन्होंने जनता सरकार की कमजोरी, खासकर राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में, भांप ली तो पूरे ज़ोर से हमला बोल दिया और कामयाब हुईं.
1980 में जनता पार्टी, जिसमें भारतीय जनसंघ भी शामिल थी. शर्मसार होकर बिखर गई और इंदिरा गांधी ने जोरदार वापसी की. लेकिन वाजपेयी और आडवाणी ने अपनी पराजित सेना को सोची-समझी चाल के तहत वापस बुलाया, उसे एक नई पार्टी भाजपा के रूप में फिर से तैयार किया. चार साल के भीतर ही उसे भारी झटका लगा और 1984 में राजीव गांधी की धमाकेदार जीत के साथ वह महज दो सांसदों वाली पार्टी बन गई. बाकी विपक्ष का भी कुछ ऐसा ही हश्र हुआ.
लेकिन, वाजपेयी और आडवाणी मुंह फुलाकर बैठ नहीं गए. उन्होंने अपनी कमजोरियों का विश्लेषण किया. पूरे संकल्प और समर्पण से जुट गए. और याद कीजिए, राजीव ने तब 414 सीटें जीती थी. मोदी, तो केवल 303 सीटें ही जीत पाए हैं.
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मात्र तीन साल में उसी तबाह विपक्ष ने राजीव को दिवालिया कर दिया था. राजीव की भूलों से उसे मदद तो मिली मगर विपक्ष खासकर भाजपा ने संसद के भीतर और बाहर शानदार काम किया. उसने कांग्रेस के असंतुष्टों से तालमेल किया, और उन विपक्षी नेताओं से भी हाथ मिलाया, जिनसे वह लड़ती रही थी और बोफोर्स तथा दूसरे घोटालों का पर्दाफाश करने के लिए एक्टिविस्टों और मीडिया का भी इस्तेमाल किया. 1998 में इसने खुद को सत्ता में पहुंचाया तो इसकी असली वजह यह है कि उसने वह बड़ा मुद्दा खोज लिया, जिसका जवाब कांग्रेस और समाजवादी नहीं दे सकते. यह मुद्दा राम मंदिर और नव हिंदुत्व का है. आप इसकी आलोचना नहीं कर सकते, लेकिन एक विकल्प के तौर पर एक बड़े मुद्दे की जरूरत भी थी. इसमें 35 वर्ष लग गए, लेकिन भाजपा आज उतनी ही प्रबल है जितनी कभी कांग्रेस थी.
जीत हो या हार, राजनीति के सबक अपने समय के साक्ष्यों से ही सबसे बढ़िया तरीके से सीखे जा सकते हैं. मोदी भले ही एक आकर्षक विजेता की आभा से युक्त नज़र आते हों, मगर वे भी एक मनुष्य ही हैं, कोई अवतार नहीं. 2014 में भारी जीत के चंद महीने बाद ही अरविंद केजरीवाल ने उन्हें दिल्ली में 67-3 से मात दी थी, क्योंकि ‘आप’ तब एक बड़ा और नया ‘आइडिया’ नज़र आ रहा था. इस तरह का राजनीतिक परिवर्तन गहरी चीर-फाड़ की मांग करता है. यहां होम्योपैथी काम नहीं करेगी.
यह क्रिकेट का सीजन है और मैं मोदी के बारे में असदुद्दीन ओवैसी की इस शानदार टिप्पणी को प्रस्तुत करना चाहूंगा. ‘वे विवियन रिचर्ड्स की तरह बेपरवाही के साथ संसद में घुसते हैं, जो बॉलरों की पूरी नफरत से धुनाई करता है… इंग्लैंड ने रिचर्ड्स प्रॉब्लम का एक हल निकाल. खिलाड़ियों को दूर खड़ा करके रक्षात्मक फील्ड सजा दो, उसे खूब बल्ला घुमाने दो और उसके शॉट्स को रोकते रहो, जब तक कि वह बोर न हो जाए और गलती करे.’ अटूट धैर्य, अपना बचाव, प्रतिद्वंद्वी की गलती करने का इंतज़ार. यह भी एक रणनीति है. सो, बुद्धिमत्ता से ज्यादा, पहली शर्त यह है कि आप हिम्मत दिखाएं और दिल में जज़्बे की आग जलाए रखें.
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