जय श्रीराम के नारे, राष्ट्रवाद और हिंदी के वर्चस्व पर डीएमके सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री ए. राजा की टिप्पणी का विवाद थमता नजर नहीं आ रहा है. बीजेपी ने उनके बयानों की कड़ी निंदा की है और इस मसले पर विपक्षी गठबंधन को भी घेरने की कोशिश की है. दरअसल बीजेपी इन बयानों का ज्यादा शोर उत्तर भारतीय राज्यों में ही कर रही है.
मेरे हिसाब से ये मसला सिर्फ राजनीतिक नहीं है. भारत और खासकर तमिलनाडु में चल रहे सांस्कृतिक, धार्मिक और वैचारिक संघर्षों की पृष्ठभूमि में ही इन विवादों को देखा जा सकता है. ये विवाद नेहरू, पेरियार और राजगोपालाचारी के समय से चला आ रहा है और अन्नादुरै से लेकर करुणानिधि तक इसमें किरदार रहे हैं. सनातन धर्म पर तमिलनाडु के मंत्री उदयनिधि स्टालिन का बयान भी इसी कड़ी में है. तमिलनाडु की राजनीति और तमिलनाडु के लोग इन बयानों से चौंकते नहीं हैं. वहां ये सब निरंतरता में है.
इन बयानों पर बीजेपी की उत्तेजना समझ से परे है क्योंकि अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में डीएमके के साथ मिलकर बीजेपी केंद्र में सरकार चला चुकी है. सबसे दिलचस्प तो ये है कि ए. राजा उस मंत्रिपरिषद में स्वास्थ्य और ग्रामीण विकास विभाग के राज्य मंत्री थे. इस दौरान भी सेतु समुद्रम से लेकर तमाम धार्मिक और भाषायी मसलों पर डीएमके की वही राय थी, जो आज है और जिस पर आज बीजेपी को ऐतराज़ है.
संघवाद यानी फेडरलिज्म, केंद्र सरकार के राज्यों में हस्तक्षेप, राज्यपाल की भूमिका, भाषाई अस्मिता और धार्मिक तथा सांस्कृतिक मसलों पर तमिलनाडु की द्रविड़ पार्टियों का अपना पक्ष रहा है और इसमें निरंतरता रही है. द्रविड़ पार्टियां राज्यों को ज्यादा अधिकार दिए जाने और सामाजिक न्याय की हिमायती हैं और हिंदी थोपे जाने का विरोध करती हैं. वहां तिरुवल्लुवर, जस्टिस पार्टी, पेरियार, अन्नादुरै, करुणानिधि और एमजी रामचंद्रन आदि का बोलबाला रहा है. राष्ट्रीय पार्टियों के लिए वहां राजनीति में सफल होना मुश्किल रहा है. खासकर बीजेपी का वहां से न एमपी जीतता है, न एमएलए. उसका वोट शेयर भी तीन परसेंट से ऊपर नहीं पहुंच पाया है.
दरअसल बीजेपी जब तमिलनाडु में जमीन तलाशने की कोशिश करती है, तो उसके पास अपना बना कोई ऐसा मॉडल नहीं है जो द्रविड़ विचारधारा पर चलने वाले तमिलनाडु से ज्यादा चमकदार हो. वह यह नहीं कह सकती कि वह तमिलनाडु को उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान या गुजरात बना देगी. तमिलनाडु ज्यादातर मानकों पर इन राज्यों से काफी आगे हैं.
मिसाल के लिए, तमिलनाडु में देश में सबसे पहले मिड डे मील स्कीम शुरू की. जब तक सभी राज्यों ने इसे लागू किया तब तमिलनाडु बच्चों के लिए नाश्ते की एक और स्कीम लेकर आ गए. तमिलनाडु स्त्री शिक्षा में पहले से आगे है. हर लड़की कॉलेज तक पहुंचे इसके लिए एक नई स्कीम लागू की गई है कि सरकारी स्कूलों से पढ़ने वाली बच्चियां आगे जब तक पढ़ती रहेंगी, सरकार हर महीने उनके खाते में एक हजार रूपए जमा करेगी. बाकी राज्य अभी इस बारे में सोच भी नहीं पा रहे हैं.
स्त्री शिक्षा पर जोर देने के कारण तमिलनाडु महिला कर्मचारियों के मामले में देश का पहले नंबर का राज्य है, जहां सबसे ज्यादा महिला फैक्ट्री वर्कर हैं. ये महिलाएं उपभोक्ता भी हैं और कुल मिलाकर राज्य की जीडीपी और विकास में अपना योगदान करती हैं. तमिलनाडु की अर्थव्यवस्था 2022-23 में 8.19 प्रतिशत की दर से बढ़ी है, जबकि राष्ट्रीय विकास दर 7.24 प्रतिशत ही है. विदेशी निवेश के मामले में भी ये अग्रणी राज्यों में है. तमिलनाडु अब देश में सर्वाधिक जीडीपी जोड़ने वाला दूसरे नंबर का राज्य है. राष्ट्र की जीडीपी में तमिलनाडु का योगदान 8.8 प्रतिशत है.
मानव विकास में भी अग्रणी
तमिलनाडु ने आर्थिक विकास करते हुए मानव विकास का भी पूरा ध्यान रखा है. बल्कि ये कहा जा सकता है कि तमिलनाडु के आर्थिक विकास की बुनियाद वहां का मानव विकास है. द्रविड़ पार्टियों का हमेशा से शिक्षा, स्वास्थ्य और महिला विकास पर जोर रहा है. मानव विकास सूचकांक पर तमिलनाडु देश का अग्रणी राज्य है. स्वास्थ्य के मानकों पर तो अब वह यूरोपीय देशों को टक्कर दे रहा है. तमिलनाडु में साक्षरता दर ऊंची है. तमिलनाडु में शिशु मृत्य दर प्रति एक हजार शिशु जन्म पर सिर्फ 8.8 प्रतिशत है. तमिलनाडु का जेंडर रेशियो प्रति एक हजार पुरुष 996 है, जबकि राष्ट्रीय औसत 940 है. तमिलनाडु के लोग औसत 75.29 वर्ष जीते हैं.
इसके मुकाबले अगर मध्य प्रदेश को देखें, जहां बीजेपी शुरुआती दौर में ही सत्ता में आ गई और लंबे समय तक जहां बीजेपी का शासन रहा, वहां शिशु मृत्यु दर 46 है. उत्तर प्रदेश में शिशु मृत्यु दर 41 है. गुजरात का आंकड़ा 25 का है और वह भी तमिलनाडु से काफी पीछे हैं. जाहिर है कि आप तमिलनाडु में यूपी या गुजरात या मध्य प्रदेश का मॉडल नहीं चला सकते.
तमिलनाडु सामाजिक न्याय का भी मॉडल प्रस्तुत करता है. यहां कुल 69 प्रतिशत आरक्षण वंचित समूहों के लिए है और ओबीसी में भी अति पिछड़ों को अलग से आरक्षण मिलता है. इस मामले में तमिलनाडु भारत के बाकी राज्यों को रास्ता दिखा सकता है.
इसके मुकाबले राममनोहर लोहिया का समाजवादी मॉडल है. पर उसमें विकास पर ध्यान नहीं दिया जाता. इसलिए जो राज्य लोहिया के मॉडल पर चले, वे पीछे रह गए. लोहिया समाजवाद धार्मिक मामलों में भी प्रखर नहीं है और धार्मिकता के साथ जुगलबंदी करने की कोशिश करता है. खुद लोहिया ने अयोध्या के पास रामायण मेला का आयोजन किया था. बहरहाल यह सब चला नहीं. देखते ही देखते लोहिया मॉडल की राजनीति भी कमजोर हो गई है.
ऐसे में आने वाले समय में हिंदुत्व को वैचारिक चुनौती देने के लिए द्रविड़ मॉडल की नजर आता है.
(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व मैनेजिंग एडिटर हैं और उन्होंने मीडिया और समाजशास्त्र पर किताबें लिखी हैं. उनका एक्स हैंडल @Profdilipmandal है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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