हालांकि कोई भी चुनाव आखिरी वोट डाले जाने तक पूरा नहीं होता, लेकिन तमाम ओपीनियन पोल यही बता रहे हैं कि भाजपा फिर सत्ता में आने वाली है, भले ही यह सबसे ज़्यादा सीटों वाले गठबंधन के रूप में उभरने के कारण ही क्यों न हो. इसलिए इस पार्टी के चुनाव घोषणापत्र की गहरी जांच ज़रूरी है, खासकर इसलिए कि मोदी सरकार 2014 के घोषणापत्र में किए गए वादों से निर्देशित होती रही है— चाहे यह डिजिटाइज़ेशन और टेक्नोलॉजी पर आधारित समाधानों पर ज़ोर देना हो या स्वच्छ भारत अथवा गोरक्षा पर.
विकास के मामले में नरेंद्र मोदी सरकार की नीति की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह परिणाम से ज़्यादा काम (आउटपुट) पर ज़ोर देती है. काम, यानी रेल पटरियां कितनी दूर तक बिछाई गईं; परिणाम, यानी इससे रेलों की गति और माल एवं सवारी ढुलाई में इजाफा कितना हुआ. काम, यानी कितने जन धन खाते खुले; परिणाम, यानी इन खातों में कितना लेन-देन हुआ.
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यह काम में फर्क को कमतर बताने के लिए नहीं कहा जा रहा है. जाहिर है, हाइवे के निर्माण में तेज़ी से देश में फर्क तो पड़ा ही है. वास्तव में, कांग्रेस 14 लाख रिक्त पदों पर बहाली का जो वादा कर रही है वह परिणाम तो दूर, काम का ज़िक्र किए बिना ही खर्च करने का मामला है. लेकिन यह भी स्पष्ट हो जाना चाहिए कि अगर परिणाम में फर्क नहीं पड़ता तो काम नाकाफी है. इसलिए शिक्षकों और डॉक्टरों (जिनकी ज़रूरत है) की संख्या ही नहीं चाहिए, उस संख्या का परिणाम साक्षरता और जीवन की संभाव्यता पर भी दिखना चाहिए, जिसमें बांग्लादेश भारत से आगे है. संयुक्त राष्ट्र के टिकाऊ विकास के लक्ष्य इस मामले में एक उपयोगी उदाहरण हैं, क्योंकि इनमें परिणामों पर ज़ोर दिया गया है.
इस दृष्टि से, घोषणापत्र ऐसे वादों से भरा हुआ है जिनका ताल्लुक काम से है— 75 नए मेडिकल कॉलेज खोलना; राष्ट्रीय व्यापारी कल्याण बोर्ड का गठन करना; पेट्रोल में 10 प्रतिशत इथनॉल की मिलावट करना, आदि-आदि. परिणामों पर फोकस तो अपेक्षाकृत एक छोटी थीम है. जब परिणामों के लक्ष्यों की बात की जाती है तब वे इतने महत्वाकांक्षी होते हैं कि उनके नीचे छिपे विश्लेषणों की अनदेखी कर दी जाती है, या वे लक्ष्य यथार्थ से बिलकुल दूर होते हैं, मसलन 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य.
यह मानसिक आलस्य है. वादे के मुताबिक जीडीपी को 2018 में 2.7 खराब डॉलर से बढ़ाकर 2025 में 5 खराब डॉलर तक पहुंचाने के लिए वार्षिक वृद्धि दर 9 प्रतिशत से ज़्यादा होनी चाहिए. लेकिन पिछले पांच वर्षों में जो सबसे तेज़ वृद्धि दर हासिल की गई वह 7.3 प्रतिशत की थी. ऐसे में उपरोक्त लक्ष्य को हासिल करने के लिए क्या किया जाएगा, इस सवाल का कोई जवाब नहीं दिखता. 2014 में वादा किया गया था कि देश को मैन्युफैक्चरिंग का केंद्र बनाया जाएगा. यह वादा इस बार भी दोहराया गया है. तो सवाल यह है कि पहले के मुक़ाबले अब फर्क लाने के लिए क्या किया जाएगा? पिछले पांच वर्षों में व्यापारिक माल के निर्यात में प्रगति की रफ्तार 40 वर्षों में सबसे सुस्त रही, तब अगले पांच वर्षों में निर्यात बढ़कर दोगुना कैसे हो जाएगा?
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घोषणापत्र की एक और काबिलेगौर बात यह है कि काम के दर्जनों लक्ष्यों और सरकारी कार्यक्रमों की भीड़ के बीच नीति को ओझल कर दिया जाता है. नीति के प्रति पूर्वाग्रह मोदी सरकार की खासियत रही है, और उसका घोषणापत्र इसमें परिवर्तन के कोई संकेत नहीं देता. पिछले पांच वर्षों में निर्यात या मैन्युफैक्चरिंग में सफलता क्यों नहीं मिली या कृषि संकट क्यों बना रहा, इसकी पर्याप्त वजहें हैं. अगर उन वजहों की पहचान नहीं की जाती या उन्हें दूर करने की बात नहीं की जाती तो घोषणापत्र अधूरा माना जाएगा. भारतीय कृषि अभाव से उबरकर सरप्लस तक पहुंच गई, लेकिन कृषि उपज के निर्यात को बढ़ाने, या फूड प्रॉसेसिंग अथवा फसलों में विविधता जैसे उपाय करके सरप्लस का निबटारा करने पर ध्यान नहीं दिया गया. अगर इन बातों को नहीं समझा जाएगा तो उपजों की कीमतों में वृद्धि नहीं की जा सकेगी. किसानों को ब्याजमुक्त कर्ज़ देना कोई समाधान नहीं, जिसकी कोशिश भाजपा कर रही है.
तर्क दिया जा सकता है कि घोषणापत्र में इतना ही कहा जा सकता है, कि यह किसी थिंक-टैंक का दस्तावेज़ नहीं होता. इस तरह की प्रतिक्रिया एक कांग्रेसी नेता ने तब ज़ाहिर की जब उससे यह पूछा गया कि उसकी पार्टी ने जो लंबे-चौड़े कार्यक्रम गिनाए हैं उन्हें व्यावहारिक धरातल पर कैसे उतारा जाएगा. किसी चुनावी वादे को अगर विश्वसनीय बनाना है, खासकर तब जबकि उस पर भारी खर्च होने वाला हो या जब वह पिछले रेकॉर्ड को बदलने का दावा करता हो, तो व्यावहारिक सवालों और प्रमुख नीतिगत मुद्दों पर खामोशी से बात नहीं बनने वाली.
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