जैसे ही मैंने 2022 में न्यूज़ देखी, मुझे हैरानी हुई कि गुजरात सरकार ने 2002 के दंगों के दौरान बिलकिस बानो के साथ सामूहिक बलात्कार करने और उसके परिवार के सदस्यों की हत्या करने वाले 11 दोषियों को सज़ा में छूट दे दी. राज्य सरकार उन अपराधियों पर दया कैसे कर सकती है जिन्होंने एक महिला के खिलाफ ऐसा जघन्य अपराध किया हो? मेरा दुख और डर तब और बढ़ गए जब मुझे पता चला कि दोषियों को न केवल माफ किया गया बल्कि रिहाई के समय गले में मालाएं भी पहनाईं गईं.
हालांकि, जब 8 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने स्थिति को सुधारने के लिए कदम उठाया तो मुझे राहत की सांस आई. दोषियों को दोबारा जेल भेजने से, भारतीय न्याय प्रणाली में लाखों लोगों का भरोसा फिर बहाल हुआ है. कड़ी फटकार लगाते हुए अदालत ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि गुजरात सरकार “सांप्रदायिक घृणा से प्रेरित वीभत्स अपराध” के लिए दोषी ठहराए गए 11 लोगों की माफी याचिका पर फैसला लेने के लिए उपयुक्त सरकार नहीं थी. न्याय का यह पल कठोर, निंदात्मक भाषा में दिया गया, लेकिन आशा की किरण जगाने वाला था कि जघन्य अपराधों को खत्म करने की कोशिशों पर सच्चाई हमेशा प्रबल होगी.
बानो ने कहा, “इस राहत से मेरी आंखों में खुशी के आंसू छलक आए. मैं डेढ़ साल से अधिक समय में पहली बार मुस्कुरा पाई हूं. मैंने अपने बच्चों को गले लगा लिया. ऐसा लगता है जैसे पहाड़ के आकार का पत्थर मेरे सीने से हटा दिया गया है और मैं फिर से सांस ले सकती हूं.” और कोई भी इन भावनाओं के प्रति गहरी सहानुभूति रखने से बच नहीं सकता. हालांकि, समझना यह भी ज़रूरी है कि क्या हम सच में समस्या की जड़ के बारे में बात कर रहे हैं?
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फैसले का विश्लेषण
सुप्रीम कोर्ट के फैसले की बारीकी से जांच करने पर पता चलता है कि इसने मामले के महत्वपूर्ण तकनीकी पक्ष पर प्रकाश डाला – एक “उचित सरकार”. दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 432(7)(बी), जो सज़ा में छूट की शक्ति को नियंत्रित करती है, में उल्लेख है कि जिस राज्य में अपराधी को सज़ा सुनाई गई है, वह छूट का आदेश पारित करने का अधिकार रखता है. यह स्थान सज़ा देने के अधिकार क्षेत्र द्वारा निर्धारित किया जाता है और ज़रूरी नहीं कि अपराध कहां हुआ या दोषी को कहां कैद किया गया है. देखते हुए कि इन लोगों को मुंबई की विशेष अदालत में सज़ा सुनाई गई थी, यह महाराष्ट्र है, न कि गुजरात, जिसके पास माफी आवेदन की समीक्षा करने का अधिकार है.
इस फैसले का सार “छूट की शक्ति” और संबंधित दिशानिर्देशों के व्यापक विचारों के बजाय “उचित सरकार” को परिभाषित करने के इर्द-गिर्द घूमता है. यह अंतर कानूनी पेचीदगियों की सूक्ष्म जांच की ज़रूरत को रेखांकित करता है और यह सवाल उठाता है कि क्या हमारा ध्यान समस्या के मूल कारण से जुड़ा है.
जांच और संतुलन सुनिश्चित करना
प्रगतिशील दृष्टिकोण के रूप में मैं अधिक उदार छूट नीतियों का समर्थन करते हुए प्रतिशोधात्मक न्याय के स्थान पर पुनर्स्थापनात्मक न्याय की वकालत करती हूं, लेकिन मुझे जांच और संतुलन की एक मजबूत प्रणाली के महत्व पर जोर देना भी ज़रूरी लगता है. इस विशेष उदाहरण में आकलन करने के लिए संपूर्ण प्रक्रिया का अभाव प्रतीत होता है कि क्या दोषियों ने वास्तव में खुद को मुक्त कर लिया है और वो दी गई छूट के योग्य हैं.
मुझे यह बेहद परेशान करने वाला लगता है कि गुजरात सरकार यह मानती है कि कुछ “अच्छे व्यवहार” और जेल में समय बिताने का मतलब है कि इन लोगों ने खुद को सुधार लिया है.
इस स्थिति का एक और चिंताजनक पहलू विभाजन पैदा करने की इसकी क्षमता है. गुजरात सरकार का फैसला इस तथ्य से प्रभावित हो सकता है कि दोषी उनके मतदाता आधार के लिए महत्वपूर्ण समुदाय से हैं. इसके विपरीत, उम्मीद यह है कि महाराष्ट्र सरकार अधिक निष्पक्ष फैसला लेगी, यह देखते हुए कि दोषी उनके मतदाता जनसांख्यिकीय का महत्वपूर्ण हिस्सा नहीं हैं. गौरतलब है कि दोनों राज्यों में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) सत्ता में है.
वर्तमान परिदृश्य तुष्टीकरण की राजनीति की एक परिचित प्रवृत्ति को रेखांकित करता है. समय आ गया है कि राजनीतिक दल ऐसी पहचान-आधारित रणनीतियों से आगे बढ़ें. खासकर अगर वो वास्तव में भारत और उसके लोगों की भलाई को प्राथमिकता देते हैं. उभरता परिदृश्य राष्ट्रीय कल्याण के प्रति व्यापक प्रतिबद्धता में निहित नीतियों और फैसलों की ओर बदलाव की मांग करता है, न कि विशिष्ट जनसांख्यिकीय या पहचान समूहों के प्रति.
इसके अतिरिक्त, चाहे कितने भी कानून और नियम क्यों न हों, सच्ची प्रगति तब तक अस्पष्ट रहेगी जब तक हम एक सामाजिक परिवर्तन नहीं देख लेते. इस धारणा को मिटाना ज़रूरी है कि महिलाएं केवल संपत्ति हैं और सांप्रदायिक शत्रुता में निहित दंडों से उनकी स्वतंत्रता सुनिश्चित करना है. वास्तविक समाधान तभी साकार होगा जब महिलाओं के लिए न्याय की खोज सभी समुदायों में एक अटूट प्राथमिकता बन जाएगी और एक ऐसा वातावरण तैयार किया जाएगा जो उनके लिए सुरक्षा और सम्मान सुनिश्चित करेगा.
हालांकि, इसे हासिल करने के लिए पहले कदम में ऐसे व्यक्तियों की पहचान करना शामिल है जो अपने समुदाय से बदला लेने के लिए महिलाओं को दंडित करते हैं. यह मानसिकता सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों को पितृसत्ता के साथ जोड़ती है, जिससे एक विषाक्त संयोजन कायम होता है. इसका एक ज्वलंत उदाहरण 1992 का अजमेर बलात्कार मामला है, जिसमें 500 से अधिक युवतियों के साथ सिलसिलेवार सामूहिक बलात्कार और ब्लैकमेलिंग शामिल थी. जब मामले का विवरण सामने आया, तो पता चला कि अधिकांश आरोपी मुस्लिम थे और कई पीड़ित हिंदू थे, तो अजमेर में हंगामा मच गया. यह मामला उस मानसिकता का दुखद उदाहरण पेश करता है, जहां दूसरे समुदाय की महिलाएं जानबूझकर निशाना बनती हैं. इस तरह के गहरे पूर्वाग्रहों को पहचानना और इस पर बात करना ऐसे समाज के निर्माण के लिए सर्वोपरि है जहां सभी महिलाओं की भलाई और गरिमा को महत्व दिया जाता है.
परेशान करने वाली घटना व्यापक है, यहां तक कि वैचारिक शिविरों से परे, सोशल मीडिया के दायरे तक भी फैली हुई है. विरोधी पक्षों की महिलाओं को इन प्लेटफार्मों पर अपने विचार व्यक्त करने पर अक्सर स्त्री-द्वेषी दुर्व्यवहार और यौन हिंसा की धमकियों का सामना करना पड़ता है. यह केवल चुनौती की व्यापक प्रकृति पर जोर देता है.
(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वे ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक वीकली यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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