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Wednesday, 8 May, 2024
होममत-विमतबिलावल भुट्टो खुद को भारत-विरोधी देशभक्त के रूप में पेश करना चाहते हैं, जिसकी पाक सेना को दरकार है

बिलावल भुट्टो खुद को भारत-विरोधी देशभक्त के रूप में पेश करना चाहते हैं, जिसकी पाक सेना को दरकार है

अपने नाना जुल्फिकार अली भुट्टो की तरह बिलावल भी सियासी सीढ़ियां चढ़ने के लिए राष्ट्रवाद पर दांव लगा रहे हैं और सैन्य जनरलों का भरोसा जीतने की कोशिशों में जुटे हैं. उनकी इस रणनीति से मुल्क पर सेना की पकड़ और मजबूत ही होगी.

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भारतीय फौज की पांच ब्रिगेड ने ढाका में पाकिस्तान की सैन्य चौकी को घेर लिया, और इससे तिलमिलाए पाकिस्तान के तत्कालीन विदेश मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने अपने नोट्स फाड़ते हुए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बैठक बीच में ही छोड़ दी. उन्होंने एकदम चीखते हुए कहा, ‘आक्रामकता को जायज ठहराइए, अवैध कब्जे को जायज ठहराइए-मैं इसमें कोई पक्ष नहीं बनूंगा.’ जुल्फिकार ने कहा, ‘मैं अपने मुल्क के एक हिस्से के अपमानजनक आत्मसमर्पण का हिस्सा नहीं बनूंगा. आप अपनी सुरक्षा परिषद अपने पास रखें. मैं तबाह हो चुके पाकिस्तान में लौटना पसंद करूंगा. हम लड़ना जारी रखेंगे.’

इसके बाद, पाकिस्तान के भावी प्रधानमंत्री ने न्यूयॉर्क के सेंट्रल पार्क के किनारे स्थित पियरे होटल में युद्ध से पीछे हटने पर सहमति जता दी. और कुछ ही पलों में देश की सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया.

बाद में, जुल्फिकार ने एक साक्षात्कारकर्ता को बताया कि उन्हें उनकी बेटी (बेनजीर) का फोन आया था, जो उस समय हार्वर्ड में पढ़ रही थीं. जुल्फिकार के मुताबिक, उन्होंने बेनजीर से कहा, ‘मैं तिलमिलाकर बाहर नहीं निकला. मैं चुपचाप बाहर चला आया. वहां चल रहा तमाशा बर्दाश्त के बाहर था.’ बेनजीर आगे चलकर खुद पाकिस्तान में प्रधानमंत्री पद पर काबिज हुईं.

नाना की विरासत संभालता नाती

ऐसे कम ही राजनेता हैं जिन्हें सेना की हार का खामियाजा न भुगतना पड़ा हो. हालांकि, भारत के खिलाफ दो युद्धों के दौरान सैन्य नेतृत्व के साथ संयम से काम करते हुए जुल्फिकार सियासत में अपना सिक्का जमाने में कामयाब रहे और प्रधानमंत्री पद तक का सफर भी तय कर पाए. जुल्फिकार के सुरक्षा परिषद में अपने तेवर दिखाने के 51 साल बाद उनके नाती, बेनजीर के बेटे और पाकिस्तान के मौजूदा विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो-जरदारी यह संकेत दे रहे हैं कि वह अपने परिवार की सियासी विरासत को आगे बढ़ाने में सक्षम हैं.

यहां तक कि बिलावल का वह संबोधन, जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर ‘गुजरात का कसाई’ होने का आरोप लगाया था, भले ही भारत पर निशाना साधता नजर आता हो, लेकिन इसके पीछे उनका असल लक्ष्य खुद अपना मुल्क माना जा रहा है.

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पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज (पीएमएल-एन), जो बिलावल की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) के साथ गठबंधन में मुल्क पर हुकूमत कर रही है, ने कारगिल युद्ध से दोनों देशों के रिश्तों में आई तल्खी को दूर करने की कोशिशों के तहत मोदी के साथ दोस्ताना संबंधों के बीज बोने की कोशिश की थी. नवाज अपने परिवार की एक शादी में मोदी की ओर से भेंट की गई पगड़ी पहने दिखाई दिए थे, जिसे दोनों नेताओं के बीच करीबी व्यक्तिगत संबंधों का संकेत माना गया था.

भारत के खुफिया अधिकारियों का कहना है कि पाकिस्तान के नए सेना प्रमुख जनरल सैयद असीम मुनीर ने हाल में जब अग्रिम सैन्य चौकियों का दौरा किया, तब उन्हें जूनियर अधिकारियों के बीच अपदस्थ प्रधानमंत्री इमरान खान के लिए जबरदस्त समर्थन देखने को मिला.

जनरल मुनीर ने भले ही स्पष्ट कर दिया है कि वह सत्ता में इमरान की वापसी का समर्थन नहीं करेंगे-जिसका संकेत सोशल मीडिया पर जारी पूर्व प्रधानमंत्री से जुड़े कथित सेक्स टेप से मिलता है-लेकिन वह यह भी जानते हैं कि मुल्क में गहराते वित्तीय संकट के बीच प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ की सरकार लड़खड़ा रही है.

शहबाज को प्रधानमंत्री पद से हटाना सैन्य नेतृत्व के लिए कोई समस्या नहीं होगा, लेकिन इससे नवाज और उनकी बेटी मरियम नवाज शरीफ के एक बार फिर सत्ता में आने का जोखिम रहेगा. नवाज के तख्तापलट के पीछे सुरक्षा नीतियों को लेकर सेना से उनके टकराव और भारत से रिश्तों के प्रति उनके रुख को जिम्मेदार ठहराया जाता है. सेना अपने पूर्व प्रमुख जनरल परवेज मुशर्रफ को जेल भेजने की नवाज की कोशिशों को भी भुला नहीं पाई है.

इसका मतलब यह है कि देश का नेतृत्व करने के लिए एक नए दावेदार की दरकार हो सकती है और बिलावल, अपने नाना की तरह ही खुद को सेना की जरूरतों पर खरा उतरने वाले राजनेता के रूप में स्थापित कर रहे हैं.


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हजार साल चलने वाला युद्ध

गौरतलब है कि जब भारतीय सेना के जवान लाहौर में किलोमीटर अंदर तक चले गए थे, तब जुल्फिकार ने सुरक्षा परिषद में एक और जोशीला भाषण दिया था. सितंबर 1965 में विदेश मंत्री ने ऐलान कर दिया था, ‘हम हजार साल तक चलने वाला युद्ध छेड़ेंगे. पाकिस्तान के सौ मिलियन लोग अपने सिद्धांतों से पीछे हटने के बजाये तबाह हो जाना पसंद करेंगे.’ बॉयोग्राफर स्टेनली वोलपर्ट ने दर्ज किया है कि भाषण ने पाकिस्तानी नागरिकों में नई जान फूंक दी, ‘जो जानते थे कि वे युद्ध हार गए है, लेकिन वायरलेस रेडियो से आती आवाज ने उनमें कभी जीत हासिल करने का सपना जगा दिया था.’

जुल्फिकार एक लोकतंत्र समर्थक कट्टरपंथी के तौर पर उभरे थे. आमतौर पर 1965 और 1971 के युद्धों के पीछे राजनेताओं की भूमिका को नजरअंदाज किया जाता है.

पाकिस्तान में एक उदार लोकतंत्र विकसित होने की उम्मीदें खत्म कर देने वाले 1958 के तख्तापलट को जुल्फिकार की स्वीकृति हासिल थी. उस समय उन्होंने तर्क दिया था 1956-1957 में प्रधानमंत्री रहे पूर्वी पाकिस्तान के राजनेता हुसैन सुहरावर्दी जैसे नेताओं ने ‘लोगों की नियति के साथ खिलवाड़ किया और कहर बरपाया.’ राजनीतिक अराजकता का मतलब है ‘व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए क्रांति की जरूरत है.’

जुल्फिकार की सलाह पर खुद को एक पांच सितारा मानद पद फील्ड मार्शल पर पदोन्नत करते हुए जनरल अयूब ने तथाकथित बुनियादी लोकतंत्र की एक प्रणाली की स्थापना की, जिसने मताधिकार को केवल 80,000 नागरिकों तक सीमित कर दिया. जुल्फिकार को इस पर अमल के प्रभारी मंत्री पद की जिम्मेदारी मिली और उन्होंने शासन के सबसे बड़े सत्तावादी कदम का बचाव किया. सुहरावर्दी सहित शीर्ष राजनेताओं की कैद ने पूर्वी पाकिस्तान में दंगे भड़काए और बांग्लादेश मूवमेंट की नींव रखी. जुल्फिकार ने सेना की कार्रवाई का समर्थन किया.

जुल्फिकार ने ही 1965 में फील्ड मार्शल को खुफिया सैनिकों का इस्तेमाल करते हुए कश्मीर में जंग लड़ने के लिए तैयार करने में अहम भूमिका निभाई, और यह तर्क दिया कि भारत पारंपरिक बलों के साथ मैदानी इलाकों में जवाबी कार्रवाई नहीं करेगा. जुल्फिकार ने कहा, ‘कश्मीर में इस अभियान की सफलता पाकिस्तान के इतिहास में एक निर्णायक मोड़ साबित होगी. हमें असम में नगाओं और लुशाइयों और पंजाब में सिखों को भड़काने के हरसंभव प्रयास करने चाहिए.’

उनकी दलीलों ने अयूब के पूर्वाग्रह को बढ़ावा दिया. फील्ड मार्शल ने अपने सेना प्रमुख जनरल मोहम्मद मूसा को दिए निर्देशों में यह भी कहा कि ‘एक आम धारणा है कि अगर सही जगह पर और सही समय पर कड़ा प्रहार किया जाए तो हिंदुओं का मनोबल ज्यादा देर टिकता नहीं है.’ 1965 के युद्ध की योजना वैचारिक तौर पर बहुत मजबूती न होने को लेकर सेना प्रमुख की तरफ से जताई जाने वाली तमाम आशंकाओं को दरकिनार कर दिया गया.

जब सैन्य अभियान नाकाम हो गया तो जुल्फिकार ने जोर देकर कहा कि भारत की सफल जवाबी कार्रवाई को ‘अमेरिका से मिल रहे समर्थन के अलावा कुछ और नहीं माना जा सकता.’ राजनेता के बयान के संदर्भ में एक टॉप-सीक्रेट मिनट में रिकॉर्ड है, ‘मौजूदा परिस्थितियों में भारत के साथ अमेरिका की मिलीभगत की निंदा करना अनिवार्य है.’

अयूब खान ने बाद में मुमताज भुट्टो को चेताया, ‘आपका कजिन एक मामन है.’ ‘उसका पीछा मत करो!’ लेकिन उन्हें यह बात समझने में थोड़ी देर हो गई और फील्ड मार्शल का आश्रित अपने ही तख्तापलट की योजना में घिर चुका था.

1966 की गर्मियों के अंत में जुल्फिकार को उनके दफ्तर से बाहर कर दिया गया, और फिर कैद कर लिया गया. उन्होंने इस दौरान अपने ऊपर अत्याचारों को याद करते हुए कहा था, ‘मैं चूहों और मच्छरों से भरी एक पुरानी कोठरी में कैद था, और चारपाई एक जंजीर से बंधी हुई थी.’ फिर क्या था, जुल्फिकार की पीड़ा ने उन्हें उन लोगों के लिए एक नायक बना दिया, जो सैन्य शासन से हताश हो चुके थे.

पूर्वी पाकिस्तान का संकट

अयूब पर विश्वासघात का आरोप लगाकर अपने राष्ट्रवादी बयानों के बलबूते लोकप्रियता हासिल करने वाले जुल्फिकार ने 1970 का चुनाव लड़ा तो माओ टोपी और हरे रंग की जैकेट उनकी पहचान बन गई थी, इसने पाकिस्तान को बचाने के नाम पर इस्लाम और समाजवाद को एक नई मसीहाई विचारधारा में बदल दिया. रूढ़िवादी मौलवियों की तरफ से आलोचना झेल रहे जुल्फिकार ने कसम खाई, ‘हम न केवल पाकिस्तान बल्कि दुनिया में जहां कहीं भी जरूर होगी, इस्लाम के लिए जिहाद छेड़ेंगे. अगर भारत में मुस्लिमों का खून बेरहमी से बहाया जा रहा है तो आप सिर्फ हाथ बांधे देखते नहीं रह सकते.’

फील्ड मार्शल अयूब खान का तख्तापलट हो जाने के बाद जनरल याह्या खान ने उनकी जगह ले ली थी. नए सैन्य शासक ने स्वतंत्र चुनाव का वादा किया. जनरल याह्या खान ने एक बैठक में कहा, ‘मैं देश को लोकतंत्र की पटरी पर वापस लाने के लिए उत्सुक हूं. क्योंकि मैं खुद अपनी असीमित शक्तियों से डरता हूं.’

हालांकि, स्वतंत्र चुनाव का मतलब था राजनीतिक शक्ति संख्याबल के लिहाज से बड़े पूर्वी पाकिस्तान के पास निहित होना—और 1970 में शेख मुजीबुर रहमान की अवामी लीग ने 160 सीटें जीतीं जबकि जुल्फिकार की पार्टी को महज 81 सीटें मिलीं. हालांकि जुल्फिकार ने सत्ता छोड़ने से इनकार कर दिया और ऐसी संघीय व्यवस्था पर जोर दिया जो उन्हें पश्चिमी पाकिस्तान का प्रधानमंत्री बना दे. जनरल ने यह कहते हुए इसका विरोध किया कि जुल्फिकार जो व्यवस्था चाहते हैं, उससे पश्चिम का हर प्रांत संघीय विघटन पर जोर देने लगेगा.

हालांकि, जुल्फिकार ने सत्ता मुजीब के हाथों में न जाने देने के लिए देश के विघटन के जनरल के डर को हवा दी. यही नहीं, जब पूर्वी पाकिस्तान में हिंसक प्रदर्शन बढ़ रहे थे, और भारत के साथ भी जंग छिड़ी हुई थी, जुल्फिकार को मुजीब विरोधी नेता नुरुल अमीन के अधीन उप-प्रधानमंत्री बनाया गया. तेरह दिनों के लिए, जुल्फिकार एक सैन्य सरकार के अधीन अपने दफ्तर लौटे लेकिन इस बार, उसका कार्यकाल पाकिस्तान के पतन के साथ ही खत्म हो गया.

ढाका हाथ से निकलने के बाद जुल्फिकार ने फिर खुद को एक मसीहा के तौर पर सामने रखा. उन्होंने एक भाषण में कहा, ‘मैं हिमालय से ज्यादा बड़ा हूं. मुझे थोड़ा समय दें.’ भारत के हाथों हार के लिए व्यापक तौर पर याह्या खान के हुस्न और शराबखोरी में डूबे रहने को जिम्मेदार ठहराया गया. लेकिन जुल्फिकार की कमियों को नजरअंदाज कर दिया गया, जिसमें ढाका की वकील हुस्ना शेख के साथ सार्वजनिक स्तर पर छाए संबंध भी शामिल हैं. जुल्फिकार अली भुट्टो महिलाओं पर भद्दी टिप्पणियां करने से भी बाज नहीं आते थे, और स्टेनली वोलपर्ट के मुताबिक, शायद ही कोई जानता होगा कि विजया लक्ष्मी पंडित की बेटी रीता डार भी उनके निशाने पर रहीं.

प्रधानमंत्री बनने का घमंड उनके सिर चढ़कर बोलता था, और इसी का नतीजा था कि विदेशी मेहमानों के सामने उन्होंने जनरल जिया की परेड कराई और उन्हें ‘मेरा मंकी’ कहकर संबोधित किया. लेकिन जैसे ही अर्थव्यवस्था लड़खड़ाने लगी, जुल्फिकार को उनके उसी ‘बंदर’ ने फांसी पर लटका दिया.

अपने नाना जुल्फिकार अली भुट्टो की तरह बिलावल भी सियासी सीढ़ियां चढ़ने के लिए राष्ट्रवाद पर दांव लगा रहे हैं. हालांकि, उनकी इस तरह की रणनीति से मुल्क पर सेना की पकड़ और मजबूत ही होगी.

(लेखक दिप्रिंट में नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. उनका ट्विटर हैंडल @praveenswami हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(अनुवाद: रावी द्विवेदी | संपादन: ऋषभ राज)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)


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