चुनाव आयोग ने अगले कुछ महीनों के अंदर होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव के लिए वहां की मतदाता सूची के सघन पुनरीक्षण (एसआईआर) का जो अभियान चलाया है उसका मुख्यतः विपक्षी नेताओं की ओर से विरोध हो रहा है. उनका मानना है कि इस अभियान का गुप्त मकसद भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को चुनाव में फायदा पहुंचाने के लिए मतदाता सूची से अल्पसंख्यकों के नाम काटना है.
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इसे बंगाली बनाम गैर-बंगाली के मुद्दे में बदल दिया है. उन्हें लगता है कि बिहार में जो होगा उसे जल्दी ही बंगाल में भी लागू किया जाएगा, जहां अगले साल विधानसभा चुनाव होना है. ममता अपनी तृणमूल कांग्रेस पार्टी को चुनाव जिताने के लिए एकजुट मुस्लिम वोटों पर काफी हद तक निर्भर हैं. तेलुगु देसम पार्टी समेत एनडीए का कुछ सहयोगी दल ‘एसआईआर’ अभियान का सीधा विरोध तो नहीं कर रहे हैं, लेकिन इसके मकसद को लेकर चिंता ज़ाहिर कर चुके हैं.
चुनाव आयोग मतदाताओं को अपनी वैधता साबित करने के लिए बेहद कम समय में कई तरह के दस्तावेज़ पेश करने की जो मांग कर रहा है उस पर विचार करने से पहले हमें इससे जुड़ी दोहरी राजनीति को समझना चाहिए. अपने आपमें तो यह अभियान वैध है, क्योंकि यह देखना चुनाव आयोग का ही काम है कि मतदाता सूची में उन्हीं नागरिकों के नाम शामिल हो जिन्हें मताधिकार प्राप्त है और जो भारत के नागरिक नहीं हैं उनका नाम सूची में न रहे. इस जांच प्रक्रिया में जो हड़बड़ी बरती जा रही है उस पर आपत्ति की जा सकती है, लेकिन ‘एसआईआर’ पर आपत्ति की कोई वजह नहीं हो सकती.
इसलिए, तेलुगु देसम पार्टी जब यह कहती है कि ‘एसआईआर’ को नागरिकता साबित करने की प्रक्रिया न बनाया जाए तब यह तकनीकी तौर पर तो सही है, लेकिन असल में नहीं. चुनाव आयोग नागरिकता का फैसला नहीं कर सकता, लेकिन उसे यह जानने का अधिकार है कि मतदाता सूची में जिसका नाम है वह भारत का नागरिक है या नहीं.
विपक्ष की बदनीयती
चुनाव कह रहा है कि 25 जुलाई तक 99.8 फीसदी मतदाताओं को ‘एसआईआर’ में शामिल कर लिया गया है, केवल 1.2 लाख मतदाताओं ने अपने फॉर्म/दस्तावेज़ नहीं दाखिल करवाए हैं. यह संख्या अनुपात के लिहाज़ से बहुत छोटी है. चिंता की बात यह हो सकती है कि वर्तमान मतदाता सूची से करीब 64-65 लाख नाम कट सकते हैं, जो कि कुल मतदाताओं के करीब 9 फीसदी के बराबर होंगे, लेकिन चुनाव आयोग के आंकड़े यही बताते हैं कि अगर इन लोगों ने अपनी नागरिकता का प्रमाण नहीं दिया तब उनके नाम काटेंगे.
मतदाता सूची के प्रारूप में से जो नाम काटेंगे उनमें 22 लाख की मृत्यु हो चुकी है, 35 लाख प्रदेश से लगभग स्थायी रूप से बाहर बसे प्रवासी हैं और बाकी 7 लाख नाम ऐसे हैं जो कई राज्यों की मतदाता सूचियों में भी दर्ज हैं. राज्य में चुनाव लड़ने वाले सभी संभावित दलों को सूची से निकाले जा सकने वाले नामों की सूची दी गई है और 1 अगस्त तक अपनी आपत्तियां दर्ज करने का समय दिया गया है. इन सबमें कुछ भी अनुचित नहीं नज़र आता, सिवा बहुत कम समय सीमा के.
विपक्ष अगर ‘एसआईआर’ के मुद्दे पर चुनाव का बहिष्कार करता है, तब उसका फैसला बदनीयती से भरा माना जाएगा. कोई भी यह नहीं दावा कर सकता कि जो बिहार से बाहर रहते हैं उनके नाम बिहार की मतदाता सूची में होने चाहिए, या मृत नागरिकों के नाम पर फर्ज़ी लोग मतदान करें या जिनके नाम दूसरे राज्यों की मतदाता सूची में दर्ज हैं उन्हें बिहार में भी मतदान करने दिया जाए, बशर्ते उन्होंने अपना नाम दूसरे राज्य की मतदाता सूची से कटवा दिया हो.
कोई भी राजनीतिक दल इसे कबूल नहीं करेगा, लेकिन हर दल चाहता है कि उसके समर्थक मतदाताओं के नाम न कटें. उन्हें दूसरों के नाम कटने से कोई फर्क नहीं पड़ता. बिहार और पश्चिम बंगाल में मुस्लिम वोटों पर बुरी तरह निर्भर विपक्षी दल नहीं चाहेंगे कि हमारी मतदाता सूची में जिन बांग्लादेशी नागरिकों के नाम दर्ज दर्ज हो गए उनके नाम कट जाएं. दूसरी ओर, पश्चिम बंगाल में भाजपा नहीं चाहेगी कि बांग्लादेश के हिंदू नागरिकों के नामों की जांच हो, हालांकि, उनमें से कई लोग बांग्लादेश में प्रतारणा के कारण पश्चिम बंगाल में रह रहे हों.
चूंकि, सभी गैर-एनडीए दल बिहार में ‘एसआईआर’ को रद्द करने की एकजुट होकर मांग कर रहे हैं इसलिए यह माना जा सकता है कि अपना वोट बैंक खोने का डर उन्हें सबसे ज्यादा है. ‘एसआईआर’ के खिलाफ दो तर्क दिए जाते हैं. एक यह कि मतदाताओं को बेहद कम समय दिया गया और आधार कार्ड जैसे व्यापक रूप से उपलब्ध जैसे दस्तावेज़ को मान्यता नहीं दी जा रही है. दूसरे, केवल इस संदेह के आधार पर इतने सारे मतदाताओं का नाम काट देना कि वे भारतीय नागरिक नहीं हो सकते हैं, बिल्कुल आलोकतांत्रिक कार्रवाई है.
बेहद कम समय देने के खिलाफ शिकायत तो जायज़ है, लेकिन यही शिकायत जब ममता बनर्जी करती हैं तब यह तर्क कमज़ोर पड़ने लगता है क्योंकि उन्हें अपने राज्य की विधानसभा का चुनाव अगले साल लड़ना है, जहां तक आधार कार्ड को मान्यता न देने का मामला है, इसे नागरिकता का प्रमाणपत्र बनाने के बारे में कभी नहीं सोचा गया था. चुनाव आयोग ने अपना काम वहां लगभग पूरा कर लिया लगता है, और ज़रूरत पड़ी तो वह राजनीतिक दलों को नाम काटे जाने के खिलाफ आपत्तियां दर्ज करने के लिए एक-दो हफ्ते का और समय दे सकता है.
दूसरा तर्क तो मूलतः गलत है, क्योंकि यह देखना चुनाव आयोग का ही काम है कि कोई गैर नागरिक व्यक्ति भारत में मतदान न कर पाए. जब तक योग्य मतदाता का नाम नहीं काटा जाता, उसे पर दोष नहीं मढ़ा जा सकता. योग्य मतदाता का नाम नहीं कटे, इसके लिए सभी दलों को मौका दिया गया है कि वे उन नामों को दोबारा शामिल करवाएं जिनका नाम उन्हें अनुचित रूप से काटा गया लगता है. 1 अगस्त को मतदाता सूची का प्रारूप जारी होने के बाद भी मतदाताओं को भूल सुधार करवाने के लिए इस महीने के अंत तक समय दिया गया है.
यह भी ध्यान में रखा जाए कि मतदाता सूची बिल्कुल शुद्ध नहीं हो सकती क्योंकि चुनाव आयोग के पास इतने पूर्णकालिक कर्मचारी नहीं होते कि वह सभी राज्यों की सूचियों को साल भर अपडेट करता रहे. उसका काम आम चुनाव या विधानसभा चुनाव से कुछ महीने पहले शुरू होता है और उसका अधिकतर काम उसके कुल निर्देश में राज्यों के अधिकारी पूरा करते हैं. अधिकतर राज्य चुनाव से एक साल पहले अपने कर्मचारियों को मुक्त नहीं करते कि वे अयोग्य मतदाताओं की जांच करें और नये मतदाताओं के नाम शामिल करते रहें.
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बांग्लादेशी, पाकिस्तानी नागरिकों का मामला
सच यह है कि केवल ‘एसआईआर’ ही नहीं, लगातार अपडेट किया जाने वाला राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) भी इतनी ही वैध प्रक्रिया होगी, लेकिन असम के एनआरसी के मामले से स्पष्ट हुआ कि इस प्रक्रिया के तहत बांग्लादेश या पाकिस्तान में प्रतिड़ित किए जाने के कारण भागे हिंदुओं के नाम मतदाता सूची से काटे जाएंगे और उन्हें नागरिकता के अधिकार भी नहीं मिलेंगे. असम में एनआरसी के लिए नागरिकता तय करने में दस्तावेजों के अलावा वंशावली का भी इस्तेमाल किया गया.
‘एसआईआर’ और ‘एनआरसी’ की सियासत से दो अलग सवाल जुड़े हैं. एक नागरिकता और मताधिकार की पात्रता से संबंधित है; दूसरा, अनकहा पूर्वी सीमा से लगे पश्चिम बंगाल, असम, झारखंड, और बिहार जैसे राज्यों की जनसंख्या के स्वरूप से उभरी चुनौती से जुड़ा है जिसे बांग्लादेश से आए मुसलमानों और हिंदुओं द्वारा खामोशी से निबटा दिया गया है. भाजपा का नज़रिया, जिससे मैं सहमत हूं, यह है कि बांग्लादेश में प्रताड़ित किए गए घुसपैठियों और केवल रोजी-रोटी के लिए आए घुसपैठियों के साथ हम एक जैसा व्यवहार नहीं कर सकते.
मोदी सरकार ने इस फर्क को नागरिकता संशोधन एक्ट-2019 के जरिए आंशिक तौर पर रेखांकित करने की कोशिश की, लेकिन पाकिस्तान, बांग्लादेश, और अफगानिस्तान से आए योग्य अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने के लिए कट-ऑफ तारीख 31 दिसंबर 2014 रखी गई उसने इस पूरी प्रक्रिया को के लिए को न्यूनतापरक बना दिया. यह राजनीतिक संदेश देने के लिए उपयोगी था, लेकिन आज भी प्रताड़ना से बचकर भागने को तैयार लाखों बांग्लादेशी अल्पसंख्यकों को इससे कोई वास्तविक मदद नहीं मिलती.
भाजपा के लिए एकमात्र तार्किक उपाय यही है कि वह पाकिस्तान और बांग्लादेश के हिंदुओं और अल्पसंख्यकों के लिए ‘वापसी के अधिकार’ का कानून बनाए, जैसा कि इज़रायल ने देश के बाहर रह रहे यहूदियों के लिए बनाया था. भारत के मामले में, इसका मतलब होगा अपने पड़ोसी देशों के अल्पसंख्यकों को भारत में आने और उसकी नागरिकता तुरंत हासिल करने के अधिकार की पेशकश करना. पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर अत्याचार जारी है और वो हिंदुओं को मुसलमानों के समान अधिकार नहीं देना चाहते. बांग्लादेश में हिंदुओं की आबादी 1951 में 22 फीसदी से घटकर पिछली जनगणना के मुताबिक, 8 फीसदी हो गई तो इस गिरावट के लिए उन पर ज़ोर-ज़बरदस्ती तथा धमकी के जरिए निरंतर जातीय सफाए के सिवा और किसी बात को दोषी नहीं माना जा सकता.
जनसंख्या के स्वरूप को लेकर चुनौती खासकर भारत के पूर्वी और उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में ज्यादा गंभीर है, जहां कई जिलों में मुसलमान बहुसंख्यक हो गए हैं और दूसरे जिलों में भी उनकी आबादी निरंतर बढ़ रही है.
इसी वजह से असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने साफ कहा कि असली मसला क्या है. पिछले कुछ दिनों से उन्होंने एक्स पर दिए अपने पोस्ट में ऐसे बयान दिए हैं जैसे किसी नेता ने पहले देने की हिम्मत नहीं की.
वकील संजय हेगड़े ने कहा है कि सभी बंगाली मुसलमान को बांग्लादेशी मुसलमान के बराबर मानना गलत है. उन्होंने लिखा: “असम में हर बांग्लाभाषी मुसलमान बागलादेशी नहीं है. असम और अविभाजित बंगाल का इतिहास और भूगोल इतना जटिल है कि इस तरह का लापरवाही भरा सोच नहीं चल सकता.”
सरमा ने राजनीतिक बयानबाजी से बचते हुए इसका साफ जवाब दिया. उन्होंने हेगड़े की इस बात से सहमति जाहिर की मसला काफी पेचीदा है, लेकिन समस्या की पहचान बड़ी सफाई से की कि असली समस्या है: धार्मिक आबादी के स्वरूप में निरंतर बदलाव. उन्होंने एक्स पर लिखा: “कानूनन वो सब विदेशी नहीं होंगे, लेकिन असम के हम लोग, खासकर हिंदू लोग अपनी ही ज़मीन पर बेचारे अल्पसंख्यक बनते जा रहे हैं. यह सब पिछले 60 वर्षों में ही हुआ है. हम अपनी संस्कृति, अपनी जमीन, अपने मंदिर खो चुके हैं. कानून कोई समाधान नहीं दे रहा है. इसलिए हम हताश हैं, बदला लेने के लिए नहीं बल्कि अपने अस्तित्व के लिए. हां, हो सकता है कि हम हारती हुई लड़ाई लड़ रहे हैं, लेकिन हम अपने असम की आत्मा के लिए शान के साथ और कानून के दायरे में रहकर लड़ते हुए हारेंगे. हमें रोकिए मत. बस हमें अपने हक के लिए लड़ने से मत रोकिए. क्योंकि यह अपने अस्तित्व की रक्षा की हमारी आखिरी लड़ाई है.”
अब तक किसी विपक्षी नेता ने सबूतों के साथ सरमा का खंडन नहीं किया है.
ममता बनर्जी ने इस मसले को बंगाली बनाम गैर-बंगाली मुद्दे में बदलने की जो कोशिश की उसका सरमा ने और साहसिक जवाब दिया: “दीदी, आपको याद दिलाना चाहता हूं. असम में हम अपने लोगों से नहीं लड़ रहे हैं. सीमा पार से मुसलमानों की जो अनियंत्रित घुसपैठ जारी है, उसके खिलाफ हम लड़ रहे हैं. इसने जनसंख्या के स्वरूप में खतरनाक बदलाव ला दिया है. कई जिलों में हिंदू समुदाय अपने ही देश में अल्पसंख्यक बनने के कगार पर है. यह कोई सियासी कथा नहीं है, एक हकीकत है. भारत के सुप्रीम कोर्ट तक ने इस घुसपैठ को बाहरी हमला बताया है. फिर भी, जब हम अपने देश, अपनी संस्कृति और अपनी पहचान की रक्षा के लिए खड़े होते हैं तब आप इसका राजनीतिकरण करने लगती हैं.”
इसे साहस कह सकते हैं, लेकिन संवैधानिक स्पष्टता की ज़रूरत है और यह तभी आएगी जब हमारे पड़ोस में प्रताड़ित हो रहे अल्पसंख्यकों को भारत में आने और कानूनी तौर पर बसने का अधिकार दिया जाएगा. आदर्श स्थिति तो यह होगी कि यह प्रक्रिया सुचिंतित एनआरसी के जरिए हो, केवल ‘एसआईआर’ के जरिए नहीं, लेकिन दोनों प्रक्रियाएं वैध हैं. राजनीतिक तनाव पश्चिम बंगाल और असम में अगले साल होने वाले चुनावों के दौरान फैल सकता है.
सवाल यह है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों को भारत आने का कानूनी अधिकार दे भी दिया गया तब भी उनका, खासकर उन मुसलमानों का क्या होगा जो अवैध प्रवासी के रूप में पहचाने जाएंगे? क्या बांग्लादेश उन्हें वापस लेने को तैयार होगा, जबकि वह तो इस समस्या को स्वीकार करने से ही कतराता रहा है? कोई बंगाली शख्स भारतीय है या बांग्लादेशी, इसका साफ फैसला ढाका के सहयोग से ही हो सकता है. वर्तमान स्थिति में जबकि इस्लाम परस्तों के समर्थन से चल रही मोहम्मद यूनुस की अंतरिम सरकार भारत के प्रति अंदर से दुश्मनी का भाव रखती है, इस तरह के सहयोग की संभावना न के बराबर दिखती है. ऐसे अवैध प्रवासियों को मताधिकार से वंचित करके रोज़गार का अधिकार दिया जा सकता है. रोज़गार का अधिकार भी अनिश्चित काल के लिए नहीं बल्कि अंतरिम उपाय के रूप में दिया जा सकता है ताकि भारत को उनकी पहचान के साथ ही अ-नागरिकों को तुरंत न बहिष्कृत करना पड़े. यह ज्यादा मानवीयतापूर्ण होगा.
इसके साथ ही, हम तकनीक का इस्तेमाल करके यह पता लगा सकते हैं कि कोई व्यक्ति भारतीय है या नहीं. एआई और क्षेत्रीय बोली के आधार पर पता लगाया जा सकता है कि वह भारत के किसी जिले का है या बांग्लादेश के किसी जिले का. हम उन बांग्लादेशी मुसलमानों को हमारे सीमावर्ती राज्यों की जनसंख्या के स्वरूप को बदलने की इज़ाज़त नहीं दे सकते जिन्हें अपने देश में प्रताड़ित नहीं किया गया है. वैसे, मोहम्मद यूनुस के करीबी सूत्र ‘ग्रेटर बांग्लादेश’ की बातें कर रहे हैं जिसमें भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों को समाहित किया जाएगा. यूनुस खुद कह चुके हैं कि भारत के उत्तर-पूर्व की चाबी तो बांग्लादेश के ही हाथ में है.
इसलिए, ‘एसआईआर’ कोई गैर-ज़रूरी प्रक्रिया तो नहीं ही है, बल्कि इसे हर विधानसभा चुनाव और आम चुनाव से पहले चलाया जाना चाहिए. चुनाव आयोग अगर पूरी मेहनत से तैयार की गई और निरंतर अपडेट की जाने वाली ‘एनआरसी’ से मदद ले तो बेहतर ही होगा.
कोई भी गंभीर देश अपनी सीमाओं के साथ कोई समझौता नहीं कर सकता और न अपात्र विदेशियों को अपनी घरेलू राजनीति को प्रभावित करने की छूट दे सकता है.
(आर.जगन्नाथन स्वराज्य पत्रिका के संपादकीय निदेशक हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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