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Sunday, 1 December, 2024
होममत-विमतबिहार के कास्ट सर्वे ने दिखाया कि जाति जनगणना संभव है और उपयोगी भी, अब यह पूरे देश में हो

बिहार के कास्ट सर्वे ने दिखाया कि जाति जनगणना संभव है और उपयोगी भी, अब यह पूरे देश में हो

जाति-व्यवस्था के उन्मूलन का बाबासाहेब का सपना साकार करने के लिए जरूरी है कि हम जाति व्यवस्था और जातीय गैर-बराबरी के वजूद से आंखे न मूंदे.

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कहते हैं कि हाथ कंगन को आरसी क्या! और, इसी तर्ज पर कह सकते हैं कि बिहार में हुई ‘जनगणना’ के जरिए आबादी के बारे में जातिवार जो थोड़े से आंकड़े आये हैं वे खुद ही में इस बात के प्रमाण हैं कि अखिल भारतीय स्तर पर जातिवार जनगणना कराना क्यों जरूरी है. मीडिया अगड़ी जातियों की हित-चिन्ता में मानो दुबला हुआ जा रहा कि कहीं पिछड़े तबके के लिए आरक्षण ना बढ़ जाये. सो, उसका ज्यादा ध्यान ये बताने पर रहा कि बिहार में हुई जाति जनगणना के पीछे राजनीतिक मंशा क्या है और इसके दुष्परिणाम क्या हो सकते हैं.

जनगणना से निकलकर आये आंकड़ों की बात मीडिया ने एक किनारे सरका दिया. लेकिन जरा गौर कीजिए कि जो लोग कहते थे कि जाति जनगणना जैसा काम जमीनी तौर पर मुमकिन ही नहीं उन्हें बिहार की जातिगणना के आंकड़ों के प्रकाशन से कैसा मुंहतोड़ जवाब मिला है!

बिहार सरकार ने आंकड़ों की जो पहली किस्त जारी की है उसमें 209 जातियों को सिर्फ सूचीबद्ध किया गया है और इनकी आबादी बतायी गई है. इस आंकड़े को जाति और धर्म की श्रेणियों के हिसाब से भी दिखाया गया है. ज्यादा ठोस जानकारी के लिए हमें आंकड़ों की दूसरी खेप का इंतजार करना होगा. लेकिन फिलहाल इस जनगणना की जितनी तालिकाएं प्रकाशित हैं, वे कई मायनों में हमारी समझ बढ़ाने में मददगार हैं. जो लोग पूछते थे कि ऐसी गिनती का क्या कोई उपयोग भी है, उन्हें बिहार की जाति-जनगणना के प्रकाशित आंकड़ों को देखने पर जरूर जवाब मिल जायेगा.

पहली बात तो ये कि जो काम 2021 की भारत-जनगणना (अभी इसका कोई अता-पता नहीं) को करना चाहिए था, उसे बिहार की जनगणना ने किया है, यानी ये बताया है कि इस सूबे की कुल आबादी कितनी है. साल 2011 की जनगणना के मुताबिक बिहार की आबादी 10.41 करोड़ थी और अनुमान ये लगाया गया था कि 2023 की जुलाई में यह तादाद बढ़कर 12.68 करोड़ हो जाएगी. लेकिन अब हम जानते हैं कि बिहार की आबादी ठीक-ठीक 12.53 करोड़ है. (बिहार सरकार ने जो आंकड़े प्रकाशित किये हैं उसमें बिहार की कुल आबादी 13.07 करोड़ की मानी गई है. इसमें 53.7 लाख आबादी बिहार के बाहर निवास करती है). जाहिर है, यह आंकड़ा ज्यादा चौंकाऊ नहीं है.

दूसरी बात, सर्वेक्षण से तीन बड़ी सामाजिक श्रेणियों—अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा मुस्लिम से संबंधित आंकड़े अद्यतन हुए हैं. अब हमें पता है कि इन सामाजिक श्रेणियों से संबंधित लोगों की तादाद बिहार की आबादी में किस अनुपात में है. साल 2011 की तुलना में अनुसूचित जाति के लोगों की तादाद बिहार की आबादी में 16 प्रतिशत से बढ़कर 19.65 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति की 1.3 प्रतिशत से बढ़कर 1.68 प्रतिशत तथा मुस्लिम की आबादी 16.9 प्रतिशत से बढ़कर 17.7 प्रतिशत हो गई है. इससे पता चलता है कि पिछली जनगणना की तुलना में बिहार की आबादी तथा इस आबादी में अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति के लोगों की तादाद तेजी से बढ़ी है. मुसलमानों के मामले में यह बढ़वार इतनी तेज नहीं है. ये जानकारी नई और उपयोगी है, अगर 2021 की भारत-जनगणना समय पर हो गई होती तो ये जानकारी हासिल की जा सकती थी.

अब तीसरी बात अपने आप में दिलचस्प है. बिहार की जाति-जनगणना से सूबे की कुल आबादी में अन्य पिछड़ा वर्ग की तादाद के बारे में पहली बार ठोस आंकड़े मिले हैं. अब हम ठीक-ठीक जानते हैं कि सूबे की कुल आबादी में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की तादाद 63.14 प्रतिशत है ना कि 52 प्रतिशत जैसा कि राष्ट्रीय स्तर पर किसी किंवदन्ती की तरह दोहराया जाता रहा है. पेशेवर सर्वेयर को यह आंकड़ा बहुत चौंकाऊ नहीं लगेगा. नेशनल सैम्पल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) के 2011-12 के कंज्यूमर एक्सपेंडिचर सर्वे में ओबीसी की तादाद 60 प्रतिशत बताई गई थी और 2019 के ऑल इंडिया डेट एंड इन्वेस्टमेंट सर्वे में ओबीसी की तादाद 59 प्रतिशत बताई गई.

नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस) के पिछले दो दौर के आकलन में ओबीसी की तादाद इससे कहीं ज्यादा कम यानी क्रमशः 54 प्रतिशत और 58 प्रतिशत आंकी गई थी. सीएसडीएस-लोकनीति का 2020 का इलेक्शन-सर्वे इस मामले में ज्यादा सटीक रहा जिसमें बिहार की आबादी में ओबीसी की तादाद 61 प्रतिशत बताई गई.

आम जनता के लिए ये नया आंकड़ा एक गंभीर सवाल पैदा करता है : अगर 15.5 प्रतिशत की तादाद वाली सामान्य-श्रेणी के भीतर एक उप-वर्ग के तौर पर आने वाले आर्थिक रूप से पिछड़े तबके (ईडब्ल्यूएस) को 10 प्रतिशत का आरक्षण दिया जा सकता है तो 63 फीसद की तादाद वाले ओबीसी के लिए आरक्षण को 27 प्रतिशत पर ही क्यों सीमित कर दिया जाये?


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आंकड़ों से झांकती जातिवार तस्वीर

इस सिलसिले की चौथी बात, अब हमें साफ पता चल गया है कि अन्य पिछड़ा वर्ग(ओबीसी) के भीतर के इसके दो उप-वर्गों की तुलनात्मक ताकत कितनी है. सूबे में ओबीसी का ऊपरला तबका यानी ‘बैकवर्डस्’ जिसमें यादव, कुर्मी, कुशवाहा आदि भू-स्वामी जातियां शामिल हैं, 27.12 प्रतिशत की तादाद में हैं. ओबीसी के भीतर निचला, अत्यंत पिछड़ा तबका (ईबीसी) जिसमें शताधिक छोटे-छोटे जाति समूह शामिल हैं और हस्तशिल्प अथवा मेहनत-मजदूरी के अन्य कामों से जुड़े हैं, सूबे में 36.01 प्रतिशत है. ये बात अपेक्षाकृत जानी हुई है और ऐसा दोनों समूहों के लिए जारी क्रमशः 18 प्रतिशत तथा 12 प्रतिशत की आरक्षण-व्यवस्था के अनुरूप ही है. लेकिन, इन वर्गों की ठीक–ठीक तादाद कितनी है, ये जानना अभी शेष है. इससे ईबीसी को बिहार की राजनीति और नीतियों के केंद्र में लाने में मदद मिलेगी.

पांचवीं बात कि जिसे सामान्य-श्रेणी अथवा अनारक्षित-वर्ग कहा जाता है उसकी तादाद सूबे की आबादी में मात्र 15.52 प्रतिशत है. अनुभवी पर्यवेक्षक और सर्वे-रिसर्चर के लिए ये जानकारी बहुत चौंकाऊ नहीं (हालांकि इस वर्ग की तादाद मेरे अपने सर्वे आधारित अनुमान यानी 18-20 प्रतिशत से कम निकली). लेकिन सरकारी स्तर पर आंकड़ों के प्रकाशन से स्थिति साफ हो गई है. ‘सामान्य’ श्रेणी बताकर जिस तबके को एक मानक और बाकी को अपवाद की तरह पेश किया जाता था, उसकी विसंगति जग-जाहिर हो चली है. अब हमें पता चल गया है कि जिसे ‘सामान्य’ बताया जाता है वह तो सूबे की आबादी का एक छोटा-सा हिस्सा भर है. इस श्रेणी में कुछ मुसलमान भी शामिल हैं जो ओबीसी के अंतर्गत नहीं आते.

इस सिलसिले की आखिरी बात ये कि जाति-जनगणना के आंकड़ों के प्रकाशन से सन् 1931 के बाद अब हमें पहली बार पता है कि सूबे में जातिवार लोगों की तादाद कितनी हैं. बिहार की राजनीति पर पारखी नजर रखने वाले पर्यवेक्षकों को इसमें चौंकाने लायक कई बातें मिलेंगी. माना जाता था कि सूबे में ब्राह्मणों तथा राजपूतों की तादाद 5 प्रतिशत अथवा इससे ज्यादा है लेकिन इन जातियों के लोगों की संख्या बिहार में दरअसल क्रमशः 3.67 प्रतिशत और 3.45 प्रतिशत है.

माना जाता था कि भूमिहार जाति के लोगों की तादाद सूबे में 4 से 5 प्रतिशत है लेकिन जाति-जनगणना से अब पता है कि इस जाति के लोगों की संख्या महज 2.89 प्रतिशत है. मतलब, देखा जाये तो अगड़ी जाति यानी सवर्ण हिंदुओं की कुल संख्या (इसमें 0.6 प्रतिशत की संख्या में मौजूद कायस्थों को शामिल करते हुए) सूबे की कुल आबादी का दसवां हिस्सा भर है, ठीक-ठीक कहें तो 10.61 प्रतिशत. साल 1931 के आंकड़े में यह तादाद 15.4 प्रतिशत थी. उसकी तुलना में अभी का आंकड़ा सूबे में सवर्ण आबादी की संख्या में तेज गिरावट की सूचना है. विद्वान और आईआईएम के प्रोफेसर चिन्मय तुम्बे ने अपने अध्ययन में बताया है कि अगड़ी जाति के हिंदुओं की तादाद में गिरावट की एक वजह है निचले तबके की आबादी में बढ़त लेकिन ज्यादा बड़ा कारण है अगड़ी जाति के हिन्दुओं का सूबे से आप्रवासन.

जो समुदाय अपेक्षाकृत सुविधा-सम्पन्न रहे हैं वे धीरे-धीरे बिहार से बाहर चले गये जबकि आबादी का अपेक्षाकृत वंचित तबका सूबे में रहने को मजबूर है. सूबे की कुल आबादी में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा मुस्लिम जन की ऊंचे अनुपात में मौजूदगी की व्याख्या भी इसी तथ्य से हो जाती है.

‘जनगणना’ के आंकड़ों के जातिवार आकलन से ये भी पता चलता है कि ओबीसी के भीतर ऊपरले तबके के लोगों की संख्या कुछ ज्यादा ही मानकर चली जाती थी. यादव जाति के लोगों की संख्या 15 प्रतिशत की मानी जाती थी जबकि इस जाति के लोगों की तादाद सूबे की कुल आबादी में 14.3 प्रतिशत है यानी 1931 की जनगणना में बताये गये 12.7 प्रतिशत से ज्यादा. कुर्मी जाति के लोगों की संख्या 4 प्रतिशत की मानी जाती थी लेकिन अब हमें सरकारी आंकड़ों के सहारे पता है कि इस जाति के लोगों की संख्या सूबे में केवल 2.9 प्रतिशत है जो कि 1931 की जनगणना के आंकड़े (3.3 प्रतिशत) से कम है.

यादवों के बाद सूबे में सबसे बड़े जाति-समूह हैं- रविदासी (5.3 प्रतिशत), दुसाध (5.3 प्रतिशत), कुशवाहा (4.2 प्रतिशत), मुसहर (3.1 प्रतिशत), तेली (2.8 प्रतिशत), मल्लाह (2.6 प्रतिशत), बनिया (2.3 प्रतिशत). इन्हें बिहार में ओबीसी के अंतर्गत रखा गया है. साथ ही इसमें कानू (2.2 प्रतिशत), धानुक (2.1 प्रतिशत), प्रजापति (1.4 प्रतिशत), बढ़ई (1.5 प्रतिशत), कहार (1.6 प्रतिशत) तथा ऐसी ही कुछ और जातियां भी हैं.

जातिवार उभरती यह तस्वीर सिर्फ हिन्दुओं तक सीमित नहीं. बिहार में पहली बार इस जाति-जनगणना के जरिए मुस्लिम समुदाय के लोगों की भी आधिकारिक गिनती हुई है. अब हमें पता है कि मुसलमानों के बीच अशराफ यानी अगड़ी जाति-समुदाय जैसे शेख (3.8 प्रतिशत), सैयद (0.2 प्रतिशत), मलिक (0.1%) तथा पठान (0.7%) सूबे की कुल मुस्लिम आबादी का बस छोटा सा हिस्सा भर हैं. बिहार की मुस्लिम आबादी में तीन चौथाई तादाद ‘पसमांदा’ मुसलमानों की है जिसमें जुलाहा, धुनिया, धोबी, लालबेगी तथा सुरजापुरी जैसी जातियां शामिल हैं. इससे पसमांदा तबके की राजनीति को बढ़ावा मिलेगा. बिहार की आबादी के इस पहलू की तरफ सबसे पहले ध्यान अली अनवर ने अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक “मसावत की जंग’ के सहारे दिलाया था.


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आगे और भी खुलासे होने हैं

अब हमें इंतजार है आंकड़ों की अगली किस्त का. वादा किया गया है कि बिहार विधान-सभा के अगले सत्र तक अगली किश्त के आंकड़े जारी कर दिये जायेंगे. जाति तथा धर्म के अतिरिक्त बिहार के इस आधिकारिक सर्वेक्षण में शिक्षा, पेशा, भू-स्वामित्व, मासिक आमदनी तथा दुपहिया और चार-पहिया वाहनों के स्वामित्व के बारे में जानकारी एकत्र की गई है. मेरे मुताबिक, ये ही जानकारियां इस सर्वेक्षण की सबसे महत्वपूर्ण जानकारियां होने जा रही हैं क्योंकि इनसे पता चलने वाला है कि किस जाति-समूह की सामाजिक-आर्थिक तथा शैक्षिक दशा कितनी पिछड़ी है. ऐसी जानकारी अब से पहले हमारे पास मौजूद नहीं थी.

हमारे पास अभी तक बस कुछ कच्चे आकलन मौजूद हैं. बिहार के पत्रकार श्रीकांत ने सूबे में क्रमागत रूप से बनी विभिन्न विधान-सभाओं तथा मंत्रिमंडलों के जातिवार परिदृश्य का एक व्यवस्थित आंकड़ा जुटाया है. संजय कुमार की किताब ‘पोस्ट मंडल पॉलिटिक्स इन बिहार’ में भी सरकारी तथा गैर सरकारी स्रोतों से जुटाये गये कुछ महत्वपूर्ण आंकड़े दर्ज हैं. मिसाल के लिए, 1985 में बिहार विधान-सभा के 42 प्रतिशत सीटों पर अगड़ी जाति के हिंदुओं का कब्जा था जबकि इस समुदाय के लोगों की संख्या सूबे की कुल आबादी में मात्र 10.6 प्रतिशत है. साल 2020 तक आकर यह तादाद बेशक नीचे आयी है लेकिन अब भी बिहार विधान-सभा की 26 प्रतिशत सीटों पर सवर्ण हिन्दू काबिज हैं यानी आबादी में अपने हिस्से की तुलना में दोगुना ज्यादा. अभी बिहार विधान-सभा में यादव जाति के लोगों की तादाद (21 प्रतिशत) आबादी में उनके अनुपात की तुलना (14 प्रतिशत) में ज्यादा है.

हम जानते हैं कि पांच एकड़ या इससे ज्यादा जमीन की मिल्कियत वाले किसानों की तादाद ओबीसी की तुलना में सामान्य श्रेणी के लोगों में दो गुना है. सामान्य श्रेणी की जातियों में केवल 9.2 प्रतिशत लोग ही खेतिहर मजदूर हैं जबकि ओबीसी तबके में ऐसे लोगों की तादाद 29.4 प्रतिशत है और अनुसूचित जनजाति के लोगों में 42.5 प्रतिशत. शिक्षागत स्थिति में भी बड़ा अंतर नजर आता है: सामान्य-श्रेणी में शामिल जातियों में स्नातक या इससे आगे की पढ़ाई वाले लोगों की संख्या 10.5 प्रतिशत है जबकि ओबीसी में यही तादाद 2.8 प्रतिशत और अनुसूचित जाति में 2.1 प्रतिशत है.

लेकिन उपलब्ध आंकड़े अभी अंश-मात्र ही हैं और ये आंकड़े बहुत बड़े समुदायों से संबंधित हैं. अगली किस्त में जारी होने वाले आंकड़ों से संभवतया हमें पता चलेगा कि बड़ी सामाजिक श्रेणियों के भीतर, खासकर ओबीसी तबके के भीतर लोगों की जातिवार स्थिति कैसी है. जाति-जनगणना के पीछे मुख्य उद्देश्य बस इतना भर बताना नहीं कि सूबे की कुल आबादी में किस समुदाय के लोगों की संख्या कितनी है बल्कि मुख्य मकसद ये बताना है कि प्रत्येक जाति-समूह में सुविधा-सम्पन्न और सुविधा-वंचित लोगों का अनुपात क्या उभरकर सामने आता है.

सामाजिक न्याय की नीति और राजनीति की नोक-पलक सुधारने के लिए ये जानना जरूरी है. इस बात पर तो खैर बहस चलती रहेगी कि किस पार्टी या जाति के लोगों को इस सर्वे का तत्काल फायदा होने जा रहा है. लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि इन आंकड़ों से आगे के दिनों में ईबीसी और पसमांदा तबके को मदद मिलेगी, जबकि इन दो समुदायों में शामिल जातियों के लोगों के सरोकार हमारी आंखों से ओझल चले आ रहे थे.

जाति-व्यवस्था के सफाये का डॉ. आंबेडकर का लक्ष्य जातियों और जातिगत गैर-बराबरी के वजूद से आंखें मूंदे रहने से हासिल नहीं किया जा सकता. जाति-व्यवस्था की सच्चाई को स्वीकार किये बगैर और इस व्यवस्था से पैदा होने वाली गैर-बराबरी की गिनती तथा मापन के बगैर जातिगत गैर-बराबरी को समाप्त नहीं किया जा सकता. चूंकि अब हम जान गये हैं कि ऐसा करना संभव है और उपयोगी तथा वांछित भी, इसलिए बिहार ने जो राह दिखायी है उसपर पूरे देश को चलना चाहिए.

(योगेंद्र यादव जय किसान आंदोलन और स्वराज इंडिया के संस्थापकों में से एक हैं और राजनीतिक विश्लेषक हैं. उनका एक्स हैंडल @_YogendraYadav है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादन : ऋषभ राज)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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