scorecardresearch
Wednesday, 6 November, 2024
होममत-विमतबिहार में का बा- चुनावी वादों से एक-दूसरे को पटखनी देने की जुगत में राजनीतिक दल

बिहार में का बा- चुनावी वादों से एक-दूसरे को पटखनी देने की जुगत में राजनीतिक दल

बिहार में चुनावीमहाभारत का सियासी पर्दा भले ही उठ गया है, मगर कई अहम सवालों के जवाब अनुत्तरित रहने के कारण चुनाव नतीजे का ऊंट इस बार किस करवट बैठेगा. 10 नवंबर तक इंतजार करना होगा.

Text Size:

भोजपुरी रैप- मुंबई में का बा- की तर्ज पर विधानसभा चुनाव से पहले- बिहार में का बा- की धूम है. अलग-अलग माध्यमों से- मुंबई में का बा की- पैरोडी की तर्ज पर राज्य की बदहाल व्यवस्था पर सवाल उठ रहे हैं. बेरोजगारी, अराजकता, प्रवासी मजदूरों का अमानवीय पलायन, चौपट शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था के सवाल शिद्दत से उठाए जा रहे हैं. निशाने पर सिर्फ लालू प्रसाद यादव ही नहीं नीतीश कुमार भी हैं. वह इसलिए कि राज्य में सुशासन बनाम जंगलराज की राजनीति ने अपनी डेढ़-डेढ़ दशक की बराबर पारी खेल ली है. सवाल पूछने वाली मुख्यत: युवा आबादी है. वह युवा आबादी जिसकी मतदाताओं में एक चौथाई की हिस्सेदारी है. ऐसे में कोई कुछ भी दावे कर ले इस बार का बिहार विधानसभा चुनाव दिलचस्प होने वाला है.

इस दिलचस्‍प चुनाव में दोनों पक्षों के अपने-अपने मुद्दों के तीर हैं जिनके सहारे चुनावी अखाड़े के दोनों गठबंधन एक दूसरे को पछाड़ने का दांव चल रहे हैं. मगर यह सवाल बेहद अहम है कि क्‍या केवल मुद्दे ही बिहार चुनाव के नतीजे की दिशा तय करेंगे. मगर 1990 के बाद अब तक हुए सात विधानसभा चुनाव के इतिहास पर निगाहें दौड़ाई जाएं तो साफ है कि कमोबेश सूबे के इन सभी चुनावों के केंद्र में चेहरा ही सबसे निर्णायक रहा है.


यह भी पढ़ें: बिहार चुनाव के मद्देनज़र अपने प्रमुख वोटबैंक को साधने के लिए नीतीश कुमार महिलाओं पर मेहरबान


1990 से लेकर 2005 तक चुनावी दशा-दिशा मुख्‍य रूप से लालू प्रसाद यादव के ईद-गिर्द ही घूमती रही जिसे 2005 में नीतीश कुमार ने तोड़ा और बीते 15 साल में उनकी टक्‍कर का कोई वैकल्पिक चेहरा सामने नहीं आया. अब इसे संयोग कहें या राजनीति के पहिए के घूमकर वापस लौटने का नमूना मगर हकीकत यह भी है कि ठीक 15 साल बाद आज नीतीश कुमार की लोकप्रियता का ग्राफ बिहार की सियासी फि‍ज़ा में कुछ उसी तरह नीचे आया है जैसा कि लालू प्रसाद के साथ हुआ था.

ऐसे में अहम सवाल यह है कि इस बार के चुनाव किन चेहरों के इर्द-गिर्द लड़े जाएंगे. सत्ता पक्ष और विपक्ष की ओर से सही अर्थों में चेहरा कौन होगा? राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव चारा घोटाले में जेल में बंद हैं. राजद तेजस्वी यादव को विपक्षी महागठबंधन के चेहरे के रूप में पेश कर रहा है और कांग्रेस के पास सियासी मजबूरी में इसे कबूल करने के अलावा कोई विकल्‍प नहीं है. मगर तेजस्‍वी के नेतृत्‍व को लेकर अंतर्विरोध इतना ज्यादा है कि आरएलएसपी ने तो चेहरे के सवाल पर अंत समय में महागठबंधन से किनारा कर लिया है. फिर सियासी विशेषज्ञ भी तेजस्वी को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के अनुभव और कद का नेता नहीं मानते. सियासी कद के तराजू पर यह अंतर सियासी विमर्श में भी नजर आता है.

हालांकि मौजूदा हकीकत यह भी है कि इस अंतर के बावजूद नीतीश की तीसरी पारी के उनके शासन ने उन्‍हें सुशासन बाबू के पर्याय से कुशासन बाबू के कठघरे तक पहुंचा दिया है. इसलिए नीतीश कुमार के राजग का चेहरा होने के बावजूद एनडीए गठबंधन में भी उनके घटे सियासी ग्राफ की चिंता गंभीर है. सहयोगी एलजेपी लगातार भाजपा को इस बारे में चेतावनी दे रही है. एलजेपी के चिराग पासवान भाजपा से कह रहे हैं कि राज्य में नीतीश के चेहरे का जादू गायब ही नहीं है बल्कि उनके खिलाफ जबर्दस्त एंटी इन्कम्बेंसी है. ऐसे में भाजपा ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़े. बीते तीन चुनावों में नीतीश राज्य के मतदाताओं की स्वाभाविक पसंद थे, मगर अब ऐसा नहीं है. नीतीश की वर्तमान छवि विकल्पहीनता वाले नेता की है. मतलब राज्य का ऐसा वर्ग जो महागठबंधन के साथ किसी कीमत पर नहीं जाना चाहता, वही वर्ग मजबूरी में नीतीश के नेतृत्व को स्वीकार करने की बात कर रहा है.

फिर सवाल है कि क्या अघोषित तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बिहार चुनाव में एनडीए का चेहरा होंगे? चुनावी अधिसूचना जारी होने से पूर्व मोदी ने जिस प्रकार चुनाव प्रचार की कमान संभाली है और जिस तरह इस अभियान में नीतीश उनके पीछे दिखे हैं उसका संकेत साफ है कि भाजपा को नीतीश के चेहरे का जादू कमजोर पड़ने की चुनौती का अहसास है. एनडीए की अब तक की रणनीति से स्‍पष्‍ट है कि इस चुनाव में नीतीश भी काफी हद तक न केवल नरेंद्र मोदी की सियासी अपील पर निर्भर रहेंगे बल्कि चुनाव अभियान में वे मोदी के चेहरे के पीछे से झांकते नज़र आएंगे.

राज्‍य सरकार के कामकाज की बजाय केंद्र की एनडीए सरकार की योजनाओं और उपलब्धियों पर दिया जा रहा जोर भी इसी ओर इशारा करता है. केंद्र सरकार की मुफ्त अनाज योजना, कोरोना काल में जन-धन खाताधारकों को दी गई नकद मदद और किसान सम्मान योजना एनडीए के चुनाव प्रचार में मुख्य स्थान बनाए हुए हैं. एनडीए में भी आंतरिक तौर पर इस तर्क के हिमायती लोगों की तादात काफी है कि चुनाव में पीएम मोदी के चेहरे को ही आगे रखना गठबंधन के हित में होगा.


यह भी पढ़ें: VRS लेने वाले बिहार के DGP गुप्तेश्वर पांडे बक्सर से लड़ सकते हैं चुनाव


गौर करने वाली बात यह भी है कि एनडीए ही नहीं विरोधी खेमे के आतंरिक सर्वेक्षणों में इस आशय का नजरिया सामने आया है कि कोरोना महामारी के प्रबंधन से जुड़ी चुनौतियों, सख्‍त लॉकडाउन से धराशायी हुए रोजी-रोजगार व उद्योग-कारोबार की मौजूदा हालत, पूर्वी लद्दाख में चीनी घुसपैठ की गंभीर स्थिति और कृषि सुधार कानूनों के खिलाफ किसानों के बड़े विरोध आंदोलन के बावजूद नरेंद्र मोदी की सियासी छवि और साख पर अभी तक खरोंच नहीं आई है. राष्‍ट्रीय स्‍तर पर यह स्थिति व्‍यापक और गंभीर सियासी विमर्श का मुद्दा हो सकती है मगर बिहार चुनाव के परिप्रेक्ष्‍य में भी विपक्ष के लिए यह गहन चिंतन का विषय होना चाहिए. सूबे और केंद्र की सत्‍ता से जुड़े ज्‍वलंत सवालों के बावजूद चुनाव में चेहरे का ही धुरी बने रहना क्‍या विपक्षी विकल्‍पहीनता का दौर माना जाए.

हालांकि, सवाल यह भी है कि क्या पीएम मोदी को चेहरा बनाने का दांव सफल होगा? यह सवाल इसलिए कि लोकसभा चुनाव के बाद जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए, वहां मोदी कहीं घोषित तो कहीं अघोषित चेहरा थे. मगर परिणाम पार्टी के मुफीद नहीं आए. हरियाणा, झारखंड और महाराष्ट्र में लोकसभा चुनाव के मुकाबले भाजपा के वोटों में बड़ी गिरावट आई. दिल्ली में भी ऐसी कोशिश सिरे नहीं चढ़ी और पार्टी को एक और करारी हार झेलनी पड़ी. ऐसा इसलिए कि लोकसभा चुनाव में भाजपा समर्थक रहे एक बड़े वर्ग ने विधानसभा चुनाव में स्थानीय चेहरे को तरजीह दी. यही कारण है कि राज्यों में पार्टी का चेहरा हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर, झारखंड में रघुवर दास और महाराष्ट में देवेंद्र फडणवीस के प्रति नाराजगी भाजपा को भारी पड़ गई. इस आधार पर बिहार का गणित समझें तो एनडीए की राह आसान नहीं दिख रही.

बहरहाल, बिहार में दोनों गठबंधनों की मुख्य चिंता युवा मतदाता हैं. वह युवा मतदाता जो राज्य के कुल वोटरों का एक चौथाई हिस्सा हैं. यही वह वर्ग है तो राज्य की बदहाल स्थिति पर सवाल उठा रहा है. इनके हमले की जद में एनडीए और महागठबंधन दोनों हैं. संख्या बल की दृष्टि से इन्हें कोई भी दल हल्के में नहीं ले सकता. इस विधानसभा चुनाव में सियासी दलों के लिए युवा वर्ग पहेली बने हुए हैं. कारण इनकी संख्या है. राज्य की एक चौथाई आबादी 39 साल से कम आयु की है. इस आयु वर्ग के तीन करोड़ छियासठ लाख मतदाता हैं. इनमें 29 साल से कम उम्र वाले मतदाताओं की संख्या एक करोड़ 70 लाख है. इन मतदाताओं में 100 से अधिक विधानसभा सीटों का परिणाम बदलने की क्षमता है.

आरजेडी की अगुवाई वाला महागठबंधन और एनडीए दोनों इस वर्ग को लुभाने के लिए हाथ-पांव मार रहे हैं. आमतौर पर छोटा भाषण देने वाले नीतीश कुमार लंबा भाषण दे रहे हैं. भाषण के दौरान बड़े-बुजुर्गों को युवाओं को समझाने की अपील कर रहे हैं. उन्हें लालू प्रसाद के कार्यकाल के कथित जंगलराज के बारे में बताने की अपील कर रहे हैं. दूसरी ओर आरजेडी के चेहरा तेजस्वी इन्हीं युवाओं के बीच बेरोजगारी, पलायन, शिक्षा क्षेत्र की बदहाली का मुद्दा उठा रहे हैं. जाहिर तौर पर इस वर्ग को साधे बिना किसी भी गठबंधन के लिए चुनावी नैया पार लगाने की संभावना नहीं है.

बिहार के मतदाता भी फिलहाल सियासी दलों के लिए अबूझ पहले ही हैं. जाहिर तौर पर चुनावी महाभारत का सियासी पर्दा भले ही उठ गया है, मगर कई अहम सवालों के जवाब अनुत्तरित रहने के कारण चुनाव नतीजे का ऊंट इस बार किस करवट बैठेगा इसका अनुमान लगाना अभी जल्‍दबाजी होगी. ऐसे में यक्ष प्रश्न -बिहार में का बा- की गुत्थी सुलझने के लिए 10 नवंबर तक इंतजार करना होगा.

(लेखक राजनीतिक विशलेषक और आंध्र प्रदेश इलेक्‍ट्रॉनिक डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन के पूर्व चेयरमैन हैं. ये उनके निजी विचार है.)


यह भी पढ़ें: बिहार चुनाव में सीधे जीतना भाजपा के लिए मुश्किल, लेकिन हारने के बाद जीतना आसान है


 

share & View comments