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Thursday, 19 December, 2024
होममत-विमतबाइडेन की भारत नीति राष्ट्रहितों से तय होगी, अमेरिकी ब्यूरोक्रेसी नीतिगत मामलों में उलटफेर नहीं चाहती है

बाइडेन की भारत नीति राष्ट्रहितों से तय होगी, अमेरिकी ब्यूरोक्रेसी नीतिगत मामलों में उलटफेर नहीं चाहती है

अमेरिका की विदेश नीति तात्कालिक खींचतान से नहीं बल्कि उसके अपने राष्ट्रहितों से तय होती है. राष्ट्रपति के रूप में बाइडेन पूरी दुनिया और भारत को भी केवल इसी चश्मे से देखेंगे.

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लगभग तय है कि अमेरिका में ‘प्रेसिडेंट एलेक्ट’ (निर्वाचित राष्ट्रपति) जो बाइडेन जनवरी में राष्ट्रपति का कार्यभार संभाल लेंगे और तब खुफिया एजेंसियां उन्हें ‘ब्रीफ़’ करने की प्रक्रिया पूरी करेगी. इन दिनों इस परंपरा का पालन कम ही होता रहा है. डोनाल्ड ट्रंप तो राष्ट्रपति को रोज दी जाने वाली सूचनाओं में कम ही दिलचस्पी लेते थे और अक्सर मामूली भूगोल आदि की अज्ञानता प्रदर्शित करते रहते थे. जैसे, यह प्रकरण काफी मशहूर हुआ था कि एक बार उन्होंने नेपाल को भारत का हिस्सा बता दिया था. लेकिन जोसेफ रॉबिनेट बाइडेन जूनियर अलग ही मिट्टी के बने हुए हैं. 29 वर्ष की उम्र में ही सीनेटर बने, दो बार उप-राष्ट्रपति रहे बाइडेन अमेरिकी कांग्रेस में जितना समय बिता चुके हैं उतना किसी दूसरे उम्मीदवार ने नहीं बिताया.

यानी बाइडेन उन लोगों में से नहीं हैं जिन्हें यह बताना पड़े कि किस देश की सीमाएं कहां खत्म होती हैं या अमेरिका की विदेश नीति तात्कालिक खींचतान से नहीं बल्कि उसके अपने राष्ट्रहितों से तय होती है. राष्ट्रपति के रूप में बाइडेन पूरी दुनिया और भारत को भी केवल इसी चश्मे से देखेंगे और ऐसा करने के लिए उन्हें उस अफसरशाही से बढ़ावा ही मिलेगा, जो नीतिगत मामलों में मनमाने उलटफेर नहीं चाहती. जरा उन मसलों पर नज़र डालिए, जिन्हें भारत द्विपक्षीय संबंधों के लिए महत्वपूर्ण मानता है.

जरूरत पर आधारित मेल

सबसे पहला है कश्मीर मसला. अमेरिकी कांग्रेस से ज्यादा भारत के अफसरशाह इस मसले को उठाए जाने को लेकर परेशान दिखते हैं. यह सच है कि डेमोक्रैट खेमे की सुई वर्षों से कश्मीर मसले और मानवाधिकारों के सवाल पर अटकी रही है. पुराने आलोचक, सदन के सदस्य इलहान उमर ही नहीं, प्रमिला जयपाल जैसी ‘कट्टरपंथी’ और ‘पाकिस्तान कॉकस’ की उपाध्यक्ष शीला जैक्सन ली कांग्रेस में वापस आ गई हैं, जिन्होंने 2019 में सदन में कश्मीर मसले को दो बार उठाए जाने में अहम भूमिका निभाई थी. ‘निर्वाचित उप-राष्ट्रपति’ कमला हैरिस ने भी नामांकन के लिए हुई दौड़ के दौरान इस मसले को उठाया था. अमेरिकी राजनीति का यह सामान्य हिस्सा है.

लेकिन वास्तविकता यह है कि अमेरिकी प्रशासन में कम ही लोगों को कश्मीर की फिक्र है और वे इस बात से खफा हैं कि नरेंद्र मोदी की सरकार अनुच्छेद 370 को रद्द करने के बाद के नतीजों को संभाल नहीं पा रही है. इसलिए, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि कश्मीर को लेकर मचने वाले तमाम शोर का द्विपक्षीय संबंधों पर कोई असर नहीं पड़ा. राष्ट्रपति का दौरा हुआ, 2+2 वार्ता हुई, और संकट के समय अमेरिकी हथियार उपलब्ध कराए गए. नया अमेरिकी प्रशासन कश्मीर पर विचार-विमर्श को रोकेगी नहीं. लेकिन इसमें दिलचस्पी का स्तर इस पर निर्भर होगा कि अमेरिका को भारत की कितनी जरूरत पड़ती है, कि भारत नवंबर 2019 वाली ऐसे घटनाओं को बेअसर करने की कितनी क्षमता रखता है जब मानवाधिकारों के मामले की सुनवाई में 84 में से केवल 4 सदस्य उपस्थित हुए थे; कि पाकिस्तानी सहायता से चलने वाले गिरोहों से ठीक से निबटा जाता है या नहीं.

अमेरिकी अदालतों ने हाल में वर्जीनिया के एक व्यक्ति को कश्मीर के लिए लॉबीइंग करने के वास्ते पाकिस्तान के 35 लाख डॉलर के सरकारी कोश के गबन के मामले में दोषी ठहराया. अब वहां नये प्रशासन के आगमन के साथ मोदी सरकार को यह व्यवस्था करनी होगी कि लॉबीइंग पर फलने-फूलने वाले शहर में वैध पैरोकारों को किराये पर न रखा जाए. हालांकि वाशिंगटन के मीडिया में कश्मीर को लेकर आलोचना भरी रहती है, लेकिन भारत के पास पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) की बदहाली या बलूचिस्तान में मानवाधिकारों के उल्लंघन की कोई खबर नहीं होती. यह स्थिति बदलनी चाहिए.

चीन या पाकिस्तान?

असली पेंच यह है कि अमेरिका को भारत की कितनी जरूरत महसूस होती है. खुफिया एजेंसियां जब बाइडेन को सूचनाएं ब्रीफ़ करेंगी तो वे उन्हें चीनी सेना के बारे में वह सब बताएंगी जिन्हें चीन पर ‘वार्षिक रिपोर्ट’ में जनता से छिपा लिया गया है. ‘फॉरेन अफेयर्स’ नामक पत्रिका में एक लेख से सिद्ध होता है कि बाइडेन उस खतरे के बहुआयामी स्वरूप से अच्छी तरह अवगत हैं. या यह कि आइएमएफ ने चीन को सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था घोषित किया है, कि कम्युनिस्ट पार्टी के 19 वीं केंद्रीय कमिटी के 5वें आम अधिवेशन में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और उभरती टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में बढ़त लेने की योजना बनाई जा रही है, कि खुद राष्ट्रपति शी जिंपिंग चेतावनी दे रहे हैं कि 2035 तक कुल आर्थिक आउटपुट को दोगुना करने के लिए सुरक्षा पूर्वशर्त है.


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इसलिए, बाइडेन एशिया और प्रशांत क्षेत्र में ‘सही संतुलन’ की ओबामा दौर की रक्षा रणनीति को शायद ही खारिज करेंगे, जो ‘इंडो-पैसिफिक’ का आधार दस्तावेज़ है. भारत के विपरीत अमेरिका सामरिक नीति के आधार पर फैसले करता है, उसके लिए कोश देता है और उसी रणनीति के मुताबिक हथियारों को हासिल करने की नीति बनाता है. दूसरे शब्दों में, जब तक चीन नाकाम नहीं होता तब तक यह रणनीति अटल है. इस नीति में, हिंद महासागर में उभरा भारतीय प्रायद्वीप बेहद महत्वपूर्ण है. यह चीन के लिए ऊर्जा की जीवनरेखा है, जिसे वह ग्वादर बंदरगाह के निर्माण के लिए कर्ज की जगह अनुदान देकर और श्रीलंका तथा म्यांमार के बंदरगाहों की घेराबंदी करके अपने लिए सुरक्षित करने की कोशिश कर रहा है. भारत ने बुद्धिमानी दिखाई की अमेरिकी चुनाव से पहले ‘बेसिक एक्सचेंज ऐंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट’ पर दस्तखत कर दिया. यह अमेरिकी सहयोगियों के साथ की जाने वाली चार बुनियादी संधियों में आखिरी है. सीधे-सीधे कहें, तो चीन अमेरिकी योजनाकारों के लिए ‘ध्यान देने वाला देश’ बना हुआ है.

इसके बाद पाकिस्तान का नंबर आता है. याद रहे कि ‘अफगानिस्तान के लिए रणनीति’ लगभग पूरी तरह बाइडेन द्वारा 2009 में पेश किए गए प्रस्तावों पर आधारित है. इस रणनीति में ये बातें शामिल हैं— अफगानों की ट्रेनिंग के लिए वहां थोड़ी अमेरिकी सेना की तैनाती; अमेरिकी स्पेशल फोर्सेस का इस्तेमाल करके आतंकवाद का मुक़ाबला; और पाकिस्तान को सावधान करना. पाकिस्तान के साथ साझीदारी बढ़ाने के कानून में में भी बाइडेन का हाथ रहा है. इस कानून के तहत पाकिस्तान को सहायता पांच साल में बढ़ाकर 7.5 अरब डॉलर कर दी गई, जिसमें सेना के लिए कुछ भी नहीं था बशर्ते वह यह प्रमाणित करे कि वह अल क़ायदा की मदद नहीं कर रहा और तालिबान को अपने यहां से काम करने की छूट नहीं दे रहा, साथ ही पाकिस्तानी फौज मुल्क की राजनीतिक तथा न्यायिक प्रक्रियाओं में दखल नहीं दे रही.

इस कानून ने पाकिस्तानी फौज को इतना नाराज कर दिया कि उसने इससे खुल कर असहमति जताने का अभूतपूर्व कदम उठा लिया, जिससे ज़रदारी की सरकार गंभीर संकट में पड़ गई थी. जाहिर है, बाइडेन भी और अमेरिकी खुफिया एजेंसियां भी पाकिस्तान को अच्छी तरह पहचानती हैं. इस साल जनवरी में न्याय विभाग ने पांच पाकिस्तानियों को पाकिस्तान के परमाणु तथा मिसाइल कार्यक्रम के लिए कोई 29 कंपनियों के जरिए खरीद नेटवर्क चलाने के लिए दोषी ठहराया. भारत में किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया.

भारत की भूमिका

इस सबका अर्थ यह नहीं है कि भारत को कुछ भी करने की छूट मिल गई है. व्यापार संबंधी मसले पहले की तरह कायम हैं, बेशक ट्रंप की तरह धमकियां नहीं मिलेंगी. बाइडेन ने ‘मध्यवर्ग की खातिर विदेश नीति’ का वादा किया है, वह वैसी ही रहेगी जिसका अर्थ है अमेरिका की बेहतरी के लिए दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं से लाभ लेना. भारत की अर्थव्यवस्था फलती-फूलती रहेगी तो उन्हें अहम मदद मिलेगी, जैसी कि पिछली सरकारों को मिली. मानवाधिकार के मसले अहम होंगे, जिसे नागरिकता कानून या दूसरे ऐसे विभाजनकारी कदमों से चोट पहुंचाई गई.

(लेखक राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व निदेशक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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