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Saturday, 21 December, 2024
होममत-विमतबाइडन का सुरक्षा प्लान दिखाता है कि US साझेदारों के लिए परेशान हैं पर भारत को सूझ-बूझ दिखानी होगी

बाइडन का सुरक्षा प्लान दिखाता है कि US साझेदारों के लिए परेशान हैं पर भारत को सूझ-बूझ दिखानी होगी

भारत के लिए एक ताकत सीमा पर पहाड़ों के पार ही पड़ोसी के रूप में मौजूद है, तो दूसरी हमारे समुद्र में जमी हुई है. जाहिर है, भारत की अपनी रणनीति और जटिल ही होती जाएगी.

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हमारे दौर की गंभीरता का इसी बात से अंदाजा लग जाता है कि अमेरिका के नये राष्ट्रपति को शपथ लेने के लगभग डेढ़ महीने में ही राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति पर अंतरिम निर्देश जारी करना पड़ गया. जो बाइडन के मामले में यह चौतरफा घिरी हुई एक सरकार द्वारा राजनीतिक, सामाजिक और नस्लीय आधारों पर विभाजित लोगों को मतभेदों को परे रखकर आगे बढ़ने के लिए एकजुट करने की कोशिश मानी जाएगी. यह मुश्किल हो सकता है. इसमें ऐसा बहुत कुछ है जो न केवल रिपब्लिकन पार्टी वालों को, बल्कि अमेरिकी लोगों के कुछ तबकों को भी नाखुश करेगा. इस दस्तावेज़ में ऐसा भी बहुत कुछ है जिसमें भारत की दिलचस्पी हो सकती है. और चेतावनी के ऐसे कुछ संकेत भी हैं जिन पर नयी दिल्ली ध्यान देना चाहेगी.

‘अंतरिम’ रणनीति

इस बेहद असामान्य ‘अंतरिम’ रणनीति के पक्ष में यह तर्क अक्सर दोहराया जा चुका है कि अमेरिका को पूरी दुनिया से रफ्त-जफ्त बढ़ाकर फिर से अपनी जगह हासिल करनी है. लेकिन, इस रणनीति के बहाने अमेरिकी लोगों को यह समझाने की कोशिश की जा रही है कि रफ्त-जफ्त बढ़ाने की जरूरत इसलिए है कि ‘… विश्व का नेतृत्व करना ऐसा प्रयास नहीं है कि हम अपने बारे में ही अच्छा महसूस करें. यह अमेरिकी लोगों को शांति, सुरक्षा, और समृद्धि के साथ जीने की व्यवस्था करने का प्रयास है. यह हमारे अपने हित के लिए है, जिससे हमें कोई इनकार नहीं कर सकता.’ यह उस जनता को समझाने की कोशिश है जो यह मानती है कि जिन संस्थाओं में चीन और उसके मित्र देशों का वर्चस्व है उनसे बाहर हो जाने, और लड़ाइयों को खुद ही निपट जाने देने की डोनाल्ड ट्रंप की रणनीति अच्छी थी.

बाइडन यह संदेश देना चाहते हैं कि अमेरिका को फिर से महान बनाने से उनके यहां लोगों की जेब में डॉलर आएंगे और तब एक ऐसे विदेश नीति देने का उनका वादा पूरा होगा जो मध्यवर्ग को फायदा पहुंचाएगी, न कि अमीरों और उन अनर्थकारी समूहों को जो अब तक हावी रहे हैं. अब यह नहीं कहा जा सकता कि यह ट्रंप की इस नीति से कैसे अलग है, जिसके तहत दूसरे देशों को अमेरिकी चीजें खरीदने के लिए दबाव डाला जाता था. 2020 के पहले के सर्वे बताते हैं कि 80 प्रतिशत वोटर अर्थव्यवस्था की मंदी को सबसे गंभीर मसला मानते थे, जिसमें व्यापारिक सहयोगियों को चेतावनी दी गई थी. यानी अर्थव्यवस्था सर्वोपरि है.


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अमेरिका और बाकी सब

दूसरी बात, इस बात को सीधे कबूल किया गया है कि सुरक्षा के लिए खतरे कई तरह के हैं, और अमेरिका अकेले इनसे नहीं निपट सकता. यह शायद पूरे हॉलीवुड के चेहरे पर तमाचा है, जो अमेरिका को सुपरमैन के रूप में तमाम दादाओं से अकेले निपटते हुए दिखाता रहता है. ट्रंप के विपरीत बाइडन प्रशासन ‘नाटो’ और यूरोपीय संघ (ईयू) जैसे गठबंधनों को प्रमुखता देना चाहता है.

नाटो में जिसके सबसे ज्यादा सदस्य हैं उस ईयू ने अमेरिका के इस अनुरोध को ठुकरा दिया है कि वह चीन के साथ निवेश के व्यापक समझौते पर दस्तखत करने से पहले थोड़ा इंतजार करे. यह बात गठबंधनों को— कह सकते हैं कि मुख्यतः चीन के खिलाफ— मजबूत करने की कोशिशों को एक पहेली बना देती है. ईयू के व्यापारिक सहयोगी के रूप में चीन ने अमेरिका से बढ़त ले ली है. यूरोस्टैट के मुताबिक, 2020 में व्यापार 711 अरब डॉलर के बराबर पहुंच गया जबकि अमेरिकी व्यापार 673 अरब डॉलर के बराबर था. जाहिर है, आप उस देश से आम तौर पर टक्कर नहीं लेते, जो आपके जीडीपी में इजाफा करता है.

लेकिन ‘इंडो-पैसिफिक स्ट्रेटेजी’ इस महीने की सबसे उल्लेखनीय बात है. फ्रांस ने ताकत का प्रदर्शन करने के लिए अपने युद्धपोत और पनडुब्बियां साउथ चाइना सी क्षेत्र में भेज दिए, यूके अमेरिकी विमानों से अपने ‘केरियर स्ट्राइक ग्रुप’ भेजकर उस क्षेत्र में मजबूत बहुराष्ट्रीय मौजूदगी बना रहा है. कनाडा ताइवान स्ट्रेट के रास्ते वहां अमेरिकी सैन्य अभ्यास में शामिल होने के लिए पहले ही पहुंच चुका है. यह सब काफी प्रभावशाली तो है लेकिन समय ही बताएगा कि व्यापार को युद्ध में बदला जा सकता है या नहीं.

भारत और इंडो-पैसिफिक का साथ

इन ‘मूल’ गठबंधनों के अलावा, इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में ‘राष्ट्रीय सुरक्षा के अहम हितों’ की रक्षा के लिए सहयोगियों के साथ मिलकर काम करने का भी जिक्र है, और इसके बाद भारत के साथ गहरी दोस्ती करने की भी बात की गई है. इस सबके साथ शर्त यह भी है— ‘सहयोगी देशों के साथ मिलकर काम करते हुए हम अपने मूल्यों और हितों का भी ख्याल रखेंगे.’ यह भारत की जगप्रसिद्ध धर्मनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक सिद्धांतों के ह्रास की ओर उंगली उठाने वाले लेखों की बढ़ती संख्या की ओर इशारा करने की कोशिश लगती है. सोशल मीडिया और सिविल सोसाइटी पर नये प्रतिबंधों पर भी सवाल उठाए जाएंगे, भले ही भारत यह हवाला देकर इन सबको एक ढोंग बता दे कि तानाशाह चीन के साथ तो सब मेलजोल बढ़ा ही रहे हैं.

अच्छी बात यह है कि इंडो-पैसिफिक क्षेत्र को इस रणनीति में नि:स्संदेह केंद्रीय महत्व दिया गया है और ‘ग्लोबल पोश्चर रिव्यू’ के जरिए दूसरी जगहों पर सेनाओं को ‘उपयुक्त आकार’ देने की योजना बनाई गई है और इस क्षेत्र में ‘जोरदार’ मौजूदगी का वादा किया गया है. याद रहे कि इस सबके लिए मित्रों और सहयोगियों को अपना ज़ोर भी दिखाना होगा. इस बयान से साफ है कि कुछ भी मुफ्त में नहीं मिल जाएगा— ‘जब ताकत लगाने की जरूरत होगी, जहां भी संभव होगा वहां हम अंतरराष्ट्रीय और स्थानीय सहयोगियों के साथ मिलकर ताकत लगाएंगे ताकि उसका असर और उसकी वैधता बढ़े, बोझ का बंटवारा हो और कामयाबी के लिए सब भागीदारी करें.’ भारत को अगले साल अपना रक्षा बजट तैयार करते हुए इसे ध्यान में रखना होगा.

प्रतिरक्षा से ज्यादा कूटनीति पर ज़ोर

लगता है, इस आशंका की पुष्टि की जा रही है कि अमेरिका अपने रक्षा बजट को या तो कम करने जा रहा है या जस का तस रखने जा रहा है. रणनीति में ‘तार्किकता’, ‘कूटनीति को प्राथमिकता’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया है, जो पेंटागन में बैठे लोगों में दहशत पैदा कर सकता है. इसलिए उम्मीद की जा सकती है कि यह महकमा आगे के लिए जो सामरिक रणनीति तैयार करेगा उसमें वह अपनी आपत्तियां दर्ज करा सकता है.

विशेषज्ञों के मुताबिक, 2017 के बाद से रक्षा बजट में इजाफा होता रहा है, केवल 2021 में आधुनिकीकरण के लिए आवंटन में कमी की गई है. ट्रंप प्रशासन ने पहले चीन, फिर रूस, उत्तरी कोरिया आदि से संभावित टकराव के लिए सेना के ढांचे के वास्ते फंड की व्यवस्था की थी और ओबामा प्रशासन के आदेश को पलट दिया था. क्षमता को दो महाशक्तियों को परास्त करने या उन्हें हमले से रोकने की कसौटियों के आधार पर परिभाषित किया गया था.

लेकिन अब यह स्थिति कुछ तो मंदी के कारण और कुछ इस कारण भी बदल सकती है कि चीन को अमेरिकी वर्चस्व के लिए सबसे बड़ा खतरा घोषित करने से परहेज किया गया है. यह अपने आप में क्रांतिकारी बात है. आखिर, 1940 के बाद से ‘अमेरिकी मूल्य’ अमेरिकी वर्चस्व के बूते ही तय होते रहे हैं.

खतरा क्या है

यानी पूरे मसले का मूल यही है कि खतरा क्या है. चीन को ऐसे ‘एकमात्र प्रतियोगी’ के रूप में बताया गया है जो ‘अपनी आर्थिक, कूटनीतिक, सैनिक, और तकनीकी ताकत के मेल से एक स्थिर तथा खुली अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था (अमेरिकी वर्चस्व वाली) के लिए सतत चुनौती पेश कर सकता है’. इसके बाद दूसरे नंबर पर रूस को रखा गया है और फिर बाकी सबको. लेकिन जलवायु परिवर्तन और महामारी जैसे मामलों में चीन के साथ सहयोग करने का वादा किया गया है.

यह विचार नवनियुक्तों का है, जिनमें सूसन राइस आदि शामिल हैं, जो ओबामा के दूसरे कार्यकाल में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) थीं और अब घरेलू मामलो की कोऑर्डिनेटर हैं और चीन के साथ ‘कई क्षेत्रों में मिलकर’ काम करने की वकालत करती हैं. दूसरी हैं राजनीतिक मामलों की अंडर सेक्रेटरी विक्टोरिया नूलंद, जिन्होंने ‘लोगों के बीच’ आपसी समझदारी बनाने की खातिर कन्फ्यूशियस इंस्टीट्यूट का समर्थन किया था, बावजूद इसके कि यह प्रोपेगंडा, और कार्रवाइयों को प्रभावित करने की कोशिश करता रहा है.

खुद बाइडन भी चीन के खतरे को बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया कह चुके हैं, जबकि सर्वे बताते हैं कि 10 में से 6 डेमोक्रेट सदस्य भी ऐसा ही सोचते हैं और वे चीन के साथ विज्ञान के क्षेत्र में तालमेल को या चीनी छात्रों को अमेरिका आने से रोकने का विरोध करते रहे हैं.

इस बीच, चीनी विमान ने ताइवान को फिर धमकाने की कोशिश की तो अमेरिकी विदेश विभाग ने ‘शांतिपूर्ण समाधान’ की अपील की और यह भी कहा कि ताइवान के प्रति अमेरिका की प्रतिबद्धता ‘चट्टान की तरह ठोस’ है. इसलिए अब सख्त तेवर, लेकिन सैन्य टकराव टालने के लिए बातचीत की तैयारी की भी उम्मीद रखिए. ‘ट्रैक 1.0’ से दशमलव के 100 अंकों तक नीचे कुछ भी संभव है.

हितों की बात

भारत इस सबकी शायद ही आलोचना कर सकता है. हाल में चीन के साथ गंभीर टकराव के बाद वह चीन से निवेश के बड़े प्रस्तावों को मंजूरी देने में जुट गया है. लद्दाख में आमना-सामना होने के बावजूद दोनों देशों के बीच व्यापार में वृद्धि ही हुई है और चीन अमेरिका को हटाकर भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक सहयोगी बन गया है. ऐसा लगता है कि आर या पार वाली स्थिति अब नहीं रह गई है. जब तक आप अपना सिर उठाए रख सकते हैं और आर्थिक रूप से मजबूत रहते हैं तब तक सब कुछ चलेगा और आप अपनी कहानी को उपयुक्त दिशा में मोड़ सकते हैं.

अमेरिका के लिए कहानी ‘लोकतंत्र’ और सबके अधिकारों की रक्षा की है, जो अमेरिकी मानकों के मुताबिक वैश्विक व्यवस्था के अनुरूप हो. चीन के लिए, मुख्य सरोकार इस व्यवस्था को अपने अनुरूप बनाना है. समस्या यह है कि बाज़ार में पहुंच और तकनीक के मामले में दुनिया पर चीन का असर बढ़ता जा रहा है. उसकी ‘बेल्ट ऐंड रोड’ योजना का दायरा 70 देशों तक फ़ैल गया है, जो वैश्विक जीडीपी में एक तिहाई की हिस्सेदारी करते हैं. उसने दुनिया भर के 36 बन्दरगाहों पर तो अपनी पहुंच बना ही ली है, चाहे वे छोटे ही क्यों हों.

एक स्थिर और निर्बाध ताकत के रूप में जो विरोधाभास सामने है उसकी आज-न-कल परीक्ष होगी ही. भारत के लिए एक ताकत सीमा पर पहाड़ों के पार ही पड़ोसी के रूप में मौजूद है, तो दूसरी हमारे समुद्र में जमी हुई है. जाहिर है, भारत की अपनी रणनीति और जटिल ही होती जाएगी.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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