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Sunday, 28 April, 2024
होममत-विमतभूमि पूजन एक नई राजनीति की नींव रखने का अवसर है जहां हर कदम अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक की नज़र से न देखा जाए

भूमि पूजन एक नई राजनीति की नींव रखने का अवसर है जहां हर कदम अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक की नज़र से न देखा जाए

कुछ लेखकों, स्तंभकारों ने बहुसंख्यकवाद यानी मैजोरिटेरियन राजनीति के खतरों की आशंका जताई है. लेकिन भारतीय संविधान की संरचना ऐसी है कि सभी समुदायों के लिए न्याय और खुशहाली का पर्याप्त प्रायोजन है.

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राजनीति में कुछ शब्द ऐसे होते हैं जो हमेशा के लिए किसी एक व्यक्ति से जुड़ जाते हैं. इतने दशकों बाद भी अंतरात्मा की आवाज़ कहते ही पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का चेहरा कौंध जाता है. लेकिन मैं तो हाई स्कूल में भी नहीं पहुंच पाई थी जब वे अपने ही सुरक्षाकर्मियों की गोलियों का शिकार हो गईं. अलबत्ता मैंने लालकृष्ण आडवाणी को उप-प्रधानमंत्री से लेकर विपक्ष के प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में लगातार और नियमित तौर पर बहुत साल कवर किया. स्यूडो सेक्युलरिज्म यानी छद्म धर्मनिपेक्षता शब्द भारतीय राजनीति में लालकृष्ण आडवाणी से जुड़ा है.

सोमनाथ से अयोध्या की यात्रा के उथल-पुथल भरे दिनों से लेकर भारत सरकार के वरिष्ठ मंत्री की भूमिका में आडवाणी ने कभी यह कहने में गुरेज़ नहीं किया कि कुछ राजनीतिक दलों ने सेक्युलरवाद यानी धर्मनिरपेक्षता को अल्पसंख्यक और वह भी केवल मुसलमान समाज के तुष्टिकरण तक सीमित कर दिया है. जिसमें अल्पसयंख्यक और बहुसंख्यक दोनों पर ही बुरा प्रभाव पड़ा है और यह अन्याय है जिसे ठीक करना होगा.

सोमनाथ यात्रा से लेकर अंडमान में वीर सावरकर की पट्टिका लगाने तक, उन्होंने कांग्रेस को इस तुष्टिकरण की राजनीति का जनक बताया जिसे बाद में राजनीतिक फायदे के लिए कई क्षेत्रीय दलों ने भी आत्मसात कर लिया.

आज जब अयोध्या में विवादित भूमि के मामले का निपटारा राम जन्मभूमि के पक्ष में हो चुका है और हम भव्य राम मंदिर के भूमि पूजन के पड़ाव पर हैं तो यह साफ है कि भारतीय राजनीति में छद्म धर्मनिरपेक्षता का अध्याय बंद न भी हुआ हो तो पूरी तरह ठंडा जरूर पड़ गया है. इस लिहाज़ से देखें तो यह भूमि पूजन एक लंबे राजनीतिक काल के पटाक्षेप की घोषणा है.

दशकों तक सेक्युलर पहचान का हवाला देते हुए राजनीतिक दल कभी संविधान की राजनीतिक सुविधानुसार व्याख्या करके तो कभी दंगा-फसाद, मार-काट का डर जताकर बहुसंख्यक समाज को अपनी बात खुलकर न कहने की हिदायत देते रहे. इसके बावजूद देश के कोने-कोने में दंगे-फसाद चलते ही रहते थे. मेरी पारिवारिक जड़ें जिन शहरों से जुड़ी हैं उनमें दो शहर तो ऐसे हैं जहां हर साल तीन-चार बार छोटे-बड़े सांप्रदायिक दंगे एक सालाना रूटीन मानी जाती थी.

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दशकों के इस राजनीतिक परिवेश ने बहुसंख्यक यानी हिंदू समाज, खासतौर पर पढ़े लिखे हिंदुओं को अपनी परंपराओं, रीति-रिवाजों और आध्यात्मिक-सांस्कृतिक चेतना के प्रति उदासीन और कुछ हद तक शर्मसार बना दिया था. आडवाणी सहित भारतीय जनता पार्टी के तमाम बड़े नेताओं के भाषणों में और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं में इसी स्थिति को बार-बार उभारा गया.

इसके बावजूद सरकार की भूमिका में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और आडवाणी की जोड़ी राजनीतिक प्रतिबद्धता होते हुए भी इस दिशा में बड़े फैसले नहीं ले पाई. वह दस साल बाद नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में संभव हुआ. आज जब भूमि पूजन पर सबकी निगाहें हैं तो कांग्रेस के नेताओं के बयान और कार्यक्रम इसी छद्म धर्मनिरपेक्षता के पटाक्षेप को साबित कर रहे हैं.

एक सीधा सा टेस्ट करिए. ट्विटर पर राम मंदिर पर केंद्रित तमाम हैशटैग पर नज़र डालिए. भाजवा व संघ के किसी नेता का बयान भले ही न मिले लेकिन कांग्रेस के नेताओं की लंबी फेहरिस्त दिख जाएगी. इधर, अलग-अलग राज्यों से पार्टी के नेताओं के ऐसे बयान आ रहे हैं जिनमें राम मंदिर आंदोलन में कांग्रेस की भूमिका का बढ़-चढ़ कर उल्लेख किया जा रहा है. बेशक कुछ केंद्रीय नेताओं ने पार्टी की सेक्युलर पहचान की दुहाई देते हुए सावधानी बरतने को कहा है लेकिन प्रदेश स्तर के नेता इसपर कोई तवज्जो नहीं दे रहे हैं.

अन्य राजनीतिक दलों की बात करें तो वामपंथी पार्टियों के अलावा किसी भी दल ने कोई विपरीत स्टैंड नहीं अपनाया. यदि राजद जैसे किसी दल ने कुछ कहा भी तो कोरोना का हवाला देकर धीमी आवाज में. और इसीलिए यह भूमि पूजन अगर एक राजनीतिक काल का पटाक्षेप है तो वहीं एक आरंभ भी. आइंदा सभी दलों को अपने रवैये को रिकैलिब्रेट यानी पुनर्परिभाषित करना पड़ेगा, इसके संकेत साफ दिख रहे हैं.

कुछ लेखकों, स्तंभकारों ने बहुसंख्यकवाद यानी मैजोरिटेरियन राजनीति के खतरों की आशंका जताई है. लेकिन भारतीय संविधान की संरचना ऐसी है कि सभी समुदायों के लिए न्याय और खुशहाली का पर्याप्त प्रायोजन है. और इस सचाई को मुसलमान चिंतक भी मानते हैं कि कांग्रेस-मार्का सेक्युलर राजनीति उनके समाज की तरक्की सुनिश्चित नहीं कर पाई.

अयोध्या का भूमि पूजन अवसर है उस नई राजनीति की नींव रखने का जहां हर कदम अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक की निगाह से न देखा जाए.


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(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, प्रसार भारती में सलाहकार हैं और करेंट राजनीति पर लिखती हैं, यह लेख उनके निजी विचार हैं )

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