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Monday, 6 May, 2024
होममत-विमतहिंदुत्व और वामपंथी दोनों तरह के इतिहासकारों के लिए अबूझ पहेली है भीमा कोरेगांव

हिंदुत्व और वामपंथी दोनों तरह के इतिहासकारों के लिए अबूझ पहेली है भीमा कोरेगांव

भीमा कोरेगांव का महत्व लगातार बढ़ता जा रहा है, लेकिन ये संघर्ष इतिहासकारों के लिए एक चुनौती बना हुआ है कि आखिर इसे भारतीय इतिहास में कैसे फिट किया जाए.

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19वीं सदी के दूसरे दशक में हुए तीसरे ब्रिटिश-मराठा युद्ध ने अगले डेढ़ सौ साल के लिए भारत के राजनीतिक भूगोल का फैसला किया था. इस युद्ध में एक तरफ ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की एक छोटी सी टुकड़ी थी और उनके सामने पेशवा बाजीराव द्वितीय की विशाल सेना थी. ये युद्ध पुणे के पास भीमा नदी के तट पर कोरेगांव में 1 जनवरी, 1818 को लड़ा गया और पेशवा की यहां निर्णायक हार हुई.

इस युद्ध को बेशक इतिहास की किताबों में ब्रिटिश-मराठा युद्ध या एंग्लो-मराठा वार के रूप में पढ़ाया जाता है, लेकिन दरअसल इस युद्ध में मराठा शासक लड़े ही नहीं थे. इस युद्ध के काफी पहले ही मराठा शासकों के पेशवा यानी ब्राह्मण मंत्री ने शिवाजी के वंशजों को सत्ता से बेदखल करके सत्ता खुद संभाल ली थी. दरअसल इस युद्ध का नाम एंग्लो-पेशवा वार होना चाहिए. इसे एंग्लो-मराठा वार क्यों कहा जाता है, ये भारतीय इतिहास लेखन की एक पहेली है.

बहरहाल, भीमा कोरेगांव की लड़ाई भारतीय इतिहासकारों के लिए एक ऐसी उलझन है, जिससे वे दूर ही रहना चाहते हैं. ऐसे इतिहासकारों में तथाकथित राष्ट्रवादी और वामपंथी-उदारवादी दोनों शामिल हैं. भीमा कोरेगांव न तो हिंदू राष्ट्रवादी इतिहास लेखन में फिट होता है और न ही उपनिवेशवाद विरोधी मुख्यधारा के इतिहास लेखन में.

भीमा कोरेगांव की लड़ाई की कहानी बहुत सीधी है. ब्रिटिश और पेशावा दोनों सेनाएं उस दिन आमने-सामने आईं और कुछ ही घंटों में पेशवा की फौज हार गई. ये बात इतनी पुरानी भी नहीं है कि इसे अलग-अलग तरीके से लिखा जाए. इस पूरी कहानी का पेंच ये है कि 834 सैनिकों और 12 अफसरों की उस दिन लड़ने उतरी ब्रिटिश फौज में लगभग 500 सैनिक अछूत मानी जानी वाली महार जाति से थे, जिन्हें पेशवा ने जातीय भेदभाव के कारण अपनी सेना में शामिल करने से इनकार कर दिया था. पेशवा राज में अछूतों की स्थिति बहुत खराब थी और उन्हें इंसान नहीं माना जाता था. उन पर ढाए जाने वाले जुल्मों की दास्तान को दलित साहित्य में बहुतायत में लिखा गया.


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मुख्यधारा के इतिहासकारों के लिए भीमा कोरेगांव के युद्ध में गौरवशाली कुछ भी नहीं है. अछूत सैनिकों के हाथों पेशवा की सेना की हार और ब्रिटिश सेना की जीत के आख्यान को विस्तार से बताने लायक भी नहीं माना गया. इसलिए इतिहास के टेक्स्ट बुक में भीमा कोरेगांव या तो गायब है या फिर फुटनोट की तरह है.

लेकिन, इतिहास लेखन की दलित परंपरा ने इस युद्ध को दलितों को नजरिए से देखा है और वहां से ये युद्ध अत्यंत गौरवशाली नजर आता है. जिन लोगों को इंसान तक नहीं माना गया और जिनकी छाया छूने तक से लोग अपवित्र हो जाते थे, उन्हें जब मौका मिला तो उन्होंने अपने शौर्य की एक शानदार दास्तान कोरेगांव की धरती पर लिख डाली और इंसान होने का दर्जा हासिल कर लिया, जो बात टेक्स्ट बुक में और मुख्यधारा की इतिहास की किताबों में दर्ज नहीं है, भीमा कोरेगांव की वह कहानी दलित लेखकों ने बखूबी दर्ज की है. लाखों दलित आज अगर 1 जनवरी को भीमा कोरेगांव विजय स्तंभ के पास इकट्ठा होते हैं तो दरअसल वे अपने पुऱखों के इसी योगदान को श्रद्धांजलि दे रहे होते हैं.

बाबा साहब डॉ. भीम राव आंबेडकर भी इसी सोच के तहत 1927 में भीमा कोरेगांव आए थे और वीरों को नमन किया था. भीमा कोरेगांव में 1 जनवरी का उत्सव अब एक स्थापित आयोजन है.

2018 से पहले तक सब कुछ ऐसा ही था. साल दर साल 1 जनवरी को वहां मेला लगता था. लोग शांतिपूर्ण तरीके से वहां आते थे, वीरों को नमन करते थे, दलित साहित्य की खरीदारी करते थे और भाषण वगैरह सुनकर अपने घरों को लौट जाते थे. हर साल उनकी संख्या पहले से बढ़ती जा रही थी.

लेकिन, 2018 में पहली बार स्थानीय हिंदुत्ववादी कार्यकर्ताओं ने भीमा कोरेगांव उत्सव का विरोध करने का फैसला किया. उनके उपद्रव के बाद वहां बड़े पैमाने पर हिंसा और प्रतिहिंसा हुई. इसी क्रम में आगे चलकर पुलिस ने हिंसा फैलाने वालों पर नरमी बरती और कुछ वामपंथी बुद्धिजीवियों को हिंसा की साजिश रचने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया. मानों इन वामपंथी बुद्धिजीवियों के कहने पर वहां लाखों लोग आए थे! सच तो ये है कि इन लोगों की बुद्धिजीवी जगत में चाहे जितनी भी हैसियत हो, इनके कहने पर वहां कोई नहीं आया था. खुद इन बुद्धिजीवियों की रिहाई की मांग करने के लिए भी कुछ सौ लोग भी कभी इकट्ठा नहीं हुए.

दरअसल भीमा कोरेगांव की बढ़ती लोकप्रियता और समाज में इसके बढ़ते असर से परेशान होकर हिंदुत्ववादियों ने भीमा कोरेगांव को वामपंथियों के साथ जोड़ने की कोशिश की है. सच ये है कि भीमा कोरेगांव का उत्सव तब से मनाया जा रहा है, जब राजनीतिक शब्दकोश में नक्सलवाद नाम का शब्द आया भी नहीं था और देश में कम्युनिस्ट पार्टी जैसी कोई पार्टी नहीं थी. भीमा कोरेगांव का वामपंथ से कोई लेना-देना नहीं है.


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भीमा कोरेगांव को जातिवाद विरोधी संग्राम के साथ जोड़ने में दलित साहित्य को जो सफलता मिली है, उसकी काट के लिए ही भीमा कोरेगांव में हिंसा की गई थी.

तो फिर भीमा कोरेगांव को अब कैसे देखें? इस सवाल का जवाब जानने का एक तरीका ये है कि पहले ये समझें कि भीमा कोरेगांव को कैसे न देखें.

-भीमा कोरेगांव को उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष के चश्मे से न देखें. जिस समय देश में उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष चल रहा था, उस समय और भी बहुत सारे संघर्ष चल रहे थे और उनका महत्व उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष से कम नहीं है.

-भारत की जो संकल्पना गांधी-नेहरू की थी, यानी उनका जो आइडिया ऑफ इंडिया है, उससे भीमा कोरेगांव को न      देखें. राष्ट्रवाद की उनकी व्याख्या बेहद इकहरी है और उसमें कई समस्याएं हैं.

-भारत के इतिहास को हिंदू-मुसलमान या देसी बनाम विदेशी जैसे द्वेत के चश्मे से देखने वालों को भी भीमा कोरेगांव       समझ में नहीं आएगा. ये लड़ाई ऐसी किसी संकल्पना में फिट नहीं बैठती.

भीमा कोरेगांव की लड़ाई को देखने का सही नजरिया मानव मुक्ति के संग्रामों से मिल सकता है. फ्रांसिसी क्रांति के लक्ष्य स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के दृष्टिकोण से भीमा कोरेगांव को समझा जा सकता है. मानवाधिकारों और सिविल राइट्स के लिए दुनिया भर में चलने वाली संघर्षों की पंरपरा में ही भीमा कोरेगांव के संग्राम को फिट किया जा सकता है. यह मानवीय गरिमा को हासिल करने का उत्सव है.

(लेखक भोपाल स्थित माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय विश्वविद्यालय पत्रकारिता और संचार में सहायक प्रोफेसर हैं. वे इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व मैनेजिंग एडिटर भी रहे हैं. इन्होंने मीडिया और सोशियोलोजी पर कई किताबें भी लिखी हैं.यह लेख उनका निजी विचार है.)

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