scorecardresearch
Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमत‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ ने खोली है RSS-BJP की वर्चस्ववादी राजनीति के प्रतिरोध की राह

‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ ने खोली है RSS-BJP की वर्चस्ववादी राजनीति के प्रतिरोध की राह

इस यात्रा को भले ही ज़्यादा तवज्जो नहीं मिली, लेकिन इसने चुपचाप मोहब्बत की दुकान से एक कदम आगे बढ़कर अन्याय के शिकार अलग-अलग वर्गों के बीच दर्द का रिश्ता बना दिया जो भविष्य की राजनीति का आधार हो सकता है.

Text Size:

क्या ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ ने चुपके से कुछ ऐसा हासिल कर लिया है जो इससे कहीं ज्यादा प्रसिद्ध असली भारत जोड़ो यात्रा नहीं कर पाई थी? मुंबई से लौटते हुए, जहां यात्रा का 17 मार्च को समापन हुआ, मैंने खुद से यह दिलचस्प सवाल पूछा. भारत जोड़ो यात्रा के बारे में दिलीप डिसूजा का लिखा रूचिकर और विचार-प्रधान यात्रा-वृत्तान्त Road Walker: A Few Miles on the Bharat Jodo Yatra इस दौरान मेरे साथ था.

मेरा यह सवाल थोड़े उल्टे मिजाज़ का है. यात्रा के दूसरे संस्करण यानी ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ का वैसा जोरदार स्वागत नहीं हुआ. हालांकि, यात्रा के इस दूसरे संस्करण में ऐसी कई बातें शामिल थीं जिससे पहली यात्रा को शानदार सफलता मिली थी. राहुल गांधी यात्रा के दौरान पूरे 6,700 किलोमीटर तक चले और कांग्रेस के स्थानीय, प्रादेशिक तथा राष्ट्रीय स्तर के नेता इस यात्रा में उनके साथ चल रहे थे. कई जोरदार रैलियां हुईं और रैलियों के इस सिलसिले का समापन शिवाजी पार्क में ‘न्याय मंजिल’ नाम की ‘इंडिया’ की महारैली में हुआ.

पहली यात्रा की तरह इस बार भी मेरे लिए कई खुशगवार लम्हे आए. इस यात्रा में मणिपुर में कुकी महिलाओं के चेहरे पर मैंने आशा की जो ज्योति देखी वे मुझे लंबे समय तक याद रहेगी. ऐसा एक यादगार पल वो भी रहा जब मैंने देखा कि राहुल गांधी बुंदेलखंड (मध्य प्रदेश) की दलित महिलाओं को पहनने के लिए चप्पल भेंट कर रहे हैं — इन महिलाओं को आज भी अपने गांव में खाली पैर चलना पड़ता है, उन्हें चप्पल पहनने की मनाही है. कई जगहों पर लोगों के बीच यात्रा के प्रति शानदार स्वागत-भाव देखने को मिला, स्वागत समारोह हुए और स्थानीय लोगों के साथ बड़ी मानीखेज बातचीत हुई जिसके बड़े सुंदर वीडियो बने हैं. फिर भी, मुख्यधारा की मीडिया ने इस यात्रा के बारे में शायद ही कोई रुचि दिखाई. यहां तक कि वैकल्पिक मीडिया में भी इस बार पहली यात्रा की तरह उत्साह-भाव नहीं था.

मीडिया ने अपनी खबरों में यात्रा को तवज्जो नहीं दी तो इसके पीछे कोई साजिश खोजने की ज़रूरत नहीं. किसी भी चीज की पुनरावृत्ति पहले जैसी उत्तेजक नहीं होती.‘भारत जोड़ो यात्रा’ की कामयाबी ने बड़ी ऊंची, लगभग असंभव सी उम्मीदें जगा दी थीं. इसके अलावे एक बात ये भी है कि यात्रा गाड़ी पर चढ़कर हो तो वे लोगों का ध्यान उतना नहीं खिंचती जितना कि पदयात्रा. यात्रा का समय लोकसभा चुनावों के बहुत करीब था और विधानसभा के चुनावों में आए कड़वे जनादेश ने इसे और भी बदतर बना दिया. इस बात को भी लेकर सवाल उठे कि जब कांग्रेस इंडिया गठबंधन का हिस्सा बन चुकी है तो फिर यात्रा का आयोजन आप-अकेले क्यों कर रही है. ऐसी कुछ आशंकाएं सच साबित हुईं — खासकर पश्चिम बंगाल में. चाहे इसे संयोग कहें या फिर प्रयोग, लेकिन यात्रा के दौरान ही इंडिया गठबंधन और कांग्रेस से कई लोगों ने पल्ला झाड़ लिया. अब इन चीज़ों को राजनीति के लिहाज़ से अपना अच्छा विज्ञापन तो नहीं ही कहा जा सकता.

इन तमाम चुनौतियों के मद्देनज़र अचरज की बात ये नहीं कि यात्रा राजनीति की गंगा की धारा बदलने में कामयाब नहीं हुई बल्कि अचरज की बात तो ये है कि इतनी चुनौतियों के बावजूद यात्रा ने अपनी झोली में कुछ ठोस उपलब्धियां बटोरीं.


यह भी पढ़ें: बेरोजगारी अब चुनावी मुद्दा है, क्या ‘पहली नौकरी पक्की’ के सहारे कांग्रेस इसे भुना सकती है


क्या रहा पहली यात्रा का हासिल

पहली ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की कामयाबी के बारे में बात करते हुए डिसूजा ने मुख्य रूप से तीन बातें गिनाई : “पहली ये कि जो लोग इस देश को तोड़ने में लगे हैं उनके खिलाफ इस यात्रा ने खड़े होकर दिखाया. दूसरी बात, यात्रा में लोगों के दुख-दर्द को पूरे मनोयोग और ईमानदारी से सुना गया. लोगों ने यात्रा के दौरान अपनी चिंताओं जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, महिलाओं के मुद्दे, नौकरी, महंगाई आदि से आगाह किया. तीसरी बात कि ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के सहारे कांग्रेस ने लोगों की इन चिंताओं के समाधान की अपनी योजना तैयार की, देश के बारे में अपने स्वप्न को आकार दिया.” डिसूजा का निष्कर्ष है कि कांग्रेस ने ऊपर दर्ज शुरुआती दो कसौटियों पर तो काफी अच्छा प्रदर्शन किया, लेकिन तीसरी कसौटी पर कामयाब साबित होने के लिए अभी कुछ और भी ठोस करना होगा. डिसूजा के मुताबिक, ‘भारत जोड़ो यात्रा’ ने संघर्ष की क्षमता का इज़हार करके और देश के लोकतंत्र को बचाने की मुहिम में लगे लोगों में नए सिरे से हौसला जगाकर आशा की नई जोत जलाई है.

मैंने दिप्रिंट के इस स्तंभ में ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के बारे में निरंतर लिखा और यात्रा की तीन उपलब्धियां बताई थीं. देश के एतबार से देखें तो यात्रा ने उम्मीद जगाई, मोहब्बत की एक नई ज़ुबान गढ़ी और राजनीति तथा पूंजीपतियों के नापाक गठजोड़ के बारे में खुलकर बात करने का साहस जगाया. कांग्रेस पार्टी के लिहाज़ से देखें तो यात्रा कार्यकर्ताओं के लिए काम करने की वजह लेकर आई और कांग्रेस के नेताओं में यात्रा ने विश्वास जगाया, जहां तक राहुल गांधी का सवाल है — ‘भारत जोड़ो यात्रा’ से उनकी छवि बदल गई, वे ‘पप्पू’ की बना दी गई छवि को छिन्न-भिन्न करके एक गंभीर नेता के रूप में उभरे. इस यात्रा के सहारे उन्होंने वो सब अर्जित किया जो उन्हें विरासत में मिला था.

‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ को पहली यात्रा के कसौटियों पर आंकना आकर्षक लग सकता है. एक लालच ये भी हो सकता है कि क्यों ना आगामी चुनावों पर होने वाले प्रभाव के लिहाज़ से इस दूसरी यात्रा की उपलब्धियों का आकलन करें. इस मामले में तो जवाब के रूप में बिल्कुल साफ बात ये है कि — दिल्ली में बैठकर मीटिंग करने से कहीं बेहतर है यात्रा करना, जहां तक लामबंदी का सवाल है — इस मोर्चे पर भी यात्रा अपने पूरे रास्ते में कमो-बेश असरदार रही. यात्रा अपने रास्ते में जिन प्रदेशों से होकर गुज़री वहां निकट अतीत में कांग्रेस का जैसा चुनावी प्रदर्शन रहा है, उसे देखते हुए लोगों को जुटाने के मामले में यात्रा निश्चित ही असरदार कही जाएगी, लेकिन, इसके आधार मैं झटपट किसी हरे-भरे फैसले पर नहीं पहुंचना चाहता — किसी रैली या रोड-शो में जुटी भीड़ किसी पार्टी के चुनावी प्रदर्शन का संकेतक नहीं होती.

ठीक इसी तरह ‘यात्रा’ राहुल गांधी के निजी सफर — जो कि नेहरू की भारत को खोज लेने की बेचैनी का निजी संस्करण है — को उनके अगले चरण में लेकर आई है. लोगों के असल की ज़िंदगी के दैनंदिन के मसलों से राहुल का जुड़ाव पहले से कहीं ज्यादा गहरा हुआ है. उन्होंने जनता-जनार्दन से संवाद स्थापित करने का अपना एक व्याकरण रचा है — लोगों से मिलकर राहुल उनके मसलों पर आपस की बातचीत करते हैं और जनता-जनार्दन से संवाद स्थापित करने की उनकी यह शैली उस बड़जोर और बड़बोले संवाद-शैली की काट है जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विशिष्टता हासिल कर रखी है.

ये तमाम बातें किसी राजनीतिक पर्यवेक्षक की रूचि की हो सकती हैं, लेकिन यात्रा की कामयाबी के आकलन का इसे असल पैमाना नहीं बनाया जा सकता. इस दूसरी यात्रा का पहली यात्रा के मानकों पर मूल्यांकन करने के लोभ से बचना होगा.


यह भी पढ़ें: बीजेपी की रणनीति पर गौर कीजिए, 2024 नहीं बल्कि 2029 की तैयारी कर रही है


‘भारत जोड़ो यात्रा’ 2.0 की वास्तविक सफलता

जब ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ शुरू हुई तो मैंने इस कॉलम में लिखा था कि इस यात्रा का मकसद बीजेपी-आरएसएस के वर्चस्व को चुनौती देना है: “विपक्ष के लिए जरूरी है कि वह विचारों की लड़ाई जीते और संविधान-वर्णित मान-मूल्यों को नई पीढ़ी के लिए नये मुहावरे में पेश करके उन्हें अपनी तरफ खींचे. विपक्ष के लिए ज़रूरी है कि वह हमारे भारतीय राष्ट्रवाद की विरासत पर दावा जताए और साबित करे कि हम लोग अपने सभ्यतागत विरासत के सच्चे वारिस हैं. जो लोग अपने गणराज्य पर फिर से अपना दावा कायम करना चाहते हैं उनके लिए विचारधाराई वर्ण पट्ट को पुनर्परिभाषित करना और उसपर फिर से पकड़ बनाना ज़रूरी है.” यह रातों-रात नहीं किया जा सकता और हमें चमत्कारों की उम्मीद नहीं पालनी चाहिए, लेकिन देर या सबेर किसी ना किसी को इसकी शुरुआत करनी होगी. इस यात्रा की असल सफलता विचारों की वर्चस्व-रोधी राजनीति के दायरे को एक से ज्यादा तरीकों से विस्तार देने में है.

पहली बात, एक ऐसे राजनीतिक परिवेश में, जहां विपक्ष का बेशतर हिस्सा धकियाकर भारतीय जनता पार्टी की बहुसंख्यकवादी लकीर का पिछलग्गू बनने के लिए मजबूर कर दिया गया है, राहुल गांधी की यह दूसरी यात्रा धर्मों-संप्रदायों से सम्मानजनक दूरी बनाए रखने के संविधान-सम्मत आदर्श पर अनवरत और अविचल चलती रही. राम मंदिर प्राण-प्रतिष्ठा के सहारे देश में जो धर्मोन्माद का वातावरण तैयार किया गया उसे देखते हुए ये बात और भी मानीखेज़ है. बगैर तीखे तेवर अपनाए और बिना अपनी धार्मिक निष्ठाओं का परित्याग किए राहुल गांधी ने अविचल भाव से धर्मनिरपेक्ष रूख अपनाए रखा.

दूसरी बात कि यात्रा ने मोहब्बत की एक सर्व-सामान्य भाषा को इंसाफ की खास ज़ुबान में बदलने का काम किया. यात्रा का संदेश बड़ा साफ था : नफरत की राजनीति अन्याय की बुनियाद पर पनपती है. सामंजस्यपूर्ण सह-जीवन का रास्ता है अन्याय के शिकार लोगों को आपस में जोड़ना — उनके बीच दर्द का रिश्ता कायम करना. इस यात्रा ने राजकीय हिंसा, जातिपरक हिंसा, लैंगिक आधार पर की जाने वाली हिंसा, क्षेत्रगत उपेक्षा, आर्थिक गैर-बराबरी आदि के शिकार लोगों के दर्द को समझा. अगर पहली यात्रा ने राजनीति और पूंजीपतियों के नापाक सांठगांठ के बारे में सार्वजनिक तौर पर आवाज़ बुलंद करने के रास्ते खोले थे वैसे ही यह दूसरी यात्रा सामाजिक और आर्थिक गैर-बराबरी की कठोर सच्चाई पर एक पुरजोर हमला थी — बिल्कुल वैसे ही जैसे कोई सामने खड़े होकर मुंह पर मुक्का मार दे.

तीसरी बात, यात्रा न्याय को लेकर उछाले जाने वाले आम जुमलों की पकड़ से बहुत आगे निकल गई. यात्रा ने न्याय से जुड़ी प्रतिबद्धता को पंचकोणीय राजनीतिक एजेंडे में तब्दील किया है. यह एजेंडा अन्याय के शिकार पांच मुख्य सामाजिक वर्गों (युवाजन, महिला, किसान, मजदूर तथा वंचित समुदाय) से जुड़ा है और एजेंडे में इन पांच वर्गों में प्रत्येक के साथ एक विशेष ‘गारंटी’ जुड़ी है. इनमें से कुछ गारंटियां जैसे — न्यूनतम समर्थन मूल्य(एमएसपी) की कानूनी गारंटी, एक साल तक का मानदेय आधारित अप्रेंटिसशिप का अधिकार, सरकारी नौकरियों में महिलाओं को 50 प्रतिशत तक आरक्षण, जाति जनगणना और शहरी रोजगार गारंटी आगे के वक्त में कुछ समय तक राष्ट्रीय स्तर पर एजेंडे को आकार देने वाले साबित होंगे. बीजेपी अभी ही इन मांगों में से कुछ को अपने एजेंडे में शामिल करने को मजबूर हो गई है. ऐसा आगे और भी होता देखने को मिलेगा क्योंकि कांग्रेस के एजेंडे को दरकिनार करके चलना मुमकिन नहीं.

इस सिलसिले की आखिर की बात ये कि इस यात्रा ने देश की मुख्य विपक्षी पार्टी को उसके मुख्य सामाजिक आधार की ओर उन्मुख किया है और यह सामाजिक आधार बनता है देश के सामाजिक-आर्थिक पिरामिड के सबसे निचले स्तर पर रह रहे लोगों से. यह बस पहला कदम है. सामाजिक आधार को फिर से हासिल करने का काम कत्तई आसान नहीं होने जा रहा. इसके लिए संगठन और नेतृत्व में हर स्तर पर पुनर्रचना करनी होगी. साथ ही, इस काम में एक जोखिम भी उठाना होगा कि जो सुविधा-वंचित हैं वे लामबंद हों उसके बहुत पहले ही सुविधा-संपन्न तबका अपना हमला बोल सकता है, लेकिन फिर जिस समय में हम रह रहे हैं उसमें वर्चस्व-रोधी राजनीति का मोर्चा तैयार करने का कोई और रास्ता नहीं है. ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ ने इस सफर की शुरुआत की है.

(योगेन्द्र यादव भारत जोड़ो अभियान के राष्ट्रीय संयोजक हैं. उनका एक्स हैंडल @_YogendraYadav है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


यह भी पढ़ें: आपातकाल की विरासत? 1977-1989 के लोकसभा चुनावों ने भारत के राजनीतिक परिदृश्य को कैसे बदला


 

share & View comments