भारत में हाल की घटनाओं ने देश की मीडिया में चीनी घुसपैठ की संभावनाओं को उजागर किया है. इससे एक बड़ी चर्चा किए जाने की जरूरत का रास्ता खुलता है.
आइए संयुक्त राज्य अमेरिका पर विचार करें, जो मुक्त बाजार पूंजीवाद यानी फ्री मार्केट कैपिटलज़म का गढ़ है. ऐसे दो उद्योग हैं जहां विदेशी निवेश प्रतिबंधित और नियंत्रित है: रक्षा और मीडिया. मीडिया मुगल रूपर्ट मर्डोक को अमेरिकी कंपनियों को हड़पने से पहले अपनी राष्ट्रीयता बदलनी पड़ी और अमेरिकी नागरिक बनना पड़ा. इस मामले में भारत ने अमेरिका की नकल की है. एक अर्द्ध-काल्पनिक कहानी जो चारों ओर घूम रही है, उसके मुताबिक कई साल पहले, एक विदेशी बिजनेस पेपर इस बात को लेकर “निश्चित” था भारत के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) नियमों में संशोधन किया जाएगा, जिससे देश में इसका प्रवेश संभव हो जाएगा.
ऐसा नहीं हुआ – हमारी जानकारी के मुताबिक आंशिक रूप से भारतीय प्रिंट टाइकून के कड़े विरोध के कारण. यहां तक कि इस लेखक जैसे कैपिटल के फ्री मूवमेंट के घोर समर्थक को भी इस बात से संतुष्ट होना चाहिए कि हमारी सरकार – मेरा मानना है कि यह नरसिम्हा राव की सरकार – इस “उदारीकरण” से दूर रही. जाहिर है, हमें अमेरिकी सरकार की गलतियों और अच्छी नीतियों दोनों से सीखना चाहिए.
हमारे यहां समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, रेडियो स्टेशनों और टीवी चैनलों पर प्रतिबंध हैं. लेकिन हर जगह मौजूद इंटरनेट के जाल ने हमें नई समस्याओं का सामना करने के लिए मजबूर कर दिया है. क्या कोई विदेशी किसी भारतीय वेबसाइट, कॉन्टेंट प्रोवाइडर या या अपलोडर का मालिक हो सकता है? यह एरिया में नज़र रख पाना लगभग असंभव है. यहीं पर हम अपने प्रतिबंधात्मक कानूनों में कमजोरियों का बहुत सारा खेल देखते हैं. हमारे पास खुद अपनी स्टाइल के एनजीओ और थिंक-टैंक के साथ एक अतिरिक्त मुद्दा है जो लगभग पूरी तरह से विदेशी पार्टियों द्वारा वित्त पोषित हैं और हमारे देश में सूचना प्रवाह पर हावी होने का प्रयास कर रहे हैं.
विवरण मायने रखता है
विदेशी-नियंत्रित या निर्देशित सूचना का फ्लो सभी ख़राब नहीं होते हैं. लेकिन इसमें कई बातें छिपी हुई हैं. इंद्रप्रस्थ (क्षमा करें, दिल्ली) में हमारी शाही, निरंकुश सरकार ने सीमा शुल्क अधिनियम के तहत आयात प्रतिबंधों का लाभ उठाकर सलमान रुश्दी की द सैटेनिक वर्सेज पर प्रतिबंध लगा दिया, जो विदेशों में प्रकाशित हुई थी. यह स्पष्ट नहीं है कि रुश्दी को भारतीय मूल का होने के कारण सज़ा दी गई या ब्रिटिश होने के कारण. मुझे गुप्त रूप से संदेह है कि महान दिल्ली के राजनीतिक प्रतिष्ठान के लोग पूर्वाग्रह से ग्रस्त थे क्योंकि रुश्दी मेरे गृह नगर, मुंबई में वार्डन रोड (क्षमा करें भूलाभाई देसाई रोड) से थे. रुश्दी को सज़ा इसलिए दी गई क्योंकि उन्होंने दिल्ली के पूर्व वीवीआईपी को नाराज़ कर दिया था. ऐसे विवरण मायने रखते हैं.
यदि ऐसे देश हैं जिन्हें हम अपना शत्रु मानते हैं, तो दो बातें दिमाग में आती हैं: पाकिस्तान और चीन. पहले वाले या पाकिस्तान के साथ तो हमारा पुराना लेना-देना है, जो, मुझे संदेह है, हमारे परपोते के दिनों में भी बनी रहेगी. जबकि बाद वाले या चीन का मामला दिलचस्प है: बीजिंग ने अनावश्यक रूप से हमारे साथ बढ़ते रिश्ते को खतरे में डाल दिया है, जो डेंग जियाओपिंग के व्यावहारिक दृष्टिकोण का परिणाम था. शक्तिशाली ग्रिजली भालुओं के गले लगने की स्वीकृति के प्रति हमारी पुरानी आपत्तियों और संदेहों के बावजूद, उन्होंने हमें वस्तुतः पश्चिम की बाहों में धकेल दिया है. हाल के दिनों में, हमने एक नया प्रतिद्वंद्वी बना लिया है – और मुझे इस देश के नाम से पहले एक विशेषण पर जोर देने की ज़रूरत है – सैंक्टिमोनियस कनाडा.
पाकिस्तानी, चीनी या कनाडाई कनेक्शन वाली किसी भी वेबसाइट, कॉन्टेंट प्रोवाइडर, एनजीओ और थिंक-टैंक को संदेह की नज़र से देखना बिल्कुल भी अनुचित नहीं है. आख़िरकार, आइए हम इसे समरूपता के लेंस से देखें. यदि कोई भारतीय-नियंत्रित इकाई इस्लामाबाद, बीजिंग, या ओटावा में अपना बेस बनाती और इस्लामिक गणराज्य पाकिस्तान में ईसाइयों और अहमदियाओं के उत्पीड़न, गौरवशाली पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना में उइगर और तिब्बतियों की कैद के बारे में जानकारी प्रसारित करना शुरू कर देती, या सैंक्टिमोनियस डोमिनियन ऑफ कनाडा में बड़े पैमाने पर इंडोफ़ोबिया के बारे में सूचना का प्रसार करती है को क्या यह स्वीकार किया जा सकेगा? क्या इस जानकारी को फैलाने वाले सिर्फ यह दलील देकर बच सकते हैं कि वे सिर्फ सच बोल रहे थे? बिल्कुल नहीं.
पहले दो देशों में, उन्हें बंद कर दिया जाएगा और चाभियां फेंक दी जाएंगी. तीसरा सबसे दिलचस्प है. सैंक्टिमोनियस कनाडा के युवा प्रधानमंत्री के यह कहने की संभावना है कि इंडोफोबिया की शिकायत करने वाले छिप हुए नाज़ी लोग हैं और उनके बैंक खाते फ्रीज कर दिए जाने चाहिए.
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कुल्हाड़ी की जगह पर छुरी का प्रयोग
दिल्ली में वर्तमान व्यवस्था के लिए मेरे दो विचार: आइए हम लकड़हारे की कुल्हाड़ी के बजाय सर्जन की छुरी का उपयोग करें. आयकर विभाग में हमारे विशेषज्ञ नौकरशाहों का उपयोग करके इन घातक और गंभीर विदेशी घुसपैठों से सबसे अच्छी तरह निपटा जाता है. ट्रायल शुरू होने से पहले ही और जैसे ही हमारे कर मठाधीशों ने अति-सम्मानित विदेशी प्रसारकों और गैर सरकारी संगठनों के खिलाफ आरोपों को प्रकाशित किया, वे भिड़ गए. रोना-धोना, शिकायत करने, मीडिया की स्वतंत्रता या मानवीय गैर सरकारी संगठनों पर हमले वाली बातें ख़त्म हो गईं.
विश्वसनीय आरोप (और अभी तक, वे केवल “विश्वसनीय आरोप” हैं, नवाब जस्टिन से संकेत लेते हुए) ने उन्हें टैक्स फ़िडलर बनने की इच्छा दिखाई. और यद्यपि भारतीय करों का भुगतान करना पसंद नहीं करते हैं, फिर भी जब दूसरों को, विशेष रूप से विदेशियों को भयानक नोटिसों का सामना करना पड़ता है, जो अब दो भाषाओं में ईमेल द्वारा तेजी से आते हैं, तो हम धोखाधड़ी की भावना का अनुभव करते हैं, जिनमें से एक के साथ मुझे कुछ कठिनाई होती है.
द्विभाषी कर नोटिस छुरी के समान हैं; आतंकवाद के दस्तावेज़ कुल्हाड़ियां हैं. जब छुरी इतनी आसानी से घाव कर सकती है, तो कुल्हाड़ियों के उपयोग का सहारा क्यों लिया जाए?
मैं एक बूढ़ा आदमी हूं जिसे 50 और 60 का दशक याद है. मुझे दो पत्रिकाएं याद आती हैं: स्पैन, अमेरिकी सूचना सेवा (केंद्रीय खुफिया एजेंसी) द्वारा प्रकाशित और सोवियत लैंड, सोवियत दूतावास (केजीबी) द्वारा प्रकाशित. ये पत्रिकाएं आम तौर पर अपने भारतीय कॉन्ट्रिव्यूटर्स को निरंतर खराब या गैर-ज़रूरी मटीरियल लिखने के लिए भारी रकम का भुगतान करती थीं.
आज, हमें बताया जाता है कि दिल्ली में भारत-विरोधी स्वयंभू फर्जी बुद्धिजीवियों और एनआरआई पत्रकारों को भरपूर इनाम दिया जाता है. ऐसा प्रतीत होता है कि स्व-नियुक्त स्कैंडिनेवियाई (क्या मुझे ‘सैंक्टिमोनियस स्कैंडिनेवियाई’ कहना चाहिए था?) निर्णय लेने वाले संगठन एक देश के रूप में हमारे भाग्य पर शोक व्यक्त करने वाली विचित्र रिपोर्ट तैयार करने के लिए रम पीने वाले भारत-विरोधी वामपंथियों के एक ही छोटे समूह का बार-बार सर्वेक्षण करते हैं. किसी को आश्चर्य होता है कि वे उन लोगों से बात क्यों नहीं करते जो भूलाभाई देसाई रोड या इंदिरा नगर में रहते हैं!
50 के दशक में हमारे देश में बार-बार तोड़फोड़ की कोशिशों की ऐतिहासिक स्मृति हमारा मार्गदर्शन करती रहेगी. हमें न केवल पाकिस्तान, चीन और कनाडा से, बल्कि फंडिंग, संरक्षण और प्रभाव के सभी विदेशी स्रोतों से सावधान रहना चाहिए. लेकिन मुझे यह दोहराना होगा कि आतंकवाद के आरोप अजीब लगते हैं; आयकर चोरी के आरोप सुरुचिपूर्ण और पर्याप्त दोनों हैं.
(जयतीर्थ राव एक सेवानिवृत्त व्यवसायी हैं जो मुंबई में रहते हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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