जिसे आप ‘कैच द रेन ’ समझ रहे हैं वह वास्तव में ‘कैच द रिवर ’ है.
आखिरकार कैच द रिवर मिशन शुरू हो गया. तमाम किंतु–परंतु के बावजूद सुप्रीम दवाब काम आया और मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्रियों ने यह मान लिया कि नदी शिकार में उन्हें जो हिस्सा मिल रहा है वह पर्याप्त है.
रबी के सीजन में उत्तर प्रदेश डीपीआर में वर्णित डाटा से ज्यादा पानी की मांग कर रहा था जिसे मध्य प्रदेश ने साफ मना कर दिया था. अब इस मुद्दे पर ‘समझौता हुआ माना जाए’ जैसा कुछ सहमति हो गई है.
‘केन-बेतवा नदी शिकार एग्रीमेंट’ इसलिए अहम है क्योंकि यह प्रस्तावित 31 योजनाओं का झंडाबरदार बनने जा रहा है. यानी केन-बेतवा प्रोजेक्ट की सफलता या असफलता यह तय करेगी कि भारतवर्ष की नदियां अनुशासन में रहकर नियंत्रित बहेंगी या नहीं. लेकिन कुछ सवाल है, सवाल जो कई सौ पन्नों के एग्रीमेंट में जगह नहीं बना पाए.
‘बिटविन द लाइन’ कहे जाने वाले इन सवालों पर जाने से पहले एक नज़र इस विहंगम परियोजना पर डाल लीजिए–
केन और बेतवा दोनों ही नदियां मध्य प्रदेश से निकलती हैं. केन जबलपुर के पास से निकलकर पन्ना राष्ट्रीय उद्यान के बीच से बहती हुई बांदा के पास यमुना में मिल जाती है और बेतवा होशंगाबाद के पास से निकलती है और ओरछा से होती हुई हमीरपुर के पास यमुना में मिल जाती है. दोनों ही नदियां अंतिम रूप से यमुना के माध्यम से गंगा में मिलती हैं. इसमें चंबल को भी शामिल कर लीजिए. प्रयागराज के महासंगम में गंगा को मध्य प्रदेश की इन्ही नदियों से पानी मिलता है. इसका एक मतलब यह भी है कि वाराणसी की गंगा में चंबल, केन और बेतवा का पानी ही होता है.
इन दोनों नदियों का फ्लोरा-फोना और व्यवहार एक ही है, यानी जब गर्मियों में नदियां सूखती है तो दोनों ही नदियों में पानी कम हो जाता है और जब बरसात में नदियां उफनती है तो दोनों ही नदियों में बाढ़ आ जाती है. दोनों का कैचमेंट एरिया 90 सेंटीमीटर वर्षाजल वाला है. दोनों नदियों के हालात कमोवेश एक जैसे है. चूंकि केन का बहाव क्षेत्र पन्ना राष्ट्रीय उद्यान से होकर गुजरता है इसलिए यहां नागरिक समाज का दवाब कम है और इसलिए यह नदी तुलनात्मक रूप से थोड़ी ज्यादा साफ और ज्यादा पानी वाली है.
गर्मियों में भी केन में पानी बना रहता है क्योंकि जानवर सिर्फ जरूरत का पानी लेते हैं लालच का नहीं. वहीं बेतवा घरेलू और कारखानों का दवाब झेलने के कारण सर्वाधिक प्रदूषित है.
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सरकार की नज़र जंगल से गुजरने वाले केन के साफ सुधरे पानी पर है. पन्ना राष्ट्रीय उद्यान में एक बड़ा बांध बनाया जाएगा इसमें रोके गए पानी को एक नहर में डाला जाएगा और खींचकर बेतवा तक ले जाया जाएगा. इस बीच कई और बांध और कई नहरे बनाई जाएगीं. यही है रिवर लिंक परियोजना.
अब इस सवाल का कोई मतलब नहीं कि बांध के निचले हिस्से में जानवरों को पानी कैसे मिलेगा क्योंकि इस कवायद से लाखों इंसानों तक पानी पहुंचाने का दावा किया जा रहा है. लेकिन नारों की शक्ल में मौजूद दावों की उम्र भी ज्यादा नहीं होती और वे तथ्यों के आगे टिक नहीं पाते. कुछ महीने पहले ही पर्यावरण मंत्रालय के एक एक्सपर्ट ग्रुप ने केन-बेतवा लिंक प्रोजेक्ट के तहत बनने वाले एक अहम बांध को पर्यावरणीय मंजूरी देने से मना कर दिया.
यह बांध मध्य प्रदेश के अशोक नगर जिले के डिंडौनी में बनाया जाना प्रस्तावित था. इस मनाही का तात्कालिक और तकनीकी कारण यह है कि पर्यावरणीय मंजूरी के लिए उपयोग किए जाने वाला डाटा डेढ़ साल से ज्यादा पुराना नहीं होना चाहिए और इसलिए दोबारा जन सुनवाई की जरूरत बताई गई है ताकि पता चल सके की स्थिति क्या है. इस नामंजूरी के पीछे पिछले साल सीईसी यानी केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति की सिफारिशें हैं, जिसने तमाम सरकारी दवाबों के बाद भी इस परियोजना पर गंभीर प्रश्न खड़े किए.
सरकारी कागज कहते हैं कि इस परियोजना में पन्ना राष्ट्रीय उद्यान का बाहरी हिस्सा ही डूब में आएगा इसलिए जानवरों की बसाहट को लेकर जताई जा रही चिंता इनवायरमेंट रोमांटिसिज्म से ज्यादा कुछ नहीं है. इन दोनों नदियों पर पहले ही 22 बांध मौजूद हैं. अब छह और प्रस्तावित हैं तो पुराने बांधों का क्या होगा? क्या बांधों के जरिए नदियों को जोड़ना ही एकमात्र उपाय है? इन नहरों से पन्ना राष्ट्रीय उद्यान की कितनी जमीन दलदली होगी, इसका सिर्फ अनुमान ही व्यक्त किया जा सकता है.
नीति दस्तावेज मानकर चलते हैं कि नहरों और बांधों के निर्माण से उसके आसपास की जमीन दलदली नहीं होती. अवैध शिकार के चलते यहां पहले ही बाघ न के बराबर बचे थे. अब सरकार ने करोड़ों खर्च कर फिर से बाघों को यहां बसाने की शुरुआत की है. यह खर्च परियोजना बजट का हिस्सा नहीं है और परियोजना का बजट ‘सुरसा के मूंह’ की तरह बढ़ता ही जा रहा है.
शुरुआत में 1994-95 के मूल्य स्तर पर इसकी लागत 1,998 करोड़ रुपए रखी गई थी. वर्ष 2015 में यह करीब 10,000 करोड़ रुपए पहुंच चुकी थी और महज पांच साल बाद अनुमान लगाया जा रहा है कि इस परियोजना की लागत 28,000 करोड़ रूपए होगी.
कुछ रोचक तथ्य और भी हैं. डीपीआर के मुताबिक, उत्तर प्रदेश को केन नदी का अतिरिक्त पानी देने के बाद मध्य प्रदेश करीब इतना ही पानी बेतवा की ऊपरी धारा से निकाल लेगा. ऐसी कई बातें डीपीआर में है जो इस सच्चाई को बताती है कि पानी को बनाया नहीं सिर्फ बचाया जा सकता है. लेकिन पानी बचाने का मतलब दूसरे के हिस्से का पानी छीनना नहीं है. परियोजना के दूसरे चरण में मध्य प्रदेश चार बांध बनाकर रायसेन और विदिशा जिलों में नहरें बिछाकर सिंचाई के इंतजाम करेगा. लेकिन इस पूरी कवायद में कहीं भी यह नहीं बताया गया कि क्या इन नदियों के पास इतना पानी है?
‘कैच द रिवर ‘ मिशन का यही संदेश है नदी को पकड़ा जाए और उसका सारा पानी छीन लिया जाए. वैसे भी नदी धरती पर मानव कल्याण के लिए ही आई है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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अभय मिश्रा जी ने अच्छी खबर लिखी है। लेकिन एक जगह ध्यान आकर्षित कराना चाहुँगा। – दरअसल, बेतवा नदी का उद्ग्म मप्र के रायसेन जिले के अंतर्गत आने वाला कुम्हारागाँव में स्थित झिरी स्थान से हुआ है। झिरी रातापानी अभयारण क्षेत्र के अंतर्गत आता है।
नोटः- होशंगाबाद इसका उद्ग्म स्थल नहीं है। बाकी ख़बर ज्ञानवर्धन करती है। जोकि आप साधुवाद के पात्र हैं।
Pessimists like Mr. Mishra abound in our society. These people are the bane of our society. They are not willing to take up the cudgels and bring about change in the lives of millions. Nor will they allow anyone else to do so. Their sole prerogative in life os ro be armchair critics. It a pity that a reputed media outlet like The Print provides them with a platform. All they do is to misuse the platform to spread their half-baked theories on environmental sustainability.