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Monday, 1 September, 2025
होममत-विमतबीजिंग की दोहरी रणनीति: शी ने मोदी को साधा, लेकिन सबकॉन्टिनेंट पर पकड़ भी बढ़ाई

बीजिंग की दोहरी रणनीति: शी ने मोदी को साधा, लेकिन सबकॉन्टिनेंट पर पकड़ भी बढ़ाई

चीन ने न सिर्फ भारत के पड़ोसियों को साथ लाने में सफलता पाई है, बल्कि खुद को अनिवार्य मध्यस्थ के रूप में स्थापित भी किया है.

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तियानजिन में शंघाई सुरक्षा सहयोग सम्मेलन (SCO) केवल एक वार्षिक क्षेत्रीय बैठक भर नहीं है. बीजिंग दरअसल वैश्विक व्यवस्था में छूटे हर हिस्से को भुनाने की कोशिश कर रहा है. राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने एससीओ के नेताओं की मेज़बानी की—यह एक यूरेशियाई संगठन है, जो राजनीतिक, आर्थिक और सुरक्षा सहयोग पर केंद्रित है जिसकी स्थापना 2001 में हुई थी और इसमें चीन, रूस और भारत जैसे सदस्य शामिल हैं, जिससे यह एक अहम क्षेत्रीय मंच बन गया है.

शी ने लगभग सभी आए हुए नेताओं से, जिनमें पर्यवेक्षक सदस्य भी शामिल थे, द्विपक्षीय वार्ताएं कीं, लेकिन सबसे अहम रहा शी-मोदी का मिलना, जिसमें दोनों नेताओं ने अपनी पिछली बातचीत को आगे बढ़ाया. यह बातचीत अक्टूबर 2024 में रूस के कज़ान में हुए ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के दौरान हुई थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यह पिछले सात सालों में चीन की पहली यात्रा थी और पिछले साल अक्टूबर में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर सैन्य टकराव रोकने और शांति बनाए रखने के समझौते के बाद से यह सबसे अहम मुलाकात रही. एससीओ के दौरान हुआ यह भारत-चीन शिखर सम्मेलन, कूटनीतिक रिश्तों की बहाली के बाद बेहद ज़रूरी माना गया.

इस बीच, अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप और बाकियों के बीच बढ़ते तनाव के बीच वैश्विक मीडिया का मानना है कि बड़ी ताकतें अब एक-दूसरे से तालमेल बिठाने की कोशिश करेंगी. यह बात कुछ हद तक सही भी रही, क्योंकि चीन और भारत—एशिया की दो बड़ी अर्थव्यवस्थाओं ने दोहराया कि वे “प्रतिस्पर्धी नहीं बल्कि विकास के साझेदार हैं और उनके मतभेद विवाद में नहीं बदलने चाहिए.” भारत और चीन के बीच कारोबारी व व्यापारिक निर्भरता और टकराव की भारी कीमत को देखते हुए, दोनों का आपसी तालमेल साधना और पड़ोसी रिश्तों पर फिर से बातचीत करना एक सकारात्मक संकेत माना जा सकता है.

लेकिन भारत-चीन रिश्तों से ज़्यादा उम्मीद करना नई दिल्ली के लिए फिलहाल सिर्फ सतर्क आशा ही हो सकती है. कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि अमेरिका से बढ़ते तनाव के बीच भारत, चीन से नज़दीकी बढ़ाने की सोच सकता है. मगर सच यह है कि दोनों देशों के बीच व्यापार का स्तर और रणनीतिक हित काफी अलग-अलग हैं.


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चीन के लिए निष्ठा ज़रूरी

क्षेत्रीय शिखर सम्मेलन और मोदी-शी मुलाकात के अलावा, बीजिंग एक तीसरे बड़े आयोजन में भी व्यस्त रहेगा—विक्ट्री डे. यह चीन की जापान पर जीत और द्वितीय विश्व युद्ध में फासीवादी ताकतों पर सहयोगी सेनाओं की जीत की 80वीं वर्षगांठ है. बीजिंग में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और उत्तर कोरिया के सर्वोच्च नेता किम जोंग उन समेत 26 विदेशी नेताओं की मौजूदगी यह दिखाएगी कि गैर-पश्चिमी दुनिया में चीन की लोकप्रियता बढ़ रही है, जहां इस परेड का ऐतिहासिक महत्व जापान को उसके औपनिवेशिक अतीत की याद दिलाना रहा है, वहीं इस बार बीजिंग इस मौके का इस्तेमाल ताकत दिखाने के लिए कर रहा है—अब तक का सबसे बड़ा विजय दिवस सैन्य परेड आयोजित करके, ताकि अपने आधुनिकीकरण और नई सैन्य क्षमताओं की झलक दिखा सके.

इसमें कोई शक नहीं कि चीन ने अपनी सैन्य ताकत साबित कर दी है. भले ही अमेरिका के बराबर न हो, लेकिन यह कई पड़ोसी देशों, खासकर भारत, के लिए एक चेतावनी है, जो एलएसी पर लगातार सतर्क रहता है.

द्विपक्षीय समीकरणों और वैश्विक महत्वाकांक्षाओं से आगे बढ़कर, चीन अब विचारधारा का तालमेल बनाने और खुद को भारत के पड़ोस में केंद्रीय भूमिका में स्थापित करने की कोशिश कर रहा है.

भारतीय उपमहाद्वीप में केंद्रीय भूमिका बनाने की रणनीति

दुनिया के तमाम नेताओं में नेपाल के प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली, मालदीव के राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज्जू और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ — ये सभी भारत के पड़ोसी देशों के नेता, जिन्हें बीजिंग रणनीतिक साझेदारी के ज़रिए अपने करीब ला रहा है—विक्ट्री डे परेड में शामिल होंगे. दिलचस्प बात यह है कि इन तीनों देशों के जापान के साथ भी गहरे विकासात्मक रिश्ते और लोगों से लोगों का जुड़ाव रहा है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या इस कार्यक्रम में शामिल होना उनकी सही कूटनीतिक नीति है.

पाकिस्तान और मालदीव के मीडिया ने तो अपने नेताओं के चीन में जापान विरोधी कार्यक्रम में जाने पर ज़्यादा सवाल नहीं उठाए, लेकिन नेपाल में ओली की भागीदारी को लेकर हैरानी जताई जा रही है. लोग सवाल कर रहे हैं कि क्या काठमांडू के लिए यह सही कूटनीतिक फैसला है कि वह उस दोस्त देश के खिलाफ खड़ा हो, जहां बड़ी संख्या में नेपाली प्रवासी रहते हैं. यह एक बड़ा सवाल खड़ा करता है: क्या ऐसी भागीदारी नेपाल की संविधान में बताई गई गुटनिरपेक्ष विदेश नीति के अनुरूप है?

भारत इस बात से चिंतित है कि उपक्षेत्रीय परिदृश्य में चीन की पकड़ लगातार मज़बूत हो रही है. पिछले महीनों में चीन ने दक्षिण एशियाई देशों के नेताओं को छोटे समूहों में बुलाया है, जून में कुनमिंग में पहली बार चीन-बांग्लादेश-पाकिस्तान त्रिपक्षीय शिखर सम्मेलन आयोजित किया और कुछ हफ्तों के बाद अफगानिस्तान और पाकिस्तान के साथ एक और त्रिपक्षीय बैठक की. दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) के लंबे समय से निष्क्रिय रहने के बीच, चीन की ऐसी पहल हाल के वर्षों की सबसे अहम राजनीतिक घटनाओं में से एक मानी जा रही है.

बीजिंग के छोटे समूहों (मिनिलैटरल) में भारतीय उपमहाद्वीप के देशों को शामिल करने की खासियत संभावित सहयोग से ज़्यादा उन चुनौतियों में है जो ये देश अपने साथ लाते हैं—अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच विवादित सीमा है और 1971 की आज़ादी ने बांग्लादेश को पाकिस्तान का प्रतिद्वंद्वी बना दिया. इसके बावजूद चीन न केवल इन्हें एक मंच पर लाने में कामयाब रहा है, बल्कि खुद को अनिवार्य मध्यस्थ के रूप में पेश करने में भी सफल हुआ है. यह किसी संयोग का नतीजा नहीं है, बल्कि उपमहाद्वीप को लेकर बीजिंग की बड़ी रणनीति का हिस्सा है, जिसमें वह खुद को केंद्र में स्थापित कर रहा है, और इसमें भारत के पड़ोसी देशों के साथ रिश्तों में आए बदलाव उसकी मदद कर रहे हैं.

साथ ही, चीन भारत के पड़ोसियों को ढांचागत परियोजनाएं, व्यापारिक पहुंच और कूटनीतिक सहयोग दे रहा है, ताकि वे उसके ‘राष्ट्रीय एकीकरण’ के नैरेटिव को मान्यता दें, खासकर ताइवान पर. अब तो साझा घोषणाओं में ताइवान का नाम साफ तौर पर शामिल होने लगा है. जैसे कि — “चीन ही चीन की जनता का एकमात्र वैध प्रतिनिधि है और ताइवान चीन का अभिन्न हिस्सा है.” पहले जहां सिर्फ “वन चाइना” सिद्धांत का ज़िक्र होता था, अब इसे और साफ शब्दों में लिखा जा रहा है.

यानी बीजिंग सिर्फ प्रभाव नहीं बना रहा, बल्कि एक ऐसा ढांचा खड़ा कर रहा है जो या तो भारत-विरोधी रुख रखता है या फिर भारत के हित दांव पर होने पर इन देशों को रणनीतिक चुप्पी अपनाने पर मजबूर कर देता है. यह बदलते क्षेत्रीय गठबंधनों और नेतृत्व की ओर इशारा करता है. मौजूदा हालात में, चीनी प्रभाव को समझना और उसे चुनौती देने के उपाय बनाना भारत के लिए ज़रूरी है.

आखिर में, बीजिंग की दोहरी रणनीति उसे संतुलन साधने में मदद करती है — जब व्यापार और कारोबार का फायदा हो तो भारत के प्रति मधुर बातें करना और साथ ही ट्रंप-नेतृत्व वाले वैश्विक ढांचे का कड़ा विरोध करना. इसी के साथ वह भारत के पड़ोस में चुपचाप अपनी पकड़ मज़बूत कर रहा है. इसका नतीजा नेपाल जैसे देशों का ताइवान मुद्दे पर चीन का समर्थन करना या उसके सामूहिक आयोजनों में शामिल होना है. ऐसे कदम भले ही वास्तविक सहमति का संकेत न दें, लेकिन यह निश्चित तौर पर चीन की क्षेत्र में केंद्रीय भूमिका बनाने की कोशिशों को मजबूत करते हैं.

(ऋषि गुप्ता ग्लोबल अफेयर्स पर कॉमेंटेटर हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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