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Saturday, 21 December, 2024
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अर्थव्यवस्था की हालत सुधारने से पहले मोदी सरकार हमें यह सच बताए कि इसमें गड़बड़ क्या है

बजट के जरिए सामने आने वाली बुरी खबरों के बाद सरकार भारतीय अर्थव्यवस्था पर श्वेतपत्र जारी करे और इसे किसी स्वतंत्र अर्थशास्त्री को चलाने के लिए दे.

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भारतीय अर्थव्यवस्था एक ऐसे दौर से गुजर रही है जिसमें किसी अच्छी खबर को ढूंढ पाना मुश्किल हो गया है. आर्थिक वृद्धि सुस्त हो गई है. निर्यात निरंतर घटता जा रहा है. खुदरे की महंगाई बढ़ती जा रही है. रोजगार के अवसर नहीं बढ़ रहे हैं. बैंक क्रेडिट ग्रोथ में गिरावट है. बिजली की खपत घट रही है. कर राजस्व काफी धीमी गति से बढ़ रहा है, बजट में लगाए गए अनुमान से भी कम गति से. इसलिए सरकार के लिए चालू वर्ष में वित्तीय घाटे के लक्ष्य को हासिल करना मुश्किल हो रहा है. अर्थव्यवस्था की कुंजी माना जाने वाला ‘सेंटिमेंट’ (भाव) भी पस्त है. सरकार ने पिछले कुछ सप्ताहों में कॉर्पोरेट टैक्स को कम करने; हाऊसिंग, रियल एस्टेट, मोटर वाहन और निर्यातों को बढ़ावा देने के लिए बेशक कुछ कदम उठाए हैं लेकिन आर्थिक संकट दूर होता नहीं दिख रहा है.

सवाल है कि सरकार को क्या करना चाहिए? अर्थव्यवस्था में जान डालने के कई प्रस्तावों पर विचार किया जा रहा है. इन प्रस्तावों में ये बातें शामिल हैं— बुनियादी ढांचे पर अतिरिक्त निवेश, आयकर दरों में परिवर्तन, नीतिगत सुधार, और निजीकरण. इन उपायों से मदद तो मिलेगी मगर इनके नतीजे तुरंत नहीं दिखेंगे.

आर्थिक वृद्धि के अहम आंकड़ों को सुधारने पर ज़ोर देने से पहले बेहतर यह होगा कि अर्थव्यवस्था को लेकर मूड फिलहाल जिस तरह पस्त है उसमें जोश पैदा किया जाए. अर्थव्यवस्था के वास्तविक आंकड़े अगर महत्वपूर्ण हैं तो अर्थव्यवस्था को लेकर ‘सेंटिमेंट’ भी उतना ही महत्वपूर्ण. यहां कुछ ऐसे उपायों को प्रस्तुत किया जा रहा है जिन्हें लागू करके सरकार इस ‘सेंटिमेंट’ में गिरावट को उलटने की प्रक्रिया शुरू कर सकती है.


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सबसे पहला बड़ा उपाय यह हो सकता है कि सरकार अर्थव्यवस्था की हालत पर एक श्वेतपत्र जारी करे. सरकार और ‘थिंक टैंकों’ व रेटिंग एजेंसियों समेत दूसरी विभिन्न संस्थाओं के कई सदस्यों ने भारतीय अर्थव्यवस्था की मौजूदा समस्याओं के स्वरूप तथा चुनौतियों को लेकर तरह-तरह के विचार व्यक्त किए हैं. बाज़ार और उद्योग जगत उलझन में है कि वे किस व्याख्या को स्वीकार करे और किसे खारिज करें. इस उलझन ने भी अर्थव्यवस्था को लेकर नकारात्मक ‘सेंटिमेंट’ को बढ़ाया है.

इसलिए वक़्त आ गया है कि सरकार एक आकलन पत्र जारी करे और बताए कि उसके मुताबिक भारतीय अर्थव्यवस्था की वास्तविक स्थिति और संभावनाएं क्या हैं. इस तरह का दस्तावेज़ जल्दी तैयार किया जा सकता है, और इसकी विश्वसनीयता तब बढ़ जाएगी जब यह काम किसी स्वतंत्र अर्थशास्त्री को सौंपा जाए, जो सरकारी अर्थशास्त्रियों, वित्त मंत्रालय के विशेषज्ञों और अधिकारियों की मदद से यह रिपोर्ट करे.

आपको याद होगा कि 2012 में विजय केलकर ने अर्थव्यवस्था की स्थिति पर एक रिपोर्ट तैयार की थी. आज वैसा ही कुछ करने की जरूरत है. इस तरह की रिपोर्ट से सरकार को आम बजट से, जो 11 हफ्ते बाद ही पेश किया जाना है, लोगों की अपेक्षाओं को संभालने में मदद मिलेगी. ये अपेक्षाएं बहुत ऊपर जा रही हैं. इसलिए इन्हें अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति के मद्देनजर रखना बेहतर होगा. अर्थव्यवस्था पर किसी स्वतंत्र विशेषज्ञ की रिपोर्ट चालू परिदृश्य और आगामी चुनौतियों को प्रस्तुत करने में सहायक होगी. एक-दो दिन पहले पेश किया जाने वाला बजट-पूर्व आर्थिक सर्वे इन अपेक्षाओं को संभालने में कारगर नहीं होगा क्योंकि तब तक काफी देर हो चुकी होगी.

जहां तक सरकार की वित्तीय व्यवस्था को परेशान कर रही समस्याओं का सवाल है, यह रिपोर्ट देश को भरोसे में लेने में सरकार की मदद करेगी. इस साल सरकार की आय का जो हाल है वह कोई भरोसा नहीं जगाता कि सरकार 2019-20 में जीडीपी के लिहाज से 3.3 प्रतिशत के वित्तीय घाटे का लक्ष्य हासिल कर पाएगी. इस बीच वित्तीय घाटे, और बजट में किए गए प्रावधान के अतिरिक्त उधार के नए आंकड़े चर्चा में हैं.

अर्थव्यवस्था की स्थिति से संबंधित परिपत्र से इस तरह की अटकलों को शांत करने में मदद मिलेगी. बजट में इन आंकड़ों को जाहिर करने से बेहतर होगा कि बुरी खबर भारतीय अर्थव्यवस्था पर श्वेतपत्र में जाहिर की जाए. यह बजट को उन नीतियों पर ध्यान केन्द्रित करने में मदद करेगा जिनमें सुधार जरूरी हैं. यही नहीं, यह जरूरी खर्च के नए पैकेजों पर भी ध्यान देने में मदद करेगा. वित्तमंत्री वित्त व्यवस्था पर दबावों को कबूल करके और अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने के सरकार के संकल्प को दोहरा कर श्वेतपत्र में दर्ज़ उपायों को मजबूती दे सकती हैं.

सरकार के लिए दूसरा सबसे जरूरी कदम यह होगा कि वह आर्थिक मंदी दर्शाने वाले आंकड़ो से मुंह न फेरे. कुछ महीने पहले एक सरकारी सर्वे ने साफ कहा था कि रोजगार वृद्धि दर में भारी गिरावट आई है. इस पर सरकार की फौरी प्रतिक्रिया यह थी कि वह रिपोर्ट सर्वेयरों की खोज का एक मसौदा भर थी. इसके कुछ महीने बाद ही सरकार ने उस रिपोर्ट को अंतिम मान कर स्वीकार कर लिया. यह एक स्वागतयोग्य कदम था, जबकि पहले इस रिपोर्ट को खारिज करना समस्या बढ़ाने वाला था.

कुछ दिनों पहले सरकार ने उपभोक्ताओं द्वारा होने वाले खर्चों की अपनी सर्वे रिपोर्ट को रद्द करने का फैसला किया क्योंकि उसे आंकड़ों पर संदेह था. इस तरह के कदम अर्थव्यवस्था में लोगों और उद्योग जगत के भरोसे को घटाते हैं. अगर आंकड़ों पर संदेह है तो सर्वे को रद्द करने की बजाय आंकड़ों में खामियां हों तो उन्हें दूर करने के पूरक प्रयास किए जाने चाहिए.

आर्थिक मंदी से केवल निवेश बढ़ाकर और नीतिगत सुधार करके ही नहीं निपटा जा सकता. आर्थिक मंदी के स्वरूप और उससे पैदा होने वाली चुनौतियों के बारे में लोगों के साथ पारदर्शी संवाद भी उतना ही जरूरी है. इस तरह का संवाद तब किया जा सकता है जब सरकार अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति पर श्वेतपत्र जारी करे और आर्थिक आंकड़ों तथा सर्वे के निष्कर्षों को कबूल करे.


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अपने पहले कार्यकाल के शुरू में नरेंद्र मोदी सरकार ने, जिसके वित्त मंत्री तब अरुण जेटली थे, अर्थव्यवस्था की समस्याओं पर स्थिति श्वेत पत्र जारी करने के विचार को इस डर से खारिज कर दिया था कि इससे भारतीय अर्थव्यवस्था में निवेशकों का भरोसा कमजोर होगा. वह एक गलत कदम था. निवेशक अर्थव्यवस्था की स्थिति के बारे में हमेशा स्पष्टता और पारदर्शिता को पसंद करते हैं. आज वे भारतीय अर्थव्यवस्था पर श्वेतपत्र जारी करने के वित्तमंत्री निर्मला सीतारामण के कदम का स्वागत करेंगे.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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