उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में तीसरे चरण के मतदान के लिए टिकट बंटवारे की राजनीति पर गहरी नज़र डालें तो साफ हो जाता है कि पार्टियों ने जाति और सामाजिक गणित को ध्यान में रखा है.
बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी), समाजवादी पार्टी (एसपी) से लेकर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) सभी ने दलित और पिछड़ी जातियों (ओबीसी) के उम्मीदवारों को बड़ी संख्या में टिकट दिया है. आगरा से कानपुर के बीच जिन 16 जिलों में तीसरे चरण में मतदान होना है, वहां बुंदेलखंड ही सबसे दिलचस्प सियासी जंग का चुनावी मैदान है. परंपरा से इस इलाके में बीएसपी की मायावती का जोर रहा है और इटावा जैसी कुछेक जगहों पर अखिलेश यादव की पार्टी मजबूत रही है. यह भी गौरतलब है कि उभरती बीजेपी भी इन इलाकों में बड़ी खिलाड़ी बन गई है.
यूपी में 2017 के पिछले विधानसभा चुनावों में हिंदू समुदायों के व्यापक सामाजिक गठजोड़ और ‘मोदी फैक्टर’ से बीजेपी को अपनी पैठ बनाने में मदद मिली थी. हालांकि कोई भी पार्टी इस इलाके में दलित और यादव समुदायों के बिना मौका नहीं पा सकेगी.
समाजवाद ने भी बड़ी भूमिका अदा की है. याद करें कि यही वह इलाका है, जहां बी.आर. आंबेडकर की बनाई रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) 1960 और 1970 के दशक में सक्रिय थी. 1980 के दशक में बीएसपी उसकी जगह लेने लगी. यही वह इलाका है, जहां राम मनोहर लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी को सफलता मिली थी और उनके दोस्त रामस्वरूप वर्मा के अराजक संघ को जगह मिली थी. ये इलाके हमेशा गैर-कांग्रेस राजनीति के केंद्र रहे हैं, जब कांग्रेस सत्ता के शिखर पर थी.
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बीएसपी, एसपी और बीजेपी का टिकट बंटवारा
बीजेपी की रणनीति दलित और ओबीसी वोटरों पर फोकस करने की लगती है, जो उसकी उम्मीदवारों की तीसरी और चौथी सूची में इन समुदायों के उम्मीदवारों की बड़ी संख्या से जाहिर है. ये इसी इलाके के हैं, जहां तीसरे चरण का मतदान 20 फरवरी को होना है.
बीजेपी ने दलित और ओबीसी उम्मीदवारों को 49 टिकटें दी हैं, जिनमें 19 दलित और 30 ओबीसी हैं. टिकट वितरण के तरीके को देखकर यह आसानी से समझा जा सकता है कि बीजेपी ने ओबीसी उम्मीदवारों में भी काफी विविधता लाने की कोशिश की है. उसने तीसरी और चौथी लिस्ट में लोधी, कुर्मी, निषाद, यादव, कुशवाहा, शाक्य और सैनी समुदायों को टिकट दिया, जिनकी इस इलाके में अच्छी-खासी तादाद है. महिलाओं का प्रतिनिधित्व भी दोनों सूची में नज़र आता है.
पहले दो चरणों से बीजेपी की चुनावी रणनीति भी बदलती दिख रही है. उन चरणों में पार्टी का प्रचार ज्यादातर कानून-व्यवस्था पर टिका था. दूसरे मुद्दों पर कम जोर था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और दूसरे नेताओं के चुनावी भाषणों में गरीब, दलित और वंचित समुदायों के मुद्दों की ज्यादा चर्चा है. तीसरे चरण में दूसरे मुद्दे पीछे चले गए हैं.
दूसरी ओर बीएसपी ने 18 टिकट एससी और 18 टिकट ओबीसी को दिया है. उसने खास इलाकों में संख्या बहुल दबंग जाति के उम्मीदवारों को भी टिकट दिए, जिसमें 7 ब्राह्मण, 6 ठाकुर और एक बनिया उम्मीदवार है. दिलचस्प यह भी है कि इन उम्मीदवारों को पहले और दूसरे चरण में ज्यादा टिकट दिए और सिर्फ 3 टिकट मुसलमानों को दिए गए. इससे पता चलता है कि चुनावी लोकतंत्र में संख्या का क्या महत्व है.
इस बीच समाजवादी पार्टी ने 12 एससी और 23 ओबीसी उम्मीदवार खड़े किए. ओबीसी में 11 यादव और 12 गैर-यादव हैं, जिनमें कुर्मी, कुशवाहा, निषाद और पाल जातियों के उम्मीदवार हैं. इसलिए बीएसपी की ही तरह एसपी ने भी सोशल इंजीनियरिंग की ही कोशिश की है.
टिकट वितरण में सोशल इंजीनियरिंग के अलावा भरोसा, साख और कामकाज भी इस चुनाव में पार्टियों की जीत में अहम भूमिका निभा सकते हैं. अब हम इंतजार ही कर सकते हैं कि 2022 के यूपी चुनावों में मतदान क्षेत्रों के लोग मुद्दों, एजेंडों और उम्मीदवारों पर क्या रुख अपनाते हैं.
(लेखक जी.बी. पंत सोशल साइंस इंस्टीट्यूट, इलाहाबाद के प्रोफेसर और डायरेक्टर हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @poetbadri. व्यक्त विचार निजी हैं)
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