इतिहास गवाह है कि क्रांतियां समाजों, सरकारों और दुनिया को नया रूप देती रही हैं. क्रांतियां प्रायः आर्थिक, राजनीतिक, और सामाजिक नाइंसफ़ियों की वजह से होती हैं. उदाहरण के लिए, वित्तीय तकलीफ़ों और आर्थिक असमानता से अक्सर जनअसंतोष फूटता है; राजनीतिक स्वतंत्रता के अभाव और तानाशाही शासन से व्यापक आक्रोश जन्म लेता है; और वास्तविक या काल्पनिक शिकायतों को जब मीडिया में जरूरत से ज्यादा तूल देकर मुहिम चलाई जाती है तो लोगों के बड़े समूहों को आंदोलित किया जा सकता है.
क्रांतियां अक्सर अजीब-ओ-गरीब मोड़ भी ले लेती हैं. कोई विरोध किसी सीमित लक्ष्य को लेकर शुरू हो सकता है लेकिन आगे चलकर मजबूत हो सकता है और उसके अप्रत्याशित परिणाम निकल सकते हैं. फिर उसमें कई तरह के एजेंडा और हित शामिल हो जाते हैं जो विरोध के मूल मुद्दे को हड़प लेते हैं. इस तरह वह विरोध आंदोलन क्रांति में बदल जाता है जिसके अलग नतीजे सामने आते हैं.
सकारात्मक: क्रांतियों की सफलता से ज्यादा राजनीतिक स्वतंत्रता, ज्यादा आर्थिक समृद्धि, और सामाजिक न्याय हासिल हो सकता है. उदाहरण के लिए, अमेरिकी क्रांति (1775) के कारण अमेरिका में लोकतांत्रिक शासन की स्थापना हुई.
मिश्रित: 1789 की फ्रांसीसी क्रांति ने वहां राजशाही को उखाड़ फेंका और गणतंत्र कायम किया लेकिन इसके कारण आतंक का राज भी कायम हुआ और इसके फलस्वरूप नेपोलियन बोनापार्ट का उत्कर्ष हुआ. इसी तरह, 2003 में जॉर्जिया में, 2004 में यूक्रेन में, 2005 में किर्गिस्तान में जो क्रांतियां हुईं उनके कारण अहम राजनीतिक परिवर्तन हुए और लोकतंत्र मजबूत हुआ. स्थायी सुधारों, और स्थिरता के लिहाज से उन्हें जो दीर्घकालिक सफलताएं मिलीं वे मिलीजुली किस्म की थीं.
नकारात्मक: कुछ क्रांतियां अपने अपेक्षित लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाईं और उनके कारण काफी अराजकता और अव्यवस्था फैली. उदाहरण के लिए ‘अरब स्प्रिंग’ (2010-12) के कारण सीरिया और लीबिया जैसे देशों में गृहयुद्ध ही छिड़ गया.
बांग्लादेशी क्रांति
बांग्लादेश में छात्रों की अगुआई में 5 अगस्त को जो आंदोलन हुआ उसने लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित शेख हसीना का तख़्ता पलट दिया. दिसंबर 2022 में जो विरोध आंदोलन शुरू हुआ था वह कई वर्षों से जमा हो रहे मुद्दों का समाधान न किए जाने का नतीजा था. असंतोष के पीछे कई कारण थे जिन्होंने उसे पूरी क्रांति में बदल दिया. उनमें से कुछ मुद्दों का तत्परता से और सहानभूतिपूर्वक समाधान किया गया होता तो आंदोलन को शुरू में ही रोक दिया गया होता.
स्वतंत्रता सेनानियों के परिजनों को सरकारी नौकरियों में भारी आरक्षण देने के विवादास्पद ‘कोटा सिस्टम’ की बहाली इस आंदोलन को भड़काने का बड़ा मुद्दा बनी. खासकर बांग्लादेश के युवाओं में भारी बेरोजगारी के कारण अधिकतर छात्रों को यह ‘सिस्टम’ अन्यायपूर्ण लगा.
शांतिपूर्ण आंदोलन के जवाब में सरकार ने जो बल प्रयोग किया और जो गैर-न्यायिक मौतें हुईं उन्होंने हालात को विस्फोटक बना दिया. उदाहरण के लिए, छात्र नेता अबु सैयद की मौत ने छात्रों को और एकजुट कर दिया.
सरकार और आंदोलनकारियों के बीच सार्थक संवाद का बहुत अभाव था. रचनात्मक वार्ता और सुधार के कदमों के जरिए छात्रों की चिंताओं का समाधान किया जाता तो आंदोलन को और भड़कने से रोका जा सकता था.
आंदोलन सिर्फ कोटा सिस्टम के खिलाफ नहीं था, इसके साथ भ्रष्टाचार, पारदर्शिता की कमी, आर्थिक असमानता जैसे व्यापक मुद्दे भी जुड़े थे. इन व्यवस्थागत मसलों का तत्परता से निबटारा किया जाता तो असंतोष को शांत किया जा सकता था. सरकार के बारे में यह धारणा बन गई थी की वह तानाशाही की ओर बढ़ रही है और जमीनी हकीकतों से कट गई है. इस धारणा ने आग में घी डालने जैसा काम किया.
भविष्य के लिए सबक
क्रांति को भड़काने वाले फौरी कारणों का निबटारा बेहतर शासन और वार्ता के जरिए किया जा सकता था लेकिन गंभीर और गहरी समस्याओं के लिए विस्तृत सुधारों की जरूरत थी. आंदोलन को फिर से भड़कने से रोकने के लिए वर्तमान शासन को इन मसलों को प्राथमिकता देकर निबटाना होगा. यह आंदोलन लंबे समय से जमा हो रही हताशाओं के चरम बिंदु पर पहुंचने का नतीजा था.
बहरहाल, बांग्लादेश में छात्र आंदोलन का भविष्य उम्मीद जगाता है क्योंकि यह राजनीति और समाज में महत्वपूर्ण सुधार ला सकता है, जैसा कि 1980 में पोलैंड के छात्र आंदोलन ने लाया था. इन दोनों छात्र आंदोलनों में यूनिवर्सिटी और हॉस्टल छात्रों की गतिविधियों और योजनाओं के केंद्र बन गए थे. दोनों देशों की सरकारों ने सख्त कदमों का सहारा लिया जिनके चलते बड़ी संख्या में मौतें हुईं और हालात और भी बिगड़े.
बांग्लादेश में आगे बड़ी सावधानी से कदम उठाने पड़ेंगे, और विरोध को भड़काने वाले मसलों के समाधान के लिए निरंतर प्रयास करने होंगे. इस आंदोलन ने ऐसे अहम बदलाव ला दिए हैं जो देश के भविष्य को स्वरूप प्रदान करेंगे.
नोबेल पुरस्कार विजेता मुहम्मद यूनुस के नेतृत्व में एक अंतरिम सरकार कायम कर दी गई है, जिसमें छात्र नेताओं को भी प्रमुख पद दिए गए हैं. सरकार स्थिरता कायम करने और आंदोलनकारियों की मांगो को पूरा करने में जुटी है. लेकिन झड़पें अभी हो रही हैं, जो बताती हैं कि हालात विस्फोटक बने हुए हैं.
आंदोलन को जारी रखने के लिए छात्र एक नयी राजनीतिक पार्टी बनाने पर विचार कर रहे हैं ताकि ‘बेगमों की जंग’ से आगे बढ़कर स्थायी राजनीतिक परिवर्तन लाया जा सके. यह बताता है कि आंदोलन अब सक्रिय राजनीतिक परिवर्तन.की ओर मुड़ रहा है.
अंतरिम सरकार के सामने राजनीतिक व्यवस्था के पुनर्निर्माण और स्थिरता कायम करने की चुनौतियां हैं, और इसके साथ भविष्य को लेकर एक उम्मीद भी है. धार्मिक अल्पसंख्यकों की सुरक्षा ऐसी ही एक चुनौती है जिसे प्राथमिकता देने की जरूरत है. युवा नेताओं की भागीदारी से नया नजरिया उभर रहा है और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता मजबूत हो रही है.
इस क्रांति की ओर पूरी दुनिया का ध्यान गया है, और बेरोजगारी तथा राजनीतिक सुधार जैसे मसले प्रमुखता से उभरे हैं.
भारत पर असर
हमारे किसी भी पड़ोसी देश में, खासकर भौगोलिक रूप से सटे हुए पाकिस्तान या म्यांमार जैसे देशों में अस्थिरता हमें हमेशा प्रभावित करेगी. बांग्लादेश भी कोई अपवाद नहीं है. वहां की छात्र क्रांति भारत को कई तरह से प्रभावित कर सकती है.
राजनीतिक और कूटनीतिक रिश्ते: इस उथलपुथल से भारत-बांग्लादेश संबंध में गिरावट आई है, जो इससे पहले अपने शिखर पर थे. भारत ने संतुलित रुख अपनाया है, और अंतरिम सरकार से बात करते हुए अपने पुराने सहयोगियों के साथ संबंधों को भी कायम रखा है. हालांकि भारत ने बांग्लादेश के इस आंदोलन को उसका आंतरिक मामला बताया है लेकिन हिंसा के बीच वहां से हजारों भारतीय छात्रों तथा नागरिकों की सुरक्षित वापसी की भी व्यवस्था की.
आर्थिक प्रभाव: आंदोलन के कारण भारत-बांग्लादेश के बीच व्यापार बाधित हुआ हुआ, व्यावसायिक गतिविधियां प्रभावित हुई हैं, खासकर बांग्लादेश में कारोबार करने वाले भारतीय व्यापारियों और कंपनियों की गतिविधियां.
सुरक्षा के मामले: आशंका यह व्यक्त की जा रही है कि इस आंदोलन का असर भारत के खासकर उत्तर-पूर्वी राज्यों पर पड़ सकता है. यह असर सीमा पार न करे और एक तीसरा मोर्च न खुल जाए, इसके लिए भारत को हालात पर कड़ी नजर रखने की जरूरत है. वक़्त की मांग है कि दोनों देशों की सेनाओं के बीच निरंतर संपर्क बना रहे, खासकर इसलिए कि बांग्लादेश सेना स्थिरता बनाए रखने वाली ताकत साबित हुई है.
मानवीय तथा सामाजिक पहलू: हिंसा और अस्थिरता के कारण बांग्लादेश में रह रहे भारतीय समुदाय, खासकर वहां के मेडिकल कॉलेजों में पढ़ रहे भारतीय छात्र भारत लौट रहे हैं. 2022 में जिस तरह यूक्रेन से और 2023 में सूडान से जिस तरह भारतीय नागरिकों को बाहर निकाला गया था उसी तरह बांग्लादेश से उन्हें निकालने की कोशिशें बताती हैं कि सरकार मौके की मांग पर कार्रवाई करने में सक्षम है. यह मौका दूसरे देशों में रह रहे भारतीय नागरिकों की सुरक्षा के बेहतर उपाय करने की जरूरत को भी रेखांकित करता है.
बांग्लादेश की छात्र क्रांति मुख्यतः उसका आंतरिक मामला तो है लेकिन उसका असर भारत में भी महसूस किया जा रहा है. बांग्लादेश में भारत विरोधी भावना और उसकी अंतरिम सरकार के कुछ सदस्यों की यह मांग कि भारत के साथ उनके देश के सभी समझौतों और संधियों पर पुनर्विचार किया जाए, अच्छे संकेत नहीं हैं. हालात की मांग है कि भारत सरकार की ओर संतुलित प्रतिक्रिया की जाए और सभी दावेदारों के साथ संवाद के स्रोत खुले रखे जाएं.
(जनरल मनोज मुकुंद नरवणे, पीवीएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय थल सेना के सेवानिवृत्त अध्यक्ष हैं. वे 28वें चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. उनका एक्स हैंडल @ManojNaravane है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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