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Tuesday, 19 November, 2024
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शिक्षा ही आगे का रास्ता है लेकिन SC/ST/OBC वर्ग के छात्र मेरिट के जाल में फंसे हुए हैं

ये चर्चाएं संसाधनों के समान वितरण पर जाकर खत्म होती हैं. बहुजन संगठन इसे बदलना चाहते हैं.

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जब मैं यह कहानी कहता हूं, तो यह केवल मेरी नहीं है; यह लाखों अन्य लोगों द्वारा साझा की गई कहानी है जो समान पृष्ठभूमि से आते हैं और बड़े सपने देखने का लक्ष्य रखते हैं. मेरी कहानी विदर्भ क्षेत्र के बुलढाणा जिले की बस्तियों से शुरू होती है; अनपढ़ कृषक माता-पिता के यहां पैदा हुए, शिक्षा एक दूर के सपने की तरह लगती थी.

गांवों और शहरों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की संभावनाएं नगण्य लगती हैं; और अगर कोई सपने देखने का लक्ष्य रखता है, तो पुणे और मुंबई एकमात्र सहारा लगते हैं. शिक्षा की लागत और मानक कभी-कभी हमारे स्वयं के सपनों के मूल्य से अधिक होते हैं. फिर भी, कुछ लोग इन शहरों द्वारा दी जाने वाली चुनौतियों और लागतों के लिए खुद को तैयार करते हैं. और अन्य? वे एजुकेशन की स्ट्रीम धाराओं से बाहर फेंक दिए जाते हैं या कम पर संतोष करना पड़ता है.

और जो लोग, संघर्षों और कठिनाइयों के बावजूद, पुणे में अपना शुरुआती पैर जमा लेते हैं, उन्हें शहर में एडजस्ट होने के लिए एक नए प्रकार के सामाजिक और सांस्कृतिक जटिलता का सामना करना पड़ता है. ऐसे परिवेश में छात्रों में संस्कृति, खान-पान, पहनावा, भाषा, उच्चारण और शहर के तौर-तरीकों को देखकर हीन भावना विकसित हो जाती है.

उन्हें होने और न होने की एक अजीब स्थिति का सामना करना पड़ता है – जहां वे अनिश्चित हैं कि अपनी घरेलू पहचान को बनाए रखना है या शहर के साथ घुलने-मिलने की कोशिश करनी है, सिवाय इसके कि शहर लगातार बदलाव की अवस्था में है.

मैंने अपनी शिक्षा को आगे बढ़ाने के लिए इसी तरह के रास्ते का प्रयास किया. मैं पुणे में अध्ययन करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ था, लेकिन एक उपयुक्त कॉलेज और पाठ्यक्रम का चयन करने के लिए नॉलेज का ऐक्सेस होना जरूरी था, जिसके बारे में मेरे नेटवर्क और ऐक्सेस की कमी के कारण मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था. मैंने जल्द ही पढ़ाई छोड़ दी और एक ओपन यूनिवर्सिटी से दूरस्थ शिक्षा के माध्यम से अपना स्नातक पूरा किया.

मेरिट का सवाल

भारतीय शिक्षा प्रणाली ने अभी तक छात्रों की विशाल जनसांख्यिकी की योग्यता का आकलन करने के लिए एक रूपरेखा तैयार नहीं की है. भले ही योग्यता की यह धारणा हमारे सिस्टम में नीतियों और चर्चाओं पर हावी है, यह संसाधनों के समान वितरण की बात पर जा के खत्म होती है.

इस तरह का परंपरावादी सिस्टम पहली पीढ़ी, ग्रामीण, आदिवासी और हाशिए की पृष्ठभूमि से उभरने वाले छात्रों के लिए जिम्मेदार नहीं है. सिस्टम इस तरह से डिजाइन किया गया है कि – एक शहरी परवरिश के साथ एक उच्च-वर्ग-जाति पृष्ठभूमि से आने वाले छात्र जनसांख्यिकीय उपलब्ध सीमित शैक्षिक अवसरों का लाभ उठा सकते हैं.

ऐसी स्थितियों में सामाजिक और सांस्कृतिक पूंजी की भूमिका केवल कुछ वर्गों के पक्ष में होती है. ये अमूर्त लाभांश हैं, जो समाज में आपकी निर्धारित जाति और वर्ग के स्थान के आधार पर – ज्ञान, अवसर, नेटवर्क, प्रौद्योगिकी – के आधार पर आपको दिए जाते हैं. आप भारतीय शहरी छात्रों के खिलाफ कम-विशेषाधिकार प्राप्त पृष्ठभूमि के छात्रों की दक्षताओं को मापने के लिए समान मानदंड का उपयोग नहीं कर सकते हैं.


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जनसांख्यिकीय लाभांश का फायदा

ऑक्सफैम की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार, भारत में आर्थिक असमानता अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है, नतीजतन, इसका खामियाजा हाशिए पर पड़े लोगों को भुगतना पड़ रहा है.

भारत अब दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश है. लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत युवाओं का देश है; इसकी युवा आबादी ही एक अकेला महाद्वीप हो सकती है. और इस तरह की संख्या एक उच्च जनसांख्यिकीय लाभांश में बदली जा सकती है. फिर भी, सपनों और अवसरों की इस संभावित सुपरपावर वाली जमीं पर, ऐक्सेस और संसाधन जुटाने का एरिया अस्पष्ट है.

यह कई अनजाने प्रश्न उठाता है – किसके लिए जनसांख्यिकीय लाभांश? क्या युवा आबादी का बड़ा हिस्सा इसके दायरे में है? युवा आबादी के किस वर्ग के लिए लाभांश है? क्या यह सस्ते श्रम और आसान शोषण तक ऐक्सेस को वैध बनाने वाला एक औपचारिक शब्द है?

प्रमुख जाति-वर्ग गठजोड़ अभी भी हर सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक और आर्थिक पहलू में समाज पर हावी है. हाशिए पर पड़े जाति-वर्ग (देश की 70 प्रतिशत आबादी) के लिए शिक्षा, अवसरों, संसाधनों और नौकरियों तक पहुंच को कठिन बनाना.

संरचनात्मक स्तरीकरण, डेटा और वर्तमान परिदृश्य पर विचार करने के बाद, एक गणतंत्र द्वारा किए गए वादे उसके अधिकांश युवाओं को विफल लगते हैं. लगता नहीं है कि लाभ नीचे तक पहुंच रहा है.

क्या कहती हैं संख्याएं

नेचर द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, पांच उच्चतम रैंक वाले भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (आईआईटी) में पीएचडी नामांकन, अनुसूचित जाति (एससी) के लिए लगभग 10 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए मात्र 2 प्रतिशत है. बाकी आईआईटी और आईआईएससी का प्रदर्शन भी कुछ बेहतर नहीं है. चूंकि हाशिए की जातियों के शोधकर्ता एक नगण्य संख्या में हैं, इसलिए उनके फैकल्टी लेवल में परिवर्तित होने की कोई गुंजाइश भी कम है.

इसी डेटा से पता चलता है कि प्रोफेसर स्तर पर 98 फीसदी फैकल्टी और असिस्टेंट या एसोसिएट स्तर पर 90 फीसदी से अधिक तथाकथित उच्च जातियों से आते हैं. वास्तव में, कुछ खास संस्थानों में तो हाशिए की जातियों से फैकल्टी लेवल पर शून्य प्रतिनिधित्व है.

भारत में 20 भारतीय प्रबंधन संस्थानों (IIM) के राज्यसभा में तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री द्वारा 2019 में दिए गए एक उत्तर के अनुसार, 12 में SC और ST समुदायों से एक भी फैकल्टी मेंबर नहीं था. कुल 1,148 स्वीकृत फैकल्टी में से केवल 11 अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति पृष्ठभूमि से हैं.

यह एक दुष्चक्र है, जिसका असर दूसरे क्षेत्रों में भी देखने को मिलता है.

शिक्षा ही एकमात्र उपाय है

समय के पूरे इतिहास में, सामाजिक और मानव विकास ने हमेशा सांस्कृतिक आधिपत्य के साथ मिलकर काम किया है – इसके कब्जे में रहने वाले अपनी जरूरतों और जाति-वर्ग के गठजोड़ को प्राथमिकता देते हैं.

नतीजतन, जिसे राजनीतिक वैज्ञानिक गोपाल गुरु ने “सैद्धांतिक पंडितों” और “अनुभवजन्य शूद्रों” के रूप में वर्णित किया है उसके बीच इसने एक बड़ा अंतर पैदा किया है. मैंने भारतीय उच्च शिक्षा क्षेत्र में अपने दशक भर के काम में हर कदम पर इस विभाजन को हर कदम पर महसूस किया है.

इस घोर असमानता और संशोधन की आवश्यकता को समझते हुए, बहुजन संगठनों ने उच्च शिक्षा पर अपना मुख्य ध्यान केंद्रित किया है – जिसमें नालंदा अकादमी, एकलव्य इंडिया फाउंडेशन, सीईडीई, तृतीय रत्न और बहुजन अर्थशास्त्री शामिल हैं. सावित्री और जोतिबा फुले, शाहू महाराज, अंबेडकर और पेरियार जैसे समुदाय के सबसे लोकप्रिय नेताओं ने भी शिक्षा को मुक्ति का एकमात्र मार्ग बताया है.

बहुजन संगठन जनसांख्यिकी को बदलने के लिए दृढ़ हैं, जो कि प्रमुख जाति-वर्ग समूहों के पक्ष में असमान रूप से झुका हुआ है. शैक्षिक पहुंच और अवसरों से छात्रों और परिवारों की पीढ़ियों को जाति व्यवस्था की बेड़ियों और उनके हाशिए पर जाने से खुद को ऊपर उठाने में मदद मिलेगी.

जाति-विरोधी नेताओं के जीवन और विरासत से सीख लेते हुए, शिक्षा इस व्यवस्था से लड़ने के लिए शोषितों के लिए उचित और एकमात्र रास्ता प्रतीत होती है.

(राजू केंद्रे एकलव्य इंडिया फाउंडेशन के संस्थापक हैं, जो उच्च शिक्षा के लोकतंत्रीकरण की दिशा में काम करता है. उनका ट्विटर हैंडल @RajuKendree है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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