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Sunday, 3 November, 2024
होममत-विमतबाबरी ध्वंस ने भारत के सेक्युलर चरित्र पर ऐसी ठेस पहुंचाई कि ज़ख्म अब भी हरे हैं

बाबरी ध्वंस ने भारत के सेक्युलर चरित्र पर ऐसी ठेस पहुंचाई कि ज़ख्म अब भी हरे हैं

आज की तारीख़ में संविधान व संवैधानिक संस्थाओं को बचाना और उसकी गरिमा को बहाल करना ही दरअसल जम्हूरियत को बचाना है.

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जिस बाबरी मस्जिद को ढहाने जा रहे आडवाणी को लालू प्रसाद ने अपने राजनीतिक मेंटर कर्पूरी ठाकुर के गृह ज़िले समस्तीपुर में 23 अक्टूबर 1990 को गिरफ़्तार किया था, उस मस्जिद को भाजपा के तीन धरोहर, अटल-आडवाणी-मुरली मनोहर के साथ कल्याण सिंह, अशोक सिंघल, उमा भारती, आदि के नेतृत्व वाली टोली ने 6 दिसंबर 1992 को गिरा दिया. यह अनायास नहीं है कि 6 दिसम्बर का दिन ही चुना गया. जिस रोज़ संविधान निर्माता डॉ. आंबेडकर का परिनिर्वाण दिवस है, उसी रोज़ देश के आईन पर चोट कर उसकी रूह को मसला गया.

ख़याल रहे कि इस बहुलता व विविधता वाले मुल्क को पिछले 71 सालों से अगर कोई एक सूत्र जोड़ कर रखे हुए है, तो उसका नाम है, धर्मनिरपेक्षता.

जब बाबरी मस्जिद को ढहा कर नफ़रतगर्दों ने गंगा-जमुनी तहज़ीब और क़ौमी एकता को तहस-नहस करने की कोशिश की, तो पूरे मुल्क के अमनपसंद लोगों ने उसकी निंदा की. 6 दिसम्बर 92 को बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने आरएसएस की मजम्मत करते हुए कहा था, ‘बाबरी मस्जिद को गिराकर साम्प्रदायिक शक्तियों ने पूरे विश्व में भारत को कलंकित किया है. 30 जनवरी यदि राष्ट्रीय शोक का दिवस है, तो 6 दिसम्बर राष्ट्रीय शर्म का दिवस होना चाहिए’.

लालू प्रसाद ने 7 दिसम्बर 1992 को बाक़ायदा आकाशवाणी और दूरदर्शन के ज़रिये सूबे की जनता को सामाजिक सौहार्द बनाए रखने की अपील की जिसका अहम अंश यूं हैं:

‘…यह देश सबों का देश है, यह धर्मनिरपेक्ष देश है, अलग भाषा, अलग बोली, हर मजहब का समान आदर किया जाएगा. लेकिन, 45 साल की आज़ादी और हमारी क़ुर्बानी को इस देश में भाजपा, आरएसएस, वीएचपी ने राम-रहीम का बखेड़ा उठाकर, धर्म को राजनीति से जोड़कर अयोध्या में जो करोड़ों लोगों की आस्था का प्रतीक था बाबरी मस्जिद, उसे ढहाने का काम किया. इससे न केवल करोड़ों अक़लियत के लोगों के, पूरे राष्ट्र की धर्मनिरपेक्ष जनता के मन में दुःख और शोक, भय की लहर फैल गई, बल्कि हम भारत के लोग दुनिया में कोई उत्तर देने की स्थिति में नहीं हैं.’


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लोकतंत्र में चुनावी तंत्र की कमज़ोरियों का लाभ उठाकर सत्तासीन होने वाले लोग जब ये भूल जाते हैं कि जम्हूरियत जुमलेबाज़ी से नहीं चला करती, न ही यह किसी की जागीर होती है, तो सामाजिक न्याय व सांप्रदायिक सौहार्द के लिए बड़ा संकट पैदा हो जाता है. चाहे बहुमत की सरकार हो या अल्पमत की, लोकराज लोकलाज से ही चलना चाहिए.

एक तरफ विकास के बड़े-बड़े दावे किये जा रहे हैं, दुनिया भर में घूम-घूम कर डंका पीटा जा रहा है, तो दूसरी ओर लोगों को गृहदाह की ओर धकेला जा रहा है. ख़ुद प्रधानमंत्री धर्मनिरपेक्षता शब्द की घर-बाहर गाहे-बगाहे खिल्ली उड़ाते फिरते हैं. तो, गृहमंत्री धर्मनिरपेक्षता की बजाय पंथनिरपेक्षता शब्द को सटीक बताते हुए उसके प्रयोग पर बल देते हैं. मतलब, यूं लगता है कि संविधान की मूल भावना से किसी को कोई लेना-देना नहीं है.

सदाशयी, सद्विवेकी दृष्टिकोण के अभाव में देश कभी खड़ा नहीं हो सकता, दो क़दम नहीं चल सकता, सवा सौ करोड़ क़दम चलने की बात तो छोड़ ही दीजिए. इसलिए, बकौल डॉ. वसीम बरेलवी:

घर सजाने का तसव्वुर तो बहुत बाद का है
पहले ये तय हो कि इस घर को बचायें कैसे.

जैसे-जैसे लोकसभा के चुनाव निकट आ रहे हैं, भाजपा को अयोध्या में भव्य राम मंदिर की आवश्यकता कुछ ज़्यादा ही महसूस होने लगी है. अर्थव्यवस्था की हालत सुधारने की सरकार की प्राथमिकता काफूर होने लगी है, ‘सहकारी संघवाद’ महज जुमला बन के रह गया है. यह सिर्फ और सिर्फ बहुसंख्यक आबादी के मन में मुसलमानों के प्रति नफरत फैलाकर हिन्दुत्व के नाम पर गोलबंद करने की ओछी हरकत है. ये वही लोग हैं जिनके लिए मुंह में राम, बगल में छूरी कहावत सटीक बैठती है.


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समाज के वंचित तबके की घनीभूत पीड़ा व इंसान के रूप में पहचाने जाने के उसके सतत संघर्ष की ईमानदार व उर्वर अभिव्यक्ति के ज़रिये अभिजात्य शासक वर्ग की अमानुषिक प्रणाली के चलते इस देश की सदियों की कचोटने वाली हक़ीक़त से जब साक्षात्कार कराया जाता है, तो सत्ता तंत्र को सांप सूंघ जाता है. साथ ही, इस मुल्क के निर्माण में इन शोषितों के अनूठे योगदान की जब कोई मुखर होकर चर्चा करता है, तो उसे जातिवादी व समाज को तोड़ने वाला तत्त्व बता दिया जाता है. अदम गोंडवी ने हिन्दुस्तान की जाति-व्यवस्था व हिंदू धर्म की विसंगतियों व विद्रूपताओं पर तंज कसते हुए कहा था–

वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वे अभागे आस्‍था विश्‍वास लेकर क्‍या करें

लोकरंजन हो जहां शम्‍बूक-वध की आड़ में
उस व्‍यवस्‍था का घृणित इतिहास लेकर क्‍या करें

कितना प्रतिगामी रहा भोगे हुए क्षण का यथार्थ
त्रासदी, कुंठा, घुटन, संत्रास लेकर क्‍या करें

मंदिर के बाबत केएन गोविन्दाचार्य ने प्रधानमंत्री कार्यालय को 13 पन्नों का ख़त लिखा. उन्होंने लिखा- ये क्या बखेड़ा चल रहा है इस मुल्क में? न्यायालय की पूरी तरह अवमानना की जा रही है, उसे फॉर ग्रांटेड लिया जा रहै है. भैयाजी जोशी ने अयोध्या जाकर बयान दिया, ‘तिरपाल के अंदर भगवान राम का वो आखिरी बार दर्शन कर रहे हैं’. गिरिराज सिंह ने कहा, ‘अब हिंदुओं का सब्र टूट रहा है. मुझे भय है कि हिंदुओं का सब्र टूटा तो क्या होगा? उस पर तेजस्वी यादव ने फौरन फटकार लगाई, ‘काहे बड़बड़ा रहे हैं, किसी का सब्र नहीं टूटा है. ठेकेदार मत बनिए, ये मगरमच्छी रोना रोने से फुर्सत मिले तो युवाओं की नौकरी, विकास और जनता की सेवा की बात करिए’.

राजनैतिक उत्तेजना का माहौल बनाने की मंशा रखने वालों को अखिलेश यादव ने चेतावनी दी कि धार्मिक उन्माद फैलाने वाले सबसे खतरनाक हैं.


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सिर्फ़ फजुल्ला चीज़ों को मुद्दा बनाया जा रहा है. बिहार में 80 साल के बुज़ुर्ग का क़त्ल कर दिया गया, मगर क्राइम, करप्शन व कम्युनलिज़म का राग अलापने वाले नीतीश कुमार के होंठ संघ ने सिल दिए हैं. वहीं दिल्ली में बैठे हुक्मरान स्मार्ट सिटी तो बना नहीं पाए, शहरों के नाम ही बदल कर अपनी हिकारत का प्रदर्शन करने में लगे हैं. फैज़ाबाद का नाम बदल कर अयोध्या कर दिया गया, इलाहाबाद का नाम बदल कर प्रयागराज कर दिया, जिससे लोककल्याण का कुछ लेनादेना नहीं.

आज चारों ओर नवउदारवाद का कहर बरपा हुआ है, बाज़ारवाद का डंडा चल रहा है, डब्ल्यूटीओ के सामने घुटने टेक कर शिक्षा को बाज़ार की वस्तु बना दी गयी है. लोगों को दो जून की रोटी नहीं नसीब हो रही है, बुंदेलखंड मे सूखे की मार है, लोग त्रस्त हैं, और हमारे देश की सरकार को राम मंदिर की पड़ी है. दो साल पहले स्वामी की नेशनल चैनल पर एक तरह से ये धमकी कि हम फिर से नहीं चाहते कि ख़ून-ख़राबा हो, 2000 लोग फिर से मारे जायें, इसलिए आपसी सहमति से, प्यार से मंदिर के निर्माण पर मुसलमान लोग मान जायें.

यह अनावश्यक बखेड़ा, घृणा व नफ़रत की सियासत इस अकर्मण्य सरकार की शिक्षा-विरोधी, छात्र-विरोधी, किसान विरोधी, जवान विरोधी छवि को हमारे सामने रखता है. एक ऐसा कैंपस जहां से नजीब दिनदहाड़े गायब हो जाता हो और सीबीआई उसे देश की राजधानी में ढूंढने में नाकाम रहती हो, उसी जेएनयू परिसर में जब हिंदुत्व के नाम पर राममंदिर के निर्माण हेतु उतावले बाहरी लोगों को जुलूस निकालने की अनुमति शासन-प्रशासन से मिल जाती हो, तो सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि देश कहां से संचालित, निर्देशित व नियंत्रित हो रहा है. किससे छुपा है कि वह कौन संघ है जो मनुविधान को संविधान के ऊपर वरीयता देता है? संविधानेत्तर शक्तियों का दोहन कौन कर रहा है?

इस मोड़ पर दो तस्वीरें उभरती हैं- एक, जहां सरकार के बड़े पुलिस अधिकारी कांवड़ियों पर पुष्पवृष्टि कर रहे हैं, तो दूसरी, जहां गाय के नाम पर पागल हो चुकी भीड़ की हिंसा में शहीद हुए इंस्पेक्टर के शव को वो कंधा दे रहे हैं. यह हालात कौन पैदा करा रहा है? एक ऐसे दौर में जब एसएचओ सुबोध सिंह की जान उन्मादी भीड़ ले लेती हो, लोकतंत्र को भीड़तंत्र में तब्दील किया जा रहा हो, बहुतेरे न्यूज़ चैनल्स आग में घी डालने का काम कर रहे हों, वहां बड़े सदविवेकी व दूरदर्शी नेताओं की एक पूरी की पूरी जमात की ज़रूरत है जो इस देश व समाज में शांतिपूर्ण सहअस्तित्व, समता, स्वतंत्रता व बंधुत्व के जज़्बे को मज़बूत करने में अपनी महती भूमिका निभा सके.

राजनेताओं का काम महज चुनाव लड़ना व जीतना नहीं है, अपितु एक सुंदर संसार की रचना हेतु परिपक्व व संवेदनशील नागरिक के निर्माण में योगदान देना भी है. यह काम लोकतंत्र के चारों स्तम्भ- विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका व मीडिया, मिल कर करें तो समाज की बीमार हो चुकी रूह की तीमारदारी हो सकती है, उसकी बदसूरती थोड़ी कम की जा सकती है. वेल इनफॉर्म्ड लोगों के मीडिया मेनिपुलेशन का शिकार होने का खतरा कम रहता है.

क्यों बांटते हो अनासिर के हसीं संगम को
आग, पानी, हवा, मिट्टी की कोई जात नहीं.
(मसऊद अहमद)

मेरा ख़याल है कि इस पाखंड से भरे खंड-खंड समाज वाले देश के आधुनिक इतिहास में आज़ादी से भी कहीं अहम व हसीन घटना कोई दर्ज हुई है, तो वो है संविधान का निर्माण और उसका अंगीकृत, अधिनियमित व आत्मर्पित होना. इस नाज़ुक घड़ी में असहमति के साहस व सहमति के विवेक के साथ बडी संजीदगी से समाज व मुल्क को बचाने की ज़रूरत है ताकि आने वाली नस्लों की दुश्वार राहें हमवार हो सकें. इसलिए, आज ज़रूरत है कि हम सब इस देश में क़ौमी एकता व अमन-चैन के लिए नफ़रतगर्दों के हर एक मंसूबे पर पानी फेरें व धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद को कमज़ोर न पड़ने दें. आज की तारीख़ में संविधान व संवैधानिक संस्थाओं को बचाना व उसकी गरिमा को बहाल करना दरअसल जम्हूरियत को बचाना है.

(ये लेखक के अपने विचार हैं.)

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1 टिप्पणी

  1. Jab desh ka batwara huaa… H dharm ke naam par… To ab ye rona dhona…. Ku… Pakistan.. Kya kya nhi… Karta…… Hmare Sare mandir tod diye…. Lekin… Kya aap jaso… Pta.. Bhi… Bharat me 3.50..lakh….masjide..h…
    ….. Kya… Hinduooo ki.. Bhavnao.. Ka koi mol nhi…. Masjid… Or khi bhi bnaiii ja sakti… H….
    To…. Ye kya baat hiiii… Or ha ye koi islamic country… Nhi… Samje…. Salo… Bhduooo…….
    Or… Ha… Ye jo tum likh rho ho… Secular… Kon.. Secular…. Salo…. Muslim.. Is country.. Me 2%se 22% par aagye… Or hindu… Pakistan.. Me… 10%se 1%par aagyee… Ye kya matlab… Hua aa… Ye hinduooo ka desh h ok…. Or likna chod… De…. Salo.. Bhaduooo…

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