समाजवादी पार्टी के सांसद और यूपी के पूर्व मंत्री आजम खां पर किताबों की चोरी का आरोप लगा है. जब देश भर में पुस्तकालयों की संख्या कम हो रही हैं, किताब पढ़ने की आदत कम हो रही है और सूचनाओं के लिए इंटरनेट पर निर्भरता बढ़ रही है, तब यह जानना दिलचस्प है कि एक नेता ने किताबों की चोरी कर ली.
आखिर ये वह समय है जब सार्वजनिक पुस्तकालय सरकारों की प्राथमिकता में नहीं हैं. जिम, स्वीमिंग पूल, जॉगिंग ट्रैक, टेनिस कोर्ट, क्लब जैसी सुविधाएं देने वाले बिल्डर अपने टाउनशिप में किताबें रखने व पढ़ने के लिए सार्वजनिक जगह की परिकल्पना नहीं करते हैं. लोग इसकी मांग भी नहीं करते हैं कि उनकी सोसाइटी में एक लाइब्रेरी भी बने.
तब ये सवाल जेहन में आता है कि क्या अब भी कोई ऐसा बचा है, जो किताबें चुरा ले.
आज के दौर में अगर कोई व्यक्ति, नेता या कामकाजी व्यक्ति पढ़ने-पढ़ाने के मकसद से किताब चुराता है तो उसे सम्मानित किए जाने की जरूरत है. खासकर आजम खां जैसे पुस्तक चोरों का पूरा सम्मान किया जाना चाहिए, जिनके ऊपर पुलिस ने आरोप लगाए हैं कि उन्होंने मदरसा आलिया की टूटी फूटी, जर्जर, सीलन भरी बिल्डिंग से दुर्लभ किताबें और पांडुलिपियां ‘चुराकर’ मौलाना जौहर यूनिवर्सिटी की अत्याधुनिक लाइब्रेरी में रखवा दी हैं, जहां हर जाति-धर्म के हजारों स्टूडेंट्स उन्हें पढ़ रहे हैं.
भारत में सार्वजनिक पुस्तकालयों का इतिहास
प्राचीन भारत में शिक्षा सार्वभौमिक नहीं थीं. कुछ चुने हुए समूहों तक ही शिक्षा की पहुंच थी. इसलिए प्राचीन समय में सार्वजनिक पुस्तकालयों का कोई उल्लेख नहीं मिलता. दुनिया की सबसे पुरानी लाइब्रेरी की लिस्ट में भारत के किसी पुस्तकालय का नाम नहीं आता. साथ ही भारत में ज्ञान की श्रुति परंपरा का जोर होने के कारण लिखे हुए शब्दों को सहेजने की परंपरा भी कमजोर रही है. इसका अपवाद सिर्फ बौद्ध शिक्षा केंद्र हैं, जहां बड़ी संख्या में किताबें और पांडुलिपियां रखी जाती थीं. लेकिन वह भी इतिहास ही है.
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आधुनिक भारत में सार्वजनिक पुस्तकालय व्यवस्था की व्यापक परिकल्पना बड़ौदा के मराठा शासक सयाजी राव गायकवाड़ ने पेश की. अपने साम्राज्य के एक जिले में 1893 में सामुदायिक शिक्षा का अनिवार्य कार्यक्रम चलाने वाले गायकवाड़ ने 1907 में अपने पूरे साम्राज्य में सभी लड़कों व लड़कियों के लिए शुरुआती शिक्षा अनिवार्य कर दी. उन्होंने 1910 में सार्वजनिक पुस्तकालय की व्यवस्था पेश की, क्योंकि उन्हें यह महसूस हुआ कि सार्वभौम शिक्षा के लिए मुफ्त सार्वजनिक पुस्तकालय जरूरी हैं. उन्होंने अलग से लाइब्रेरी विभाग बनाया और डब्ल्यू ए. बोर्डन को राज्य के पुस्तकालयों का पहला पूर्णकालिक निदेशक नियुक्त किया. बड़ौदा में उन्होंने सेंट्रल लाइब्रेरी बनाई, जिसमें उनके निजी संग्रह की करीब 20 हजार पुस्तकों सहित लगभग 90 हजार पुस्तकें रखी गईं.
पुस्तकालयों की मौजूदा हालत
भारत सरकार की नोडल एजेंसी राजा राम मोहन रॉय लाइब्रेरी फाउंडेशन (आरआरआरएलएफ ) है. 1972 में गठन के बाद से ही यह फाउंडेशन पब्लिक लाइब्रेरी सिस्टम को सपोर्ट करता है. देश भर में 70,000 से ज्यादा पब्लिक लाइब्रेरी में से 34,000 को यह विभिन्न योजनाओं के तहत आर्थिक मदद करता है.
भारत में सार्वजनिक पुस्तकालय की शुरुआत इंग्लिश कॉलोनी लाइब्रेरी, चेन्नई से 1661 में हुई. वित्तीय समर्थन न मिलने के कारण तमाम पुस्तकालय लंबे समय तक नहीं चल पाए. 1950 के पहले आंध्र प्रदेश में 6,000 सार्वजनिक पुस्तकालय थे, जिसका काम एक एनजीओ देखता था. अब राज्य में सार्वजनिक पुस्तकालयों की संख्या घटकर 3,000 से भी कम रह गई है. केरल में भी एक समय लाइब्रेरी आंदोलन चला था. तमिलनाडु में सबसे ज्यादा 4,028 सार्वजनिक पुस्तकालय हैं. अन्य राज्यों की लाइब्रेरियों की स्थिति बहुत दयनीय है.
उत्तर प्रदेश में पुस्तकालय
उत्तर प्रदेश हस्तलिखित पुस्तकों के पुस्तकालयों के लिए रहा प्रसिद्ध है. हस्तलिखित पुस्तकों को एकत्र कर रामपुर रजा लाइब्रेरी में रखा गया है. यह राष्ट्रीय महत्व का संस्थान है, जिसकी देखभाल केंद्र सरकार करती है. इलाहाबाद पब्लिक लाइब्रेरी की स्थापना 1864 में हुई. बनारस में विश्वनाथ मंदिर के पास कारमाइकल लाइब्रेरी की स्थापना 1872 में हुई. मेरठ में 1866 में लॉयल लाइब्रेरी और रीडिंग रूम बने, जहां आगे चलकर बड़ी संख्या में स्वयंसेवी संगठनों ने पुस्तकालय खोले. 1949 में उत्तर प्रदेश लाइब्रेरी एसोसिएशन का गठन हुआ. 1949 में डॉ एसआर रंगनाथन ने उत्तर प्रदेश पब्लिक लाइब्रेरी बिल का मसौदा तैयार किया.
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तमाम राज्यों ने अपने राज्य के पुस्तकालयों के प्रबंधन के लिए स्वतंत्रता के कुछ साल के भीतर लाइब्रेरी कानून पारित करा लिए. वहीं उत्तर प्रदेश में 2006 में जाकर लाइब्रेरी कानून पारित हुआ जब राज्य के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव थे और आजम खां प्रदेश में कैबिनेट मंत्री थे. इस एक्ट के तहत हर जिले में एक लाइब्रेरी कमेटी गठित करने की बात है, जिनकी अध्यक्षता जिलाधिकारी को करनी है. इस समिति को जिलों में लाइब्रेरी विकसित करने का जिम्मा सौंपा गया है.
उत्तर प्रदेश में पुस्तकालयों का बहुत बुरा हाल है. नए पुस्तकालय खुलने तो दूर की बात है, जो पुराने बचे हैं, वह भी बर्बाद हो चुके हैं. एक रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश में सिर्फ 75 सार्वजनिक पुस्तकालय बचे हैं. इन्हें बचाना या नए पुस्तकालय खोलना सरकार की प्राथमिकताओं में काफी नीचे है.
क्या है आजम खान और मदरसा आलिया का मामला
मदरसा आलिया की स्थापना 1774 में विद्या सागर मौलाना अब्दुल अली फिरंगी की निगरानी में हुई थी. मदरसा आलिया नवाबों के शासन काल में दूर-दूर तक मशहूर था. इस मदरसे को मिस्र के जामिया अजहर यूनिवर्सिटी, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, जामिया हमदर्द एवं जामिया मिल्लिया इस्लामिया, दिल्ली से मान्यता प्राप्त थी. इसमें पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान और तुर्की के छात्र भी पढ़ने आते थे. रामपुर के जिलाधिकारी के मुताबिक 15 मई 1949 को रियासत के विलय के दौरान मर्जर एक्ट में यह प्रावधान किया गया था कि इस मदरसे को कभी बंद नहीं किया जाएगा और इसके संचालन का संपूर्ण खर्च सरकार वहन करेगी. मौलाना मोहम्मद अली जौहर ने भी इस विद्यालय में शिक्षण कार्य किया है. यहां अरबी, फारसी की दुर्लभ पांडुलिपियां एवं बहुमूल्य किताबें थीं.
मदरसा आलिया की स्थिति धीरे-धीरे दयनीय होती गई. इसके भवन में जगह-जगह पानी टपकता था. सपा के शासनकाल में कैबिनेट मंत्री आजम खां ने इमारत की मरम्मत कराई. इसमें पढ़ने वाले बहुत कम बच्चे रह गए थे और बाद में मदरसे को बंद करा दिया गया. सपा शासन काल में ही इसे मौलाना मुहम्मद अली जौहर ट्रस्ट के नाम पर 99 साल के लीज पर दे दिया गया. ट्रस्ट के अध्यक्ष सांसद आजम खां हैं और यही ट्रस्ट जौहर यूनिवर्सिटी चलाती है.
मदरसा आलिया के प्रिंसिपल ज़ुबेर खान ने 16 जून 2019 को मदरसे की दुर्लभ किताबों और पांडुलिपियों की चोरी की एफआईआर लिखवाई. जुबेर ने दावा किया कि करीब 9,000 दुर्लभ पुस्तकें और पांडुलिपियां मदरसे के पुस्तकालय से 10 सितंबर 2016 को अज्ञात लोगों ने चुरा ली थीं. पुलिस के मुताबिक उसने मोहम्मद अली जौहर विश्वविद्यालय में छापे मारकर आलिया मदरसे की 2,000 किताबें बरामद कर लीं. अभी तक कोई ऐसी खबर नहीं आई है कि पुलिस ने उन किताबों को बरामद करने के बाद कहां रखा है और वह सुरक्षित बची भी हैं या थाने के सीलन भरे गोदाम में उन किताबों को चूहे और दीमक खा गए हैं.
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अगर मदरसा आलिया की किताबें जौहर यूनिवर्सिटी में रखने से कोई कानून टूटा है को आजम खान या संबंधित व्यक्ति को सजा होनी चाहिए. लेकिन इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि किताबें ले जाने वाले ने वे किताबें कबाड़ में नहीं बेची हैं और न ही अपने घर या निजी संग्रह में सजा ली हैं.
इस समय छोटे-छोटे बच्चों के स्कूली बस्तों के बोझ उनकी रीढ़ तोड़ रही हैं. ऐसे में सार्वजनिक पुस्तकालय की भूमिका अहम हो जाती है. न सिर्फ विभिन्न सोसायटियों बल्कि बड़े सार्वजनिक पार्कों में भी सार्वजनिक अध्ययन स्थल और छोटी लाइब्रेरी बनाए जाने की जरूरत है. स्कूली शिक्षा खत्म होते ही रोजी रोजगार के बाद किताबों से विमुक्त होकर ह्वाट्सऐप, गूगल, विकीपीडिया से ज्ञान लेने वाली अधेड़ और बुजुर्ग हो रही पीढ़ी को पुस्तकालयों में भेजे जाने की जरूरत है. इसलिए आजम खान को अगर किताब चोरी में सजा हो जाती है, तो भी समाज को उनका इस काम के लिए सार्वजनिक अभिनन्दन करना चाहिए.
(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं.यह लेख उनका निजी विचार है.)