पाकिस्तान की मुख़ालिफ पार्टियों ने एक बार फिर एक व्यापक गठबंधन बना लिया है, जबकि सोमवार को प्रधानमंत्री इमरान खान के स्पेशल असिस्टेंट ले. जन. (रिटा.) आसिम सलीम बाजवा ने अपनी कुर्सी से इस्तीफा दे दिया.
ऐसे गठबंधन 1960 के दशक से कई बार बनते रहे हैं, जब पाकिस्तान के पहले सैनिक शासक फील्ड मार्शल अय्यूब खान का विरोध कर रहे राजनेताओं ने पहली बार उनके ख़िलाफ गठबंधन किया था. लेकिन पहले के उलट, इस बार सियासतदां सिर्फ राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री को निशाना बनाने से ही संतुष्ट नहीं हैं. वो पाकिस्तान की सियासत में सेना की भूमिका पर ही सवाल खड़े कर रहे हैं.
जनरल क़मर जावेद बाजवा की अगुवाई में सेना ने सोचा कि ड्राइवर सीट पर बैठे बिना सत्ता की सवारी करने से, वो आलोचनाओं से बची रहेगी. लेकिन जनरल बाजवा की नीतियां लागू करते हुए प्रधानमंत्री इमरान खान की नागरिक सरकार, सेना को सियासी हमलों से नहीं बचा पाई है. कमज़ोर नागरिक मुखौटे ने सियासतदानों को ‘विशुद्ध लोकतंत्र’ की मांग करने का मौक़ा दे दिया है.
मुख़ालिफ नेताओं की अपनी ख़ामियां हैं, लेकिन उनमें हर एक का एक लोकप्रिय आधार है. नेताओं के हिमायती उनमें ख़ामियों की अपेक्षा करते हैं, और वो इन्हीं ख़ामियों के साथ उनका समर्थन करते हैं. लेकिन दूसरी तरफ सेना का समर्थन इस मान्यता पर टिका होता है कि ये एक ऐसा संस्थान है जो सियासत से ऊपर है, और जो देश की रक्षा के लिए प्रशिक्षित है, उसकी इच्छुक है.
पाकिस्तान की सेना तब से सियासत में शामिल रही है, जब अय्यूब ख़ान ने 1951 में सेना प्रमुख का पद संभाला था. फिर भी इसके अधिकारी अपनी शपथ में ज़ोर देते हैं कि वो सियासत से कोई सरोकार नहीं रखेंगे, और सेना भी ये दिखाने की पूरी कोशिश करती है कि वो एक राष्ट्रीय संस्थान है, कोई सियासी अदाकार नहीं है.
लेकिन हाल ही में, बहुत से रिटायर्ड जनरल्स में से एक ने, जो नियमित रूप से पाकिस्तानी टेलीवीज़न चैनल्स पर आते रहते हैं, सेना को ‘पाकिस्तान की सबसे बड़ी सियासी पार्टी’ क़रार दिया. जब विपक्षी नेता सेना की आलोचना करने लगते हैं, तो जनरल बाजवा भी मजबूरन अपनी रणनीति पर फिर से ग़ौर कर सकते हैं, जिसमें लोगों को इमरान ख़ान सरकार को, दरअसल सेना की सरकार समझने दिया जाता है और विरोधियों व आलोचकों को, पाकिस्तान का दुश्मन बता दिया जाता है.
एक काल्पनिक इकाई
जैसा कि मैंने एक बार दि इंडियन एक्सप्रेस में कहा था, मेजर जनरल (रिटा) शेर अली ख़ान पटौदी ने, 1969 में पाकिस्तान के दूसरे सैनिक शासक जनरल याहिया ख़ान को सलाह दी थी, ‘फील्ड मार्शल अय्यूब ख़ान के हटने के बाद, सेना ने जिस तरह सियासतदानों से पहल को छीना, उसके पीछे का कारण उसकी ताक़त नहीं, बल्कि उसका करिश्मा था’.
पाकिस्तानी सेना का करिश्मा एक ऐसा ‘कीमती राजनीतिक संसाधन था, जो एक बार गंवा दिया, तो दोबारा आसानी से नहीं मिलेगा’. सेना के लिए बेहतर यही था कि वो लोगों के लिए, ‘एक काल्पनिक इकाई, एक जादुई ताक़त बनी रहे, जो ऐसे समय उनकी सहायता करे, जब सब कुछ फेल हो गया हो’.
शेर अली के मुताबिक़, ‘लोगों के दिमाग़ में, नौकरशाहों और नेताओं के उलट- जिनके साथ वो हर रोज़ संपर्क में रहते थे, और जिन्हें वो भ्रष्ट और ज़ालिम समझते थे- सेना पाकिस्तान और उसकी भलाई की सबसे बड़ी गारंटर थी’. चीज़ों को उसी तरह बनाए रखने के लिए, सेना को पर्दे के पीछे से सत्ता को चलाना था. वो अपने ही लोगों पर ताक़त का इस्तेमाल नहीं कर सकती थी.
किसी फौजी कमांडर के सीधे शासन के हर कार्यकाल के अंत में- अय्यूब ख़ान 1958-69, याहिया ख़ान 1969-71, मोहम्मद ज़िया-उल-हक़ 1977-88, और परवेज़ मुशर्रफ 1999-2007- उन्हीं सियासतदानों की सत्ता में वापसी हुई है, जिन्हें सेना हर हाल में किनारे करना चाहती थी. इसकी वजह ये है कि सेना खुलकर पूरी तरह लोगों के सामने नहीं आना चाहती कि कहीं उसका करिश्मा ख़त्म न हो जाए.
लेकिन समय के साथ पाकिस्तानी सेना, सियासत और मीडिया में इतनी लिपट गई है कि उसका वो करिश्मा ही फीका पड़ गया, जो सेना के एक काल्पनिक इकाई बने रहने पर टिका था.
इस बार आर्मी कमांडर सीधे सत्ता में भी नहीं है, और सेना की भूमिका सियासी रूप से पहले ही विवादास्पद होती जा रही है. सेना को एक बार फिर कोई रास्ता निकालना होगा कि वो राज भी करे, और राज करती दिखाई भी न दे
बाजवा की हिचकिचाहट
जनरल बाजवा सेना के सियासी रोल के आलोचकों को ये कहकर पहले ही शांति का प्रस्ताव दे चुके हैं कि सकारात्मक आलोचना का मतलब, पाकिस्तान के खिलाफ हाईब्रिड युद्ध नहीं लगाया जाना चाहिए.
पाकिस्तान मिलिटरी अकेडमी में, कैडेट्स की पासिंग आउट परेड को मुख़ातिब करते हुए उन्होंने कहा, ‘बहुत सी आवाज़ें जो आपको बहुत ऊंची लग सकती हैं, वो प्यार, देश प्रेम, और भरोसे से आती हैं, इसलिए उन्हें सुना जाना चाहिए’.
यो हमें इस वजह पर लाता है कि पाकिस्तान के जनरल सियासत में बार-बार नाकाम क्यों हुए हैं.
पाकिस्तानी सेना के कमांडर इन चीफ़ (1958-1966) जनरल मोहम्मद मूसा ने समझाया कि सियासत ने उन्हें हमेशा चकराया है, क्योंकि उन्हें ट्रेनिंग मिली थी कि ‘दुश्मन का पता लगाओ, और उसे ख़त्म कर दो. उन्हें सिखाया गया था कि अपने वरिष्ठों का हुक्म मानें, और मातहतों को कमांड करें, लेकिन ये नहीं सिखाया गया कि ‘अपने ही लोगों’ से कैसे पेश आएं, जिनके विश्वास और आस्था ने उन्हें निडर बना दिया था.
सियासत में वैकल्पिक समाधानों, विचारों और नीतियों के बीच चुनाव करना होता है. इसके लिए समझौते और समायोजन करने पड़ते हैं, और इसमें समझाने-बुझाने की ज़रूरत होती है, हुक्म चलाने और हुक्म मनवाने की नहीं.
मुख़ालिफ पार्टियां भले ही बड़े-बड़े मुज़ाहिरों के ज़रिए इमरान ख़ान सरकार का चक्का जाम न कर पाएं, लेकिन पाकिस्तान के सेना प्रमुख क़मर बाजवा का सियासी रोल, उन्हें विपक्ष से बातचीत के लिए मजबूर करेगा, जिससे वो नफरत करते हैं. लेकिन इसके बाद भी पूरा संस्थान इस बात का इक़रार नहीं करेगा कि वर्दी की ज़िंदगी किसी जनरल को, उल्टी-पुल्टी सियासी दुनिया के लिए तैयार नहीं करती.
विडंबना ये है कि इस लेख पर पाकिस्तानी सैनिकों की प्रतिक्रिया ये होगी कि इसे एक निर्वासित पाकिस्तानी द्वारा भारत स्थित न्यूज़ आउटलेट के लिए लिखा गया बताकर ख़ारिज कर दिया जाएगा, बिना ये सोचे कि लोग निर्वासित क्यों होते हैं, और हम में से इतने सारे लोगों पर, पाकिस्तान के अपने मीडिया में लिखने पर पाबंदी क्यों है.
(हुसैन हक़्क़ानी वॉशिंगटन डीसी के हडसन इंस्टीट्यूट में, साउथ एंड सेंट्रल एशिया के डायरेक्टर हैं, और 2008 से 2011 तक अमेरिका में पाकिस्तान के राजदूत थे. उनकी कुछ किताबें हैं ‘पाकिस्तान बिटवीन मॉस्क एंड मिलिटरी’, ‘इंडिया वर्सेंज़ पाकिस्तान: व्हाई कांट वी बी फ्रेण्ड्स’, और रीइमेजिनिंग पाकिस्तान. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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