अच्छा हुआ कि श्री रामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट ने अयोध्या में ‘वहीं’ बनने जा रहे मन्दिर के दो सौ फीट नीचे एक टाइम कैप्सूल गाड़े जाने की उसके समर्थकों द्वारा प्रचारित खबर से समय रहते पल्ला झाड़ लिया और ‘नाशुक्रों’ द्वारा इस सिलसिले में पूछे जा रहे कई असुविधाजनक सवालों की जवाबदेही से मुक्ति पा ली. अन्यथा इस कैप्सूल में दर्ज इतिहास ही नहीं, उसके ताम्रपत्र को ‘कालपात्र’ कहने से परहेज बरतना और हिन्दी के बजाय संस्कृत में लिखाया जाना भी विवाद का विषय बनता.
कई नाशुक्रे तो उसे गाड़े जाने की खबर आते ही ट्रस्ट को यह बेमांगी सलाह देने को उतावले हो उठे थे कि अगर उसको कालपात्र संज्ञा में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा 15 अगस्त, 1973 को लालकिला परिसर में 32 फीट नीचे रखवाये गये पात्र की गंध आती है तो उसे इस गंध को सह लेना चाहिए. क्योंकि उसकी जमातों में सरदार वल्लभभाई पटेल के अलावा किसी कांग्रेस नेता का थोड़ा-बहुत क्रेज है तो वे श्रीमती गांधी ही हैं.
ये नाशुक्रे यह भी पूछना चाहते थे कि गांधी से परहेज के लिए उसने अपने टाइम कैप्सूल से हिन्दी को ही क्यों निर्वासित कर डाला है? क्या अब उसकी जमातें ‘एक राष्ट्र, एक भाषा’ का नारा दें तो उनकी उस एक भाषा को हिन्दी नहीं, संस्कृत समझा जाये? उनका एक सवाल यह भी था कि क्या हजारों साल बाद कोई उस टाइम कैप्सूल को निकालेगा तो उसे इस मंदिर का इतिहास हिन्दी के मुकाबले संस्कृत में जानना ज्यादा सुभीते का लगेगा?
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इतिहास विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को लानतें भेजेगा
बहरहाल, हम जानते हैं कि जहां इस मंदिर का गर्भगृह बनेगा, 6 दिसम्बर, 1992 के पहले वहां खड़ी बाबरी मस्जिद के नीचे भरपूर खुदाई के बावजूद भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ऐसे साक्ष्य नहीं जुटा पाया, जिनकी बिना पर उससे जुड़े विवाद की अंतिम सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय मंदिर समर्थकों की इस तोता रटंत को लेकर आश्वस्त हो पाता कि वह वहां अवस्थित किसी हिन्दू मंदिर को तोड़कर बनायी गयी थी. लेकिन हमारे भावी इतिहास को इस तथ्य से अवगत होने के लिए किसी खुदाई की जरूरत नहीं होगी कि उस पर बने मंदिर के गर्भगृह के नीचे भारत के संविधान के सबसे पवित्र मूल्य धर्मनिरपेक्षता के साथ उसकी विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को दफन करने के लिए जबरन बनाई गई कब्रें हैं-ऐक्चुअल नहीं तो वर्चुअल ही सही.
यकीनन, वह इतिहास इन तीनों पर लानतें भेजेगा कि वे मिलकर भी अयोध्या के स्थानीय स्तर पर एक छोटे से विवाद का बोझ नहीं उठा पाईं और उसे इतना विकराल हो जाने दिया कि वह देश के अमन-चैन का दुश्मन बनने, चुनावों में इस्तेमाल होने और सरकारें बनवाने व गिराने लगे. फिर कई पीढ़ियों के बाद उसे उसकी अंतिम न्यायिक परिणति तक पहुंचाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को मजबूर होकर संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत उसे हासिल इनहेरेंट पावर पर निर्भर करना पड़े.
यहां याद रखना चाहिए, मन्दिरवादियों के गहरे दबाव के बीच प्रधानमंत्री ने पहले ही कह दिया था कि न्यायालय का फैसला मंदिर के पक्ष में नहीं हुआ तो वे संसद में हासिल अपनी बहुमत की शक्ति का इस्तेमाल करेंगे.
बहरहाल, मन्दिरवादियों की बात इसकी नौबत आये बिना ही बन गई है तो विश्वास करने के कारण हैं कि वे इतने भर से ही संतुष्ट नहीं हो जाने वाले. उन्हें राम मंदिर ही अभीष्ट होता तो अयोध्यावासियों ने तो उसका मार्ग 1986 में बाबरी मस्जिद में बन्द ताले खोले जाने के बाद ही प्रशस्त कर दिया था-सर्वसम्मति से.
आरएसएस नेता ने कहा था राम मंदिर आंदोलन सत्ता के लिए है
तब इस सर्वसम्मति को लेकर विश्व हिन्दू परिषद के नायक अशोक सिंघल तक आह्लादित थे, लेकिन जैसा कि वरिष्ठ पत्रकार शीतला सिंह ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘अयोध्या: रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद का सच’ में लिखा है, तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक बालासाहब देवरस ने अपने आनुषांगिक संगठन के इस नेता को यह कहकर डांट दिया था कि राम के तो देश में बहुत से मंदिर हैं, राम मंदिर का आन्दोलन वास्तव में जनता को अपने पक्ष में करके देश की सत्ता पर कब्जा करने के लिए है.
साफ है कि वे मुसलमानों की सहमति से नहीं, उन पर जीत दर्ज करके मंदिर बनाना चाहते थे. ऐसा, जो राम से ज्यादा उनकी राजनीति और हिन्दुत्व दोनों की जीत का हो. अब यह जीत हासिल हो गयी है तो उन्होंने मंदिर के भूमि पूजन के लिए जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाने की वर्षगांठ का विवादास्पद दिन चुनकर संकेत दे दिया है कि अब भी उसे ‘हिन्दू बनाम मुसलमान’ बनाये रखना चाहते हैं.
राम मंदिर दशरथ के बेटे या घर-घर लेटे का?
दरअसल, वे जाानते हैं कि ऐसा नहीं करेंगे तो कई अप्रिय सवाल उनका पीछा नहीं छोड़ेंगे. मसलन, श्री रामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट में जाति विशेष का वर्चस्व क्यों है? उसमें दलितों व पिछड़ों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व क्यों नहीं है? वह जो राम मंदिर बना रहा है, वह किस राम का होगा? दशरथ के बेटे का, घर-घर लेटे का या…? वह राम को हिन्दू बनाकर उनकी स्वीकार्यता को विस्तृत करेगा या संकुचित? रामकथा तो भारत की सीमाओं के पार भी अनेक देशों में कही जाती है और उनमें जो हिन्दू धर्मावलम्बी नहीं हैं, वे भी उन्हें अपने पुरखों में शामिल करते हैं.
ये सवाल तभी तक दबे रहेंगे, जब तक मामले को ‘हिन्दू-मुसलमान’ बनाये रखा जायेगा. ऐसे में वे, जैसा कि उनका पुराना अभ्यास है, भेदभाव व घृणा के अपने एजेंडे को जब चाहेंगे स्थगित करते और जब चाहेंगे, जिन्न बनाकर बाहर निकालते रहेंगे. राम मंदिर बनाने और धारा 370 हटाने के वादे तो खैर उन्होंने ‘निभा’ ही दिये हैं. अब समान नागरिक संहिता की ओर बढ़ जायेंगे या फिर अपने पुराने नारे की ओर: अयोध्या तो झांकी है, काशी मथुरा बाकी है.
धर्मनिरपेक्ष शक्तियों की पराजय हुई
फिलहाल, उन्हें उम्मीद है कि देश की खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाली शक्तियों ने उन्हें जो ढेर सारे तर्क (पढ़िये: कुतर्क) उपलब्ध करा दिये हैं, वे अभी कई चुनावों तक उनके काम आते रहेंगे. इन शक्तियों का यह टूटा हुआ विश्वास भी कि महान जनता धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के लिए अनंतकाल तक उनकी ढेर सारी बदतमीजियां और बदगुमानियां झेलती रहेगी.
नि:स्संदेह मन्दिरवादी राजनेताओं की यह जीत, उनकी जीत से ज्यादा देश की उन धर्मनिरपेक्ष शक्तियों की पराजय है, जो पहले तो उनको लेकर समय रहते चेती नहीं.
वे तब भी साम्प्रदायिकता के अलमबरदारों को लोकतांत्रिक शक्ति मान कर ही मुकाबले की सोचती रहीं, जब वे उन्हें बार-बार छद्म बताने और धर्मनिरपेक्षता को संविधान की प्रस्तावना से बाहर का रास्ता दिखाने का मंसूबा बांधने लगे. फिर तो वे अपनी जनता का एक-एक कर उनके पाले में जाना देखती रहीं और अब देश के भविष्य में दूर तक आगे देखने की क्षमता ही खो बैठी हैं. इस आशंका से हलकान कि धर्मनिरपेक्षता संवैधानिक मूल्य के तौर पर अपनी रक्षा कर भी पायेगी या नहीं. तिस पर इस दुर्दिन में उनके पास जवाहरलाल नेहरू जैसा कोई नेता भी नहीं है, जो साफ-साफ कह सके कि इस बहुभाषी-बहुधर्मी यानी धर्मनिरपेक्ष देश को मंदिर-मस्जिद से क्या वास्ता?
गौरतलब है कि सितम्बर, 1950 में कांग्रेस में सम्प्रदायवादी पुरुषोत्तमदास टंडन की बल्ले-बल्ले के बीच नासिक में कांग्रेस का सम्मेलन हुआ तो नेहरू ने उसके मंच से पूछा था कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर जुल्म हो रहे हैं तो क्या हम भी यहां वही करें? उन्होंने कहा था, ‘अगर सम्मेलन के प्रतिनिधि यही चाहते हैं तो साफ-साफ कहें….मैं प्रधानमंत्री पद छोड़ दूंगा और कांग्रेस के आदर्शों के लिए स्वतंत्र रूप से लड़ूंगा.’
इसके विपरीत अयोध्या विवाद में स्वयंभू धर्मनिरपेक्षों की पराजय तो कायदे से पूछिये तो उसी दिन शुरू हो गयी थी, जब भाजपा ने भारत को ‘हिन्दू पाकिस्तान’ बनाने के लिए चुनावों में मंदिर के नाम पर जनादेश मांगना शुरू किया और वे डरे-सहमे इस निष्कर्ष पर पहुंच गये कि हम भाजपा से तो लड़ सकते हैं, भगवान राम से नहीं. आगे चलकर तो वे उसे रोकते-रोकते पूरी तरह उसके इस सवाल के ट्रैप में आ गये कि राम का मंदिर अयोध्या में नहीं तो कहां बनेगा? उन्होंने उसकी दूरगामी रणनीति को समझने में भी गलतियां कीं. 2004 में जैसे-तैसे अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को सत्ता से बाहर कर दिया तो मान बैठे कि अभीष्ट सिद्ध हो गया. हिन्दू साम्प्रदायिकता को जातिवादी समीकरणों के सहारे मिली शिकस्त की लम्बी उम्र के सपने देखने या खुद को ‘बेहतर हिन्दू’ सिद्ध करने लगे.
अब एक ओर उनके सपने और समीकरण टूटे हुए हैं तो दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पास, उनकी जमातों के अपनी जनता बनाने के अहर्निश प्रयासों की सफलता के कारण, छवि परिवर्तन, कायान्तरण या चोलाबदल की असीम संभावनाएं हैं. 2014 में उन्हें अपनी कट्टर हिन्दुत्ववादी छवि बदलकर ‘विकास का महानायक’ बनना हुआ तो उन्होंने राम मंदिर के मुद्दे से ऐसा परहेज किया कि जैसे उसकी छूत से उनकी सारी संभावनाएं धूमिल पड़ जाने वाली हों.
चुनावी रैली को सम्बोधित करने फैजाबाद आये तो भी कुछ ही किलोमीटर दूर स्थित अयोध्या में विराजमान रामलला के दर्शन करने नहीं गये. लेकिन अब ‘विकास के महानायक’ का आसन डगमगाया और करिश्मा चुक गया है तो मंदिर के लिए भूमि पूजन करने आ रहे हैं.
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दूसरी ओर जिन लौह पुरुष लालकृष्ण आडवाणी ने सारा अयोध्या आन्दोलन चलाया, उन्होंने अदालत में कह दिया है कि बाबरी मस्जिद ध्वंस मामले में उन्हें द्वेषवश फंसाया गया! आगे जो भी हो, दो चीजें याद रखनी होंगी.
पहली: देश में सर्वधर्मसमभाव कहें या धर्मनिरपेक्षता, पहली बार नहीं हारी है. 1947 में भी वह हार ही गई थी. देश का विभाजन, जिसे राष्ट्रपिता कह रहे थे कि उनकी लाश पर होगा, टाले नहीं टला था. उसके बाद उसने कैसे देश के नेताओं को पाकिस्तान की जमीन पर जाने से रोक कर धर्मनिरपेक्ष बनाये रखा और बाकायदा अपना संवैधानिक तंत्र विकसित कर उक्त हार को जीत में बदल दिया, इसका भी एक इतिहास है. इसका भी कि आज हालत यह कैसे हो गई है कि कई निराश लोग यह तक पूछने लगे हैं कि क्या आप भारत को हिन्दू राष्ट्र तभी मानेंगे, जब संघ परिवारी ढोल नगाड़ा बजाकर उसका ऐलान करेंगे? लेकिन अच्छी बात यह है कि अभी कोई भी पक्ष इस हार या जीत को अंतिम नहीं मान रहा.
दूसरी: यह तथाकथित हिन्दुत्ववादी राजनीति सबसे ज्यादा भगवान राम और हिन्दुओं का ही नुकसान कर रही है. अंधी आस्थाओं के चक्कर में उसने उन्हें यह भुला देने में पूरी कामयाबी पा ली कि उनके पास विवेक नाम की एक चीज होना भी जरूरी है, तो उनका यह नुकसान अपूरणीय हो जायेगा. लेकिन उस राजनीति को इससे क्या, जो मंदिर निर्माण के लिए सारे तीर्थों की मिट्टी और सारी नदियों का जल तो अयोध्या ला रही है, लेकिन देश की धरती को सारे इंसानों के लिए महफूज रहने देना गवारा नहीं कर रही.
फिलहाल, रामजन्मभूमि के पुजारी और सुरक्षाकर्मियों के कोरोना से संक्रमित हो जाने के बाद भी अपने भूमि पूजन कार्यक्रम पर अड़ी रहकर उन्होंने यही सिद्ध किया है कि वह तबलीग़ी जमात की कितनी भी आलोचना क्यों न करे, खुद भी तबलीग़ी जमात की ही पर्याय है.
(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, इस लेख में उनके विचार निजी हैं)
It looks like an incoherent rant. Every one knows why Modi didn’t go to Ayodhya earlier. The writers seems to have lost his mind.
Well written
Babar ne 500 saal pehle kiya usko rectify kr diya bhai abhi bhi aapki print sahi nai hai….