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Wednesday, 8 May, 2024
होममत-विमत'राम तो सबके हैं' फिर भी राम मंदिर ट्रस्ट में एक ही जाति की क्यों बोल रही है तूती

‘राम तो सबके हैं’ फिर भी राम मंदिर ट्रस्ट में एक ही जाति की क्यों बोल रही है तूती

संघ के अयोध्या निवासी स्वयंसेवक कन्हैया मौर्य यह याद करते हुए अपनी निराशा छिपा नहीं पाते कि तब कहा गया था कि राम तो सबके हैं. किसी एक खास वर्ग, जाति या समुदाय के नहीं.

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विश्व हिन्दू परिषद के कारसेवकों ने छह दिसम्बर, 1992 को अयोध्या में, सरकारी मशीनरी की मिलीभगत से कहें या उसको दरकिनार कर, ऐतिहासिक बाबरी मस्जिद को ढहाया और ‘अपना राज’ स्थापित किया तो लखनऊ के एक दैनिक ने मीडिया की उन दिनों की मुख्यधारा के विपरीत अपनी बैनर हेडलाइन में इस कृत्य को ‘हिन्दू पद पादशाही का नंगा नाच’ बताया था. उसके अनुसार कारसेवकों का यह कृत्य दूसरे मराठा पेशवा बाजीराव प्रथम (1720-1740 ई.) द्वारा भारत पर मुस्लिमों का शासन समाप्त करने के लिए सभी हिन्दू राजाओं के एक हो जाने और समूचे देश में हिन्दू राज्य की स्थापना के उद्देश्य से निर्धारित किये गये हिन्दू पद पादशाही की स्थापना के लक्ष्य की याद दिलाता था.

यह लक्ष्य हासिल करने के लिए मराठों द्वारा देश भर के हिन्दू राजाओं से मित्रता, उदारता और बराबरी का बरताव जरूरी था, लेकिन हमारा इतिहास गवाह है कि ऐसा सम्भव नहीं हुआ. तीसरे पेशवा बालाजी बाजीराव (1740-1761 ई.) ने इस हिन्दू पद पादशाही की चिंता छोड़ मराठों का ही आधिपत्य स्थापित करने की राह पकड़ ली और अपने आक्रमणों के दौरान क्या हिन्दू क्या मुसलमान सारे शासकों से एक जैसी निर्दयता से पेश आना शुरू कर दिया. उसने उनकी प्रजा को लूटने में भी धर्म के आधार पर कोई ‘भेदभाव’ बरतना स्वीकार नहीं किया. ऐसे में ‘हिन्दू पद पादशाही’ के विचार को दम तोड़ना ही था.

बाबरी मस्जिद ध्वंस के 28 साल बाद उससे जुड़े विवाद में सर्वोच्च न्यायालय से हिन्दू पक्ष को मिली बड़ी जीत के खुशनुमा माहौल में, जब केन्द्र सरकार द्वारा न्यायालय के निर्देश के अनुसार ट्रस्ट गठित किये जाने के साथ ही राम मन्दिर निर्माण की कवायदें जारी हैं, हिन्दू पद पादशाही के उक्त प्रसंग को याद करने का एक खास कारण है.

अभी भव्य राममन्दिर निर्माण के शुभारम्भ की तिथि भी तय नहीं हुई है और अयोध्या में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार के संगठनों व उनकी सरकारों के बरताव में तीसरे पेशवा बालाजी बाजीराव की झलक दिखाई देने लगी है. ये सरकारें और संगठन ‘हिन्दुओं की बहुप्रतीक्षित जीत’ के बाद उस पर दावेदारी कर रही केवटों, धोबियों और शबरियों की पांतों को- वे उनके अन्दर की हों या बाहर की- हाशिये पर डाल देने या ‘बाहर का रास्ता’ दिखाने में उक्त तीसरे पेशवा की ही तरह कोई भेद नहीं कर रहे. उन्हें यह याद करना भी गवारा नहीं है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा और लोकसभा के गत चुनावों से पहले वे इन्हें पटाने लिए उनके साथ समरसता भोज आयोजित किया करते थे. इतना ही नहीं, उनके नेता इन्हें ‘हिन्दुत्व रक्षक हिरावल दस्ते’ बताया करते थे.


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केन्द्र सरकार द्वारा गठित राममन्दिर ट्रस्ट में महिलाओं, दलितों व पिछड़ों की उपेक्षा की कीमत पर ‘ब्राह्मणवादी श्रेष्ठता’ के वर्चस्व से, और तो और इन जातियों से आये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वे स्वयंसेवक भी झुंझलाये हुए हैं, जिनके परिवारों में राममन्दिर आन्दोलन के भावनात्मक उफान के दौरान नये सिरे से हिन्दू होने का चाव जागा था.

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उन्होंने इस उम्मीद में राममन्दिर के लिए कारसेवा समेत विभिन्न आन्दोलनों में तन-मन-धन से भागीदारी की थी कि जब अच्छे दिन आयेंगे तो छुआछूत और गैरबराबरी की विडम्बनाओं से सबक लेकर हिन्दू धर्मसत्ता में उनकी समुचित भागीदारी सुनिश्चित की जायेगी. लेकिन अब ट्रस्ट के ब्राह्मणवादी स्वरूप में उन्हें गैरबराबरी के इतिहास की ही पुनरावृत्ति होती दिखती है.

संघ के अयोध्या निवासी स्वयंसेवक कन्हैया मौर्य यह याद करते हुए अपनी निराशा छिपा नहीं पाते कि तब कहा गया था कि राम तो सबके हैं. किसी एक खास वर्ग, जाति या समुदाय के नहीं. महर्षि वाल्मीकि से गोस्वामी तुलसीदास तक ने ही नहीं, अनेक मुस्लिमों ने भी उनकी कथा गाई है. कई नवाब और बेगमें भी उनकी आराधक रही हैं. इस समझ के तहत ट्रस्ट में मुसलमानों का न सही, सारी या ज्यादातर हिन्दू जातियों का प्रतिनिधित्व होना चाहिए था, लेकिन औपचारिक तौर पर शामिल एक दलित को छोड़ दें तो उसमें एक ही जाति की तूती बोल रही है.

क्या आप इसके खिलाफ किसी मंच पर आवाज उठायेंगे? पूछने पर बेबसी भरे लम्बे मौन के बाद वे कहते हैं, ‘इसके खिलाफ आवाज तो ऊंचे स्तर पर उठनी चाहिए. मैं तो सामान्य-सा स्वयंसेवक हूं. इतने निचले स्तर पर आवाज उठाकर क्या कर पाऊंगा?’

लेकिन कन्हैया मौर्य अकेले नहीं हैं. उनके जैसे ही एक ‘बेबस’ स्वयंसेवक ने अपना परिचय न देने की शर्त पर अपनी मनःस्थिति का बयान करने के लिए हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय की कविता सुनाई- जो पुल बनायेंगे/ वे अनिवार्यतः पीछे रह जायेंगे/सेनाएं हो जायेंगी पार/मारे जायेंगे रावण/जयी होंगे राम/जो निर्माता रहे/ इतिहास में/बन्दर कहलायेंगे.

संभवतः वह कहना चाहता था कि जब तक राममन्दिर के लिए लड़ना था, उसके जैसों की जरूरत थी, यह जताने के लिए भी कि आन्दोलन को व्यापक जनभागीदारी प्राप्त है, लेकिन अब भव्य राममन्दिर में उसकी हालत राम की सेना के बन्दरों-भालुओं जैसी ही रहने वाली है. यह याद दिलाने पर भी उसे ढाढ़स नहीं बंधा कि नौ नवम्बर, 1989 को ‘वहीं’ राममन्दिर का शिलान्यास तो नवगठित न्यास के एकमात्र दलित ट्रस्टी कामेश्वर चैपाल ने ही किया था ओर कौन जाने मन्दिर बनने पर उसमें कोई दलित पुजारी भी रख ही दिया जाये.

इन हालात से उद्वेलित वरिष्ठ कवि अनिल कुमार सिंह एक नया ही सवाल उठाते हैं, ‘अब आरक्षण विरोधियों को आजादी के सत्तर साल बाद राममन्दिर ट्रस्ट में एक जाति को दिया गया नब्बे प्रतिशत से ज्यादा का आरक्षण क्यों नहीं दिख रहा? वे इसके खिलाफ आन्दोलन क्यों नहीं करते?’


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वे यहीं नहीं रुकते. ‘सुझाते’ हैं, ‘ब्राह्मणवादी श्रेष्ठता से सम्पन्न ट्रस्ट को अब अपने राममन्दिर की ‘पवित्रता और श्रेष्ठता’ के लिए यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि उसके निर्माण में शिल्पियों से लेकर पत्थर तराशने व ढोने वालों तक सारे के सारे ट्रस्टियों की जाति के ही हैं. सुना है कि निर्माण कोष के ऑडिट का काम भी उन्हीं की जाति की एक संस्था को दिया गया है.’

यह और बात है कि वरिष्ठ दलित चिंतक आर. डी. आनन्द को राम मन्दिर ट्रस्ट में समाये ब्राह्मणवाद में कोई नयी बात नजर नहीं आती. वे कहते हैं कि इसको संघ के इंगित पर चल रही नरेंद्र मोदी सरकार की ‘दरियादिली’ के तौर पर देखना चाहिए कि उसने उसमें उन ब्राह्मणों को भी सदस्यता देना स्वीकार किया, जो चितपावन नहीं हैं. वरना यह तो बताने की बात भी नहीं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक तो छोड़ सारे सरसंघचालक किस खास ब्राह्मण जाति से आते रहे हैं? संघ की ही तर्ज पर राममन्दिर ट्रस्ट में भी महिलाओं की एंट्री नहीं ही हो पाई है. सोचा गया होगा कि जब वे संघ की स्वयंसेवक नहीं हो सकतीं तो राममन्दिर ट्रस्ट की ट्रस्टी कैसे हो सकती हैं? आर. डी. आनंद यह भी याद दिलाते हैं कि अब तो लोकसभाध्यक्ष ओम बिरला तक ब्राह्मणों को सर्वश्रेष्ठ बता और कह रहे हैं कि समाज में उनका स्थान हमेशा से उच्च रहा है. साथ ही केरल हाईकोर्ट के जज चिताम्बरेश को भी यह कहने से परहेज नहीं है कि ब्राह्मणों में विशेष गुण होते हैं और उन्हें हमेशा केन्द्र में रखा जाना चाहिए.

कई अन्य अयोध्यावासी दलित से राममन्दिर का शिलान्यास कराकर राममन्दिर ट्रस्ट में दलितों व पिछड़ों के प्रतिनिधित्व में कोताही को वे अवध में चली आ रही छुआछूत की एक कुरीति के आईने में भी देखते हैं, जिसमें एक दलित मजदूर ताजा ताजा बने गुड़ को कोल्हार से लाकर सवर्ण मालिक के घर के कूंडे में डाल सकता है, लेकिन एक बार कूंडे में डाल देने के बाद वह उसे छू सकता.

वे कहते हैं कि यह हक की लड़ाई है जो बढ़ती चेतना के साथ आगे भी चलती रहने वाली है.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, इस लेख में उनके विचार निजी हैं)

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