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Saturday, 23 November, 2024
होममत-विमतराम मंदिर, अनुच्छेद 370, तीन तलाक़ के बाद अब क्या है मोदी-शाह के एजेंडे में

राम मंदिर, अनुच्छेद 370, तीन तलाक़ के बाद अब क्या है मोदी-शाह के एजेंडे में

नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी अगला कौन-सा कदम उठाएगी यह अंदाज़ा लगाना विपक्ष के लिए मुश्किल तो है मगर भाजपा अपने एजेंडा को एक के बाद एक लागू करने में पूरी गंभीरता से जुटी है.

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अगर आप यह अंदाज़ा लगाना चाहते हैं कि भारत के विपक्षी नेता इन दिनों किस परेशानी में डूबे हुए हैं तो ट्विस्टर नामक खेल खेलने के लिए उसकी बिसात बिछा लीजिए. अब कल्पना कीजिए कि आप राहुल गांधी हैं और खेल के रेफरी नरेंद्र मोदी हैं. हर बार रेफरी जब चकरी को घुमाते हैं, आपको चटाई पर बने रंगीन धब्बों को छूने के लिए अपने शरीर को ऐंठना-मरोड़ना पड़ता है- बायां पैर पीले धब्बे पर, दायां हाथ लाल पर, दायां पैर हरे धब्बे पर और इस कोशिश में आपका शरीर जवाब दे देता है.

अब आपको पता चल गया होगा कि जब मोदी और अमित शाह रेफरी बनकर चकरी घुमा रहे हों, तब राहुल कितने असहाय महसूस करते होंगे और विपक्षी नेता एक-दूसरे में किस कदर उलझ जाते होंगे. विपक्ष जब तक ‘सूट-बूट की सरकार’ वाला तीर चलाता है, भाजपा पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर में आतंकवादी तंबुओं पर सर्जिकल स्ट्राइक की भड़काऊ कहानियां फैला चुकी होती है. विपक्ष जब तक शासक दल के ‘अच्छे दिन’ के गुब्बारे की हवा निकालने में जुटता है, मोदी बालाकोट में हवाई हमले की कथा बांचने लगते हैं.

इसके बाद तीन तलाक़ को आपराधिक घोषित किया जाता है. अनुच्छेद 370 को रद्द किया जाता है. सुप्रीम कोर्ट अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का रास्ता साफ करने का फैसला सुनाता है. नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) आदि-आदि आता है. विपक्षी नेताओं पर जवाब देने का दबाव बना रहता है और उनकी ज़बान प्रायः लड़खड़ाती नज़र आती है. अब इसके लिए आप उनके बौद्धिक दिवालिएपन या हठीलेपन को दोष दे सकते हैं या मोदी-शाह की होशियारी की तारीफ कर सकते हैं कि जनता की नब्ज पर उनकी पकड़ कितनी मजबूत है या कि वे जमीन से जुड़ी राजनीति करने में कितने माहिर हैं. वे अपने राजनीतिक विरोधियों को हमेशा ट्विस्टर खेल की चटाई पर उलझाए रखते हैं. विपक्ष इस जोड़ी को निरुत्तर या परास्त करना तो दूर, उसकी अगली चाल का अंदाज़ा लगाने में भी विफल रहा है.

राजनीतिक दांव

सीएए, राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) और भारतीय नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरआइसी) पर राजनीतिक फसाद इसका सबसे ताज़ा उदाहरण है. दिल्ली के शाहीन बाग या लखनऊ के घंटाघर पर धरनों से भुलावे में मत पड़िए. लोग भले सड़कों पर आकर विरोध प्रदर्शन कर रहे हों, विपक्षी नेतागण अपने ड्राइंगरूमों में ही बंद हैं और फायदे-नुकसान का हिसाब लगा रहे हैं. इन प्रदर्शनों के चित्र टीवी पर देखकर उनके दिल के तारों में हरकत होती है तो वे खुद को रोक नहीं पाते और ट्वीटर पर अपनी प्रतिक्रिया लिखने लगते हैं. नतीजा यह कि सीएए-एनआरआइसी के सवाल पर भाजपा ही आक्रामक नज़र आती है. वैसे, विपक्ष में घोर आशावादी लोगों का मानना है कि भाजपा के एजेंडा के सारे मूल मुद्दे अब खत्म हो चुके हैं- चाहे वह राम मंदिर, अनुच्छेद 370, समान आचार संहिता (जिसे तीन तलाक़ को अपराध घोषित करके आंशिक तौर पर पूरा कर लिया गया है) क्यों न हो. हाल में कांग्रेस के एक नेता ने खुश होते हुए मुझसे कहा, ‘अब बात करने को उनके पास क्या रहा? आप उन्हीं मुद्दों को चार साल बाद भी नहीं उठा सकते.’ लेकिन लगता है कि ये नेता ही नहीं, विपक्षी खेमे के इनके साथी भी मुगालते में हैं. भाजपा के पास पुराने मुद्दों के बाद अब कम-से-कम तीन ऐसे नये मुद्दे तो हैं ही, जो विपक्षी नेताओं को अभी और लंबे समय तक ट्विस्टर खेल की चटाई पर उलझाए रख सकते हैं.

इन नये मुद्दों की बात करने से पहले मैं बताना चाहूंगा कि भाजपा के एक नेता ने हाल में हुई बातचीत में क्या कहा था. उनका कहना था, ‘आज अगर कांग्रेस सत्ता में होती और हमारी अर्थव्यवस्था की आज जो हालत है वैसी हालत होती तो हम बैलगाड़ियों और ट्रैक्टरों में हजारों किसानों और युवाओं को भरकर लाते और संसद के बाहर, पीएम और तमाम मंत्रियों के निवास और दफ्तर के सामने प्रदर्शन करते. घर-घर जाकर लोगों को इस घपले के बारे में बताते. मगर अपोजीशन वालों को राजनीति करनी ही नहीं आती.’


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नया मूल मुद्दा

तो, भाजपा के नये मूल मुद्दे क्या हैं? पहला तो बेशक सीएए-एनआरआइसी ही है. जरा गिनती कर लीजिए कि मोदी और शाह इस मुद्दे का रोज कितनी बार जिक्र करते हैं. जहां तक एनआरआइसी की बात है, उन्होंने कभी यह नहीं कहा है कि इसे भविष्य में लागू नहीं किया जाएगा. जब भी वे सफाई देते हैं, तब हर बार वे यह जरूर जोड़ते हैं कि ‘फिलहाल नहीं’ लागू किया जा रहा है. एनआरआइसी भाजपा के लिए एक अयोध्या मुद्दा ही है, जिसे जल्दी निपटाया नहीं जाना है. इसका दीर्घकालिक राजनीतिक इस्तेमाल किया जाता रहेगा.

दूसरा मूल मुद्दा होगा- जनसंख्या नियंत्रण. मैं इसे भाजपा के लिए राजनीतिक फायदे के लिहाज से नया समान आचार संहिता सरीखा मुद्दा कहूंगा. प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले साल स्वतन्त्रता दिवस के अपने सम्बोधन में जनसंख्या विस्फोट पर चिंता जाहिर की थी. याद कीजिए कि सरकार के ‘थिंक टैंक’ नीति आयोग ने जनसंख्या नियंत्रण पर पिछले महीने एक बैठक बुलाई थी मगर इसे आगे के लिए टाल दिया था. इसके लिए अभी बहुत जल्दबाज़ी नहीं है. सीएए-एनपीएआर-एनआरआइसी से वैसे ही काफी गर्मी पैदा हो रही है. वैसे भी, आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत तो आबादी वाले मुद्दे को जिंदा रखे ही हुए हैं. संघ दो बच्चे की सीमा तय करने की बात खुद नहीं करना चाहता, वह चाहता है कि भाजपा सरकार ही इसे उठाए. लेकिन थोड़ी भी समझ रखने वाला जानता है कि इस पर बहस अंततः किस दिशा में मुड़ जाएगी. अब भाजपा के रणनीतिकर खूब चौड़े से मुस्करा सकते हैं हैं कि जनसंख्या वाले सवाल पर विपक्षी खेमे में अफरातफरी मचनी ही है.

भाजपा जिस तीसरे मुद्दे पर ज़ोर देने की तैयारी कर रही है वह है- अल्पसंख्यकों को दी जा रही विशेष सुविधाएं. अल्पसंख्यकों के कल्याण की योजनाओं के लिए 47,000 करोड़ रूपये के आवंटन को चुनौती देने वाली एक याचिका के जवाब में मोदी सरकार ने पहले ही कह दिया है कि यह याचिका ‘कानून से संबन्धित अहम सवाल’ उठाती है और इसे पांच जजों की संवैधानिक पीठ को सौंपा जाना चाहिए. याचिका सनातन हिंदू धर्म के वकील विष्णु शंकर जैन ने दायर की है, जो अयोध्या मामले में विहिप की ओर से वकील थे. याचिका में करदाताओं के पैसे को ‘समाज के एक तबके के तुष्टीकरण’ पर खर्च किए जाने को चुनौती दी गई है.

सुप्रीम कोर्ट तो इस मामले पर विचार कर रहा है लेकिन भाजपा और आरएसएस के नेता अल्पसंख्यकों के शिक्षण संस्थाओं- मदरसों से लेकर विश्वविद्यालयों तक- को हासिल अधिकारों और सुविधाओं की कड़ी समीक्षा में जुटे हैं. इन शिक्षण संस्थाओं में नियुक्तियों का मामला पहले ही सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा दिया गया है.

आपात स्थिति के लिए चालें

उपरोक्त तीन मुद्दे- एनआरसी, जनसंख्या नियंत्रण, और मुसलमानों तथा अल्पसंख्यकों के लिए सरकारी योजनाओं तथा उनकी शिक्षण संस्थाओं के मामले- भविष्य में भाजपा के मूल एजेंडा में शामिल होने वाले हैं. विपक्ष सीएए-एनआरआइसी मसले पर तो शंकालु दिख रहा है मगर बाकी दो मुद्दों पर खामोश है. लेकिन भाजपा उस पर दबाव बनाए रखने वाली है. वैसे, आपात जरूरत पड़ी तो मोदी-शाह के तरकस में तीरों की कमी नहीं है. दो तो मैं अभी गिना सकता हूं- लोकसभा चुनाव क्षेत्रों का परिसीमन, और अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) का उप-वर्गीकरण. हालांकि संविधान में 2002 में किए गए संशोधन के कारण परिसीमन 2026 के बाद ही किया जा सकता है, शासक दल इसमें संशोधन करके इसे पहले भी करा सकता है- अगर जरूरत पड़ी तो. सत्ता पक्ष की ओर से परिसीमन की तो कोई बात नहीं की जा रही है मगर मोदी सरकार नई दिल्ली के रायसीना हिल वाले अहम क्षेत्र में बदलाव करने की महत्वाकांक्षी योजना पर काम कर रही है, जिसके तहत नया त्रिकोणीय संसद भवन बनाने की योजना है जिसमें लोकसभा के अंदर 900 से 1000 तक सांसदों के बैठने की व्यवस्था होगी.


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अंतिम मगर महत्वपूर्ण बात यह है कि मोदी-शाह सरकार के लिए सोशल इंजीनियरिंग के विध्वंसकारी फार्मूले को कभी भी लागू करने का विकल्प तो खुला है ही. अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के उप-वर्गीकरण के लिए अक्तूबर 2017 में गठित पेनेल का कार्यकाल बार-बार बढ़ाया गया है. इसकी रिपोर्ट आने के बाद इसकी सिफ़ारिशों को लागू करने का फैसला इस पर निर्भर होगा कि भाजपा के उपरोक्त तीन मूल मुद्दे कितने कारगर होते हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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