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Tuesday, 26 November, 2024
होममत-विमतमुफ़्ती, अब्दुल्ला पर हमले करके BJP चुनावी बाजी भले मजबूत कर ले, कश्मीर में उन्हें हाशिये पर डालना जोखिम भरा साबित हो सकता है

मुफ़्ती, अब्दुल्ला पर हमले करके BJP चुनावी बाजी भले मजबूत कर ले, कश्मीर में उन्हें हाशिये पर डालना जोखिम भरा साबित हो सकता है

मोदी और शाह कश्मीर में स्थानीय नेतृत्व के साथ सहयोग करने की अपनी नीति पर पुनर्विचार करें. कश्मीर के दल अपनी खोयी जमीन फिर हासिल करने की जद्दोजहद में जुटे है. उन्हें धकेलकर राजनीति के हाशिये पर पहुंचाने की कोशिश उन्हें अपनी साख बहाल करने के लिए उग्र रुख अपनाने पर मजबूर कर सकती है.

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जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती को 14 महीने की नज़रबंदी से 13 अक्तूबर को रिहा कर दिया गया. भाजपा के लिए उनकी रिहाई का इससे ज्यादा फायदेमंद समय दूसरा कोई नहीं हो सकता था. जरा देखिए कि उन्होंने बिहार में भाजपा के चुनाव अभियान में किस तरह आग पैदा कर दी है, जबकि इससे पहले तक वह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के कामकाज के रेकॉर्ड से बुरी तरह बोझिल और हताश थी. भाजपा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भले इस बात का श्रेय देना चाहेगी कि उन्होंने शुक्रवार को बिहार में अपनी पहली रैली में अनुच्छेद 370 का मसला उठाकर मुफ़्ती को प्रतिक्रिया करने पर मजबूर किया, लेकिन उनसे भी पहले गृह राज्यमंत्री नित्यानन्द राय मतदाताओं को चेता चुके थे कि अगर राजद बिहार में चुनाव जीत गया तो बिहार कश्मीरी आतंकवादियों का पनाहगाह बन जाएगा.

लेकिन सत्ता दल को पीडीपी की अध्यक्ष का और उनके बाद उनके साथी कश्मीरी नेताओं का भी शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उन्होंने उसी तरह जवाब दिया जैसी कि अपेक्षा (और अनुमान) थी. ‘अनुच्छेद 370’, ‘देशद्रोह’, ‘तिरंगे का अपमान’, और राष्ट्रवाद, सब कुछ बिहार की चुनावी बहस में दाखिल हो चुका है. और भाजपा के नेता श्रीनगर के कश्मीरी नेताओं की बातों को उछाल रहे हैं.

अनुच्छेद 370 के तहत कश्मीर को 5 अगस्त 2019 से पहले वाला विशेष दर्जा दिए जाने की मांग करने वाली छह कश्मीरी पार्टियों के गठजोड़ ‘पीपुल्स अलायंस फॉर गुपकर डिक्लरेशन’ (पीएजीडी) का अध्यक्ष नियुक्त किए जाने के बाद जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फ़ारूक़ अब्दुल्ला गरजे, ‘यह (पीएजीडी) भाजपा विरोधी है, राष्ट्र विरोधी नहीं.’ लेकिन इससे भाजपा नेताओं की नींद नहीं खराब हो रही है. कोई गठजोड़ जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा बहाल किए जाने की मांग करता हो और खुद को भाजपा विरोधी घोषित करता हो, तो फिर भाजपा को भला और क्या चाहिए. और इसके लिए इससे बेहतर समय भी और क्या हो सकता है, जब भाजपा को नीतीश सरकार विरोधी भावना की काट के लिए अपनी ‘राष्ट्रवादी ’ छवि को चमका कर पेश करने की जरूरत हो?

भाजपा विरोध से मुफ़्ती और अब्दुल्ला को क्या मिलेगा

केन्द्रीय मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने अनुच्छेद 370 को बहाल किए जाने से मना कर दिया तो नेशनल कनफेरेंस (एनसी) के नेता और जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने जवाब दिया की प्रसाद को यह ‘जानने का दावा नहीं करना चाहिए’ कि राज्य का विशेष दर्जा खत्म करने के मोदी सरकार के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट क्या फैसला सुनाएगा. कश्मीर के राजनीतिक दलों और नेताओं की उम्मीदें सुप्रीम कोर्ट पर टिकी हैं. हालांकि उन्होंने पीएजीडी का गठन कर लिया है लेकिन उन्हें मालूम होना चाहिए कि मोदी सरकार किसी भी दबाव में 5 अगस्त’19 का अपना यह फैसला नहीं बदलने वाली है. भाजपा तो क्या, इस फैसले का विरोध कर चुकी कांग्रेस भी राज्य का विशेष दर्जा बहाल करने पर कोई वादा करने को तैयार नहीं है. जम्मू-कश्मीर कांग्रेस पीएजीडी की पहली दो बैठकों में शामिल नहीं हुई. सो, जब तक सुप्रीम कोर्ट का फैसला नहीं आता तब तक तो 5 अगस्त’19 का फैसला कायम ही रहने वाला है.

दरअसल, पीएजीडी के गठन का ताल्लुक जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा बहाल करवाने से उतना नहीं है जितना कश्मीरी नेताओं और दलों का अपना वजूद बनाए रखने से है. यह फिर से अपनी राजनीतिक साख और प्रासंगिकता हासिल करने की उनकी कोशिश का हिस्सा है. तीनों पूर्व मुख्यमंत्रियों की लंबी नज़रबंदी का कोई विरोध नहीं सामने आया. न ही उनकी रिहाई पर कोई जश्न मनाया गया. कश्मीर के लोग तटस्थ बने रहे और नेताओं को अपने हाल पर छोड़ दिया. ये नेता बस यह उम्मीद ही कर सकते हैं कि भाजपा विरोध का उनका सुर उन्हें जनता से कुछ सहानुभूति और समर्थन दिलाएगा.


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मुफ़्ती और अब्दुल्ला से मोदी क्यों बात करें

घाटी में मुख्यधारा के नेता आज अप्रासंगिक भले लगें, मगर वक़्त आ गया है कि प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह उन्हें दरकिनार करने के अपने फैसले पर पुनर्विचार करें. गौरतलब है कि राज्य का विशेष दर्जा खत्म करने की संसद द्वारा पुष्टि के दो दिन बाद राष्ट्र के नाम संदेश में मोदी ने जम्मू-कश्मीर के युवाओं को आगे आने की सलाह दी थी, क्योंकि दशकों के पारिवारिक शासन ने उन्हें नेतृत्व करने का मौका नहीं दिया.

मुख्यधारा वाले कश्मीरी नेताओं से जनता के मोहभंग का अंदाजा मोदी ने कितना सही लगाया है, यह बाद के दिनों-महीनों में साबित हो गया. लेकिन उनकी यह अपेक्षा ठोस रूप नहीं ले रही है कि नेताओं की नयी जमात पुरानों की जगह ले लेगी. पिछले अक्तूबर में ब्लॉक डेवलपमेंट काउंसिल (बीडीसी) के चुनाव में ‘ऐतिहासिक 98 प्रतिशत मतदान’ की मोदी ने यह कहकर तारीफ की थी कि यह ‘सभी क्षेत्रों में नये और युवा नेतृत्व का उभार’ दर्शाता है. लेकिन आलोचकों ने याद दिलाया कि उस चुनाव में मतदाता करीब 27,000 पंच और सरपंच ही होते हैं, इसलिए उस मतदान को इस बात का संकेत नहीं माना जा सकता कि जनता ने विशेष दर्जा खत्म करने के फैसले को कबूल कर लिया है.

केंद्र ने अब वहां ज़िला विकास परिषदों (डीडीसी) के गठन करने का फैसला किया है, जिनके सदस्यों का चुनाव सीधे जनता करेगी. इसके पीछे इरादा पंचायती राज व्यवस्था के तीसरे निर्वाचित स्तर का गठन करना है, जो विकास के काम करेगा. केंद्रशासित प्रदेश का प्रशासन पंचों और सरपंचों के खाली पड़े 13,000 पदों के लिए भी उप-चुनाव करवाने की तैयारी कर रहा है. इन कदमों का मकसद विकास के लिए जमीनी स्तर पर ढांचे तैयार करना है. लेकिन यह भी उम्मीद की जा रही है कि इस प्रक्रिया से जो नए नेता चुन कर आएंगे वे नेताओं की नयी जमात बनाएंगे.

मोदी सरकार के इन कदमों ने कश्मीर की मुख्यधारा वाली पार्टियों को दबाव में डाल दिया है और वे इन चुनावों में भाग लेने के बारे में साफ बातें नहीं कर रहे हैं. लेकिन यह मान लेना भी भोलापन ही होगा कि चूंकि कश्मीर के लोग घाटी में मुख्य दलों और नेताओं से निराश हो चुके हैं इसलिए वे अनुच्छेद 370 पर केंद्र के फैसले को भूल जाएंगे और इन नेताओं के विकल्प चुनने की केंद्र द्वारा शुरू की गई प्रक्रिया में भागीदारी करेंगे.

चुने गए कई पंच-सरपंच आतंकवादियों के हमले के डर से होटलों और गेस्टहाउसों में छिपे बैठे हैं.

विशेष दर्जा खत्म किए जाने के 14 महीने बाद भी जम्मू-कश्मीर की जनता में सुलग रहा आक्रोश महसूस किया जा सकता है. ऐसा नहीं है कि कई कश्मीरियों को उम्मीद है कि विशेष दर्जा फिर बहाल कर दिया जाएगा. केंद्र के संभावित कदमों, खासकर जनसंख्या के स्वरूप को बदलने की कोशिशों को लेकर गहरी असुरक्षा और आशंका का भाव बना हुआ है. आज जरूरत इस बात की है कि उनकी इन आशंकाओं को दूर किया जाए, वरना केंद्र के तमाम आश्वासनों से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है. केंद्र को उनके आहत अहं के जख्म पर मलहम लगाने और विकास के अपने एजेंडा में उनका भरोसा जीतने के लिए स्थानीय नेतृत्व के रूप में एक साथी की जरूरत है. घाटी में एक वैकल्पिक राजनीतिक नेतृत्व तैयार करना एक अव्यावहारिक और भ्रामक लक्ष्य है. मोदी और शाह को मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था को ही इस प्रक्रिया में भागीदार बनाना पड़ेगा.

एनसी और पीडीपी आज भले अप्रासंगिक लगें, लेकिन लोग इन्हीं दलों और नेताओं में भरोसा जताते रहे हैं. 2008 और 2014 के विधानसभा चुनावों में घाटी में क्रमशः 51.6 और 56.5 प्रतिशत मतदान हुए. 1989 के चुनाव में मात्र 3.4 प्रतिशत मतदान हुआ था, जो कि राज्य में आतंकवाद शुरू होने के बाद पहला चुनाव था (इससे पहले के 1987 के चुनाव में 76.9 प्रतिशत मतदान हुआ था). सो, 1989 के चुनाव के मद्देनजर यह 2008 और 2014 के चुनाव को तो भारी मतदान वाला चुनाव ही माना जाएगा.

पीडीपी-भाजपा गठजोड़ के नाकाम होने के कारण पिछले लोकसभा चुनाव में घाटी में मतदान प्रतिशत घटकर 19.2 प्रतिशत हो गया. घाटी में परिवार केन्द्रित दलों के बेमानी होने का भाजपा नेताओं का विश्वास 2019 के लोकसभा चुनाव में उनके प्रदर्शन से ही उपजा है. 2019 में एनसी और पीडीपी मिलकर मात्र 3.64 लाख वोट (करीब 10 प्रतिशत) ही जुटा पाए. लेकिन उन दलों की साख कमजोर होने के लिए भाजपा को, जो पीडीपी और एनसी की भी सहयोगी रह चुकी है, ही दोष (या श्रेय) दिया जा सकता है.

वक़्त आ गया है कि मोदी और शाह कश्मीर में स्थानीय नेतृत्व के साथ सहयोग करने की अपनी नीति पर पुनर्विचार करें. कश्मीर के दल अपनी खोयी जमीन फिर हासिल करने की जद्दोजहद में जुटे है. उन्हें धकेलकर राजनीति के हाशिये पर पहुंचाने की कोशिश उन्हें अपनी साख बहाल करने के लिए उग्र रुख अपनाने पर मजबूर कर सकती है.

इस लिहाज से मोदी पहला काम तो यही कर सकते हैं कि अपनी पार्टी के नेताओं को जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने के लिए अपनी छाती ठोकने से रोकें. यह घाटी में बेहद जरूरी सुलह-शांति की प्रक्रिया में अड़ंगा ही लगाता है.

राष्ट्रहित की खातिर उन्हें अपने राजनीतिक हित को पीछे रखना ही पड़ेगा. इसके बाद केंद्र को घाटी में राजनीतिक दावेदारों को यह सुविधा देनी पड़ेगी कि वे जनता के बीच जा सकें और उसे यह समझा सकें कि जो हुआ सो हुआ, अब नए सिरे से शुरुआत की जाए.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(व्यक्त विचार निजी हैं)


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