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Wednesday, 20 November, 2024
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भागलपुर से प्रयागराज तक, भारत को पुलिस एनकाउंटर से इतना खतरनाक प्यार क्यों?

पंजाब, कश्मीर के छोटे-छोटे युद्धों में जिन अपवादों को उचित ठहराया जा सकता था, वे पुलिसिंग के सामान्य ताने-बाने का हिस्सा बन गए हैं. इमरजेंसी रोज की बात हो गई है.

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लखी महतो ने दर्द देने वाले टूलकिट को अपनी ओर धीरे-धीरे आते हुए देखा होगा: एक सिलाई करने वाली सुई, एक नेल फाइल, और सल्फ्यूरिक एसिड से भरी एक सिरिंज जिसे उसकी आंखों में डाला जाएगा. डकैती की योजना बनाने के संदेह में आठ अन्य लोगों के साथ गिरफ्तार, लखी को पूरी रात थाने में पीटा गया था, इससे पहले कि उसे सुअर बांधकर आंगन में लिटाया जाता. इंस्पेक्टर मुहम्मद वसीमुद्दीन ने उसकी एक आंख में छेद कर दिया और सब-इंस्पेक्टर मनकेश्वर सिंह ने दूसरी आंख फोड़ डाली. अंत में, उप-निरीक्षक बिंदा प्रसाद ने घावों में तेजाब डाला.

बाद में पाया गया कि भागलपुर पुलिस ने ऑपरेशन गंगा जल के दौरान सत्ताईस कैदियों को अंधा कर दिया था, लेकिन अधिकांश एक आंख को बचाने में कामयाब रहे. 1980 की उस गर्मी की रात लखी के साथ गिरफ्तार अनिरुद्ध तांती दोनों को बचाने में कामयाब रहे. पत्रकार आर्थर बोनर ने कहा, कि भागलपुर निवासी की पत्नी पुलिस को रिश्वत देने में कामयाब हो गई थी जो 150 रुपये थी. इसकी एवज में वह पुलिस स्टेशन से उसकी सही-सलामत आंखों के साथ बाहर आने में कामयाब हो गया था.

जैसा कि इस हफ्ते हुआ, 16 अप्रैल को गैंगस्टर से राजनेता बने अतीक अहमद की विवादास्पद हत्या के बाद, कई आम लोगों ने खुशियां मनाई. भागलपुर से पत्रकार फरज़ंद अहमद और दिलीप बॉब ने रिपोर्ट किया, “लोगों में इसके प्रति गुस्सा या अस्वीकृति का भाव नहीं था.” बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा ने कहा कि गुस्साई भीड़ ने पुलिस को संदिग्ध अपराधियों की आंखें निकालने में मदद की थी. आखिरकार, तेलंगाना बलात्कार-हत्या मामले में संदिग्धों के 2022 के एक्स्ट्रा-ज्युडिशियल तरीके से मारे जाने के बाद, निवासियों ने आरोपी पुलिस अधिकारियों पर गुलाब की पंखुड़ियां बरसाईं.

एनकाउंटर के प्रति ऐसा प्रेम देश के बारे में एक महत्वपूर्ण कहानी कहता है. भारत के एक बड़े हिस्से में कानून का राज नहीं है, जहां पर सिर्फ भय या आतंक के बल पर सिर्फ बड़े या ताकतवर लोगों का राज दिखता है. क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम तक पहुंच का अभाव की वजह से इस तरह की किलिंग लोगों में थोड़ा कम ही सही लेकिन एक संतोष का भाव जगाता है जिसे प्रतिशोध का सुख कहा जाता है.


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एनकाउंटर की कहानी

19वीं शताब्दी से, औपनिवेशिक अधिकारियों ने स्थानीय सामंती शासकों के साथ जुड़े आपराधिक गिरोहों से लड़ना शुरू कर दिया था, जिन्होंने राजस्व एकत्र करने और न्याय करने के लिए उनका इस्तेमाल किया था. इतिहासकार मार्क ब्राउन ने उल्लेख किया है कि ईस्ट इंडिया कंपनी की बढ़ती क्षेत्रीय शक्ति ने इसे “व्यापारियों को लूटने वालों के इन अर्ध-खानाबदोश समूहों के साथ सीधी प्रतिस्पर्धा में ला दिया.” ठगी और डकैती विभाग 1830 में स्थापित किया गया था और वह इसी से आज के इंटेलीजेंस ब्यूरो का जन्म हुआ था जो कि साम्राज्यवादी अधिकार को लागू करवाने के लिए क्रूर बल का इस्तेमाल किया करता था.

आज़ादी के बाद के नकदी के संकट जूझ रहे भारत ने खुद को फिर से एक बार उसी समस्या का सामना करते हुए पाया. 1953 की एक रिपोर्ट में, इंटेलिजेंस ब्यूरो ने अफसोस जताया कि आपराधिक न्याय प्रणाली की रीढ़, ग्रामीण पुलिस एक प्रभावी बल के रूप में “गायब” हो गई थी. “अपराधियों के बीच पुलिस जो पुराना डर पैदा करती थी, वह काफी हद तक दूर हो गया है.” और यह चलता रहा.

पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए डकैत गिरोहों को संरक्षण देने वालों से अलग नहीं थे. एक बार अभियोजन पक्ष के पुलिस अधिकारियों ने तीन बच्चों की हत्या के लिए कथित रूप से जिम्मेदार अपराधियों के एक समूह को गोली मार दी. ग्रामीण बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के बड़े हिस्से पर व्यावहारिक रूप से स्थानीय जमींदारों का शासन था जो कि क्रमिनल्स ग्रुप्स के जरिए संचालित किया जाता था.

मध्य प्रदेश में पुलिस महानिरीक्षक केएफ रुस्तमजी के नेतृत्व में, राज्य में 1960 के दशक में कानून का राज फिर से लागू होने लगा. बड़े पैमाने पर नरसंहार, अक्सर क्षेत्रीय जातीय तनावों की वजह से बड़े स्तर पर होने वाले दंगों की आग में पूरा देश जलने लगा था. 1962 में विद्वान जॉर्ज फ्लोरिस  ड्रिलि के मुताबिक चूंकि किसी डकैत को पकड़ने के बाद कोर्ट में उसके खिलाफ कुछ भी साबित करने के लिए सबूत मिलने की संभावना बहुत कम होती थी इसलिए माना जाता है कि “पुलिस को जीवित कैदियों को पकड़ने और उन पर मुकदमा चलाने में बहुत रुचि या उत्साह नहीं होता था.”

माओवादियों द्वारा पश्चिम बंगाल में जमींदारों की क्रूर हत्याओं की एक श्रृंखला के बाद, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने फिर से आतंक के इस्तेमाल का आदेश दिया. कोलकाता के काशीपुर और बारानगर में कथित तौर पर नरसंहार देखा गया है जहां युवकों को उनके घरों से घसीटकर बाहर लाया गया और गोली मार दी गई.

महाराष्ट्र में भी यही कहानी सामने आई. 1982 में गैंगस्टर मन्या सुर्वे की कथित न्यायेतर हत्या से लेकर, अपराध सिंडिकेट से जुड़े कई सौ लोगों की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. पत्रकार देवाशीष पाणिग्रही ने लिखा, “एनकाउंटर की पॉलिसी पर न सिर्फ उस वक्त सवाल नहीं उठाया गया बल्कि अंडरवर्ल्ड की कमर तोड़ने के लिए एक आवश्यक कदम के रूप में इसका गर्मजोशी से स्वागत भी किया गया था.” पूर्व पुलिस अधिकारी मैक्सवेल परेरा ने स्पष्ट रूप से कहा कि हर पुलिस विभाग को अपने हिटमैन की जरूरत होती है.

इनमें से कुछ मामले पुलिस अधिकारियों के क्रिमिनल प्रॉसीक्यूशन के साथ खत्म हुए. भागलपुर पुलिस द्वारा अंधा किए जाने की शिकायत करने वाले पहले कैदी अर्जुन गोस्वामी को सत्र न्यायाधीश द्वारा लीगल रिप्रेजेंटेशन दिए जाने से मना कर दिया गया था. सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद अंधा करने में उनकी भूमिका के आरोप में पंद्रह अधिकारियों को निलंबित कर दिया गया था – लेकिन केवल तीन को ही दोषी ठहराया गया था.

एक अपराधी की गैर-न्यायिक हत्या में शामिल एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने मानवविज्ञानी बीट्राइस जौरेगुई को बताया: “उन कस्बों और गांवों के लोग जिन्हें वह आतंकित कर रहा था, वे बहुत खुश थे! उन्होंने मुझ पर गेंदे के फूल फेंके और मुझे अपने कंधों पर बिठा लिया और मुझे घुमाने ले गए. जो अदालतें नहीं कर सकीं, उसके लिए मुझे धन्यवाद देने के लिए स्टेशन पर हजारों की संख्या में कतारें लगी थीं.”

इन घटनाओं ने 1980 के दशक के आतंकवाद विरोधी अभियानों को प्रभावित किया. 1987 की गर्मियों के अंत में, राजिंदर सिंह और उनके परिवार के 11 अन्य सदस्यों की खालिस्तान समर्थक आतंकवादियों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी. अपने खुद के जीवन के डर से, एकमात्र जीवित बचे जोगिंदर सिंह ने, आरोपियों को अदालत में पहचानने से इनकार कर दिया, भले ही उसने अपने परिवार के हर एक सदस्य को खो दिया था. मुकदमे की पैरवी करने वाले वकील के.टी.एस. तुलसी ने बाद में लिखा कि पुलिस ने “खुले मैदान में गोलियों की बारिश में बुराई को चुनौती दी, लेकिन भारतीय अदालतों के दरवाजे पर सिर झुकाए खड़ी रही.”

श्रीनगर की गलियों में बिट्टा कराटे के नाम से जाना जाने वाला फारूक अहमद डार, श्रीनगर में एक सुखी और शांत जीवन जीता था, यह शेखी बघारने के बाद कि उन्होंने कश्मीरी पंडितों को मार डाला; 2011 में उनकी शादी में सैकड़ों लोग आए थे.

2004 में कथित लश्कर-ए-तैयबा के आतंकवादियों इशरत जहां रज़ा और प्राणेश पिल्लई के गैर-न्यायिक एक्जीक्यूशन के द्वारा आतंकवाद-विरोधी दुविधाओं को स्पष्ट रूप से चित्रित किया गया था. यह घटना ऑपरेशनल फैसलों सहित इंटेलीजेंस सूत्रों की सुरक्षा की चिंताओं की एक जटिल श्रृंखला से प्रेरित थी. खुफिया सूत्रों के मारने के फैसले को संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार के उच्चतम स्तर पर मंजूरी दी गई थी.

गैर-न्यायिक हत्याओं के प्रत्येक खुलासे के बाद, नैतिक और न्यायिक रूप से आक्रोश तो दिखा लेकिन वास्तविक रूप से आत्मनिरीक्षण कम दिखा या जवाबदेही तय करने की कोशिश बहुत कम हुई. 1996 में सजाए गए पंजाब पुलिस अधिकारियों के अभियोग के बाद, दिप्रिंट के एडिटर-इन-चीफ शेखर गुप्ता ने यह सवाल पूछा: “सुरक्षा बलों द्वारा इस्तेमाल किए गए तरीकों पर सवाल उठाना पूरी तरह से वैध है, लेकिन यह पूछना ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है कि आदेश कौन दे रहा है उन्हें ऐसा करने के लिए?


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भारत का आपराधिक न्याय संकट

उदार मानदंड और कानून, राजनीतिक व्यवस्था के लिए डिज़ाइन नहीं किए गए थे जहां क्रूर हिंसा आपराधिक न्याय की प्रक्रियाओं को जला देती है: राज्य संस्थानों का पतन हिंसा के सभी सच्चे संकटों की पहली विशेषताओं में से एक है. मिरको बागरिक और जूली क्लार्क जैसे दार्शनिकों व अन्य लोगों ने तर्क दिया है कि राज्य को पतन से बचाने के लिए यातना और गैर-न्यायिक हत्याएं उचित हैं. लेकिन इयान टर्नर जैसे विशेषज्ञ इससे असहमत हैं, उनका तर्क है कि न्यायेतर हत्या और यातना उदार राज्यों की नींव को भ्रष्ट करते हैं.

भारत में समस्या अधिक जटिल है: पंजाब या कश्मीर के छोटे युद्धों को अपवाद स्वरूप भले ही उचित ठहराया जा सकता हो, वे पुलिसिंग के सामान्य ताने-बाने के हिस्से के रूप में अंतर्निहित हो गए हैं. इमरजेंसी तो रोज की बात हो गई है.

सबूत बताते हैं कि गैर-न्यायिक हत्या हिंसा के अंतर्निहित संकट को हल नहीं करती है. जैसा कि निखिल रामपाल ने दिप्रिंट से खुलासा किया है, यूपी में पुलिसिंग की ‘ठोक दो’ आक्रामकता के बावजूद, हाल के वर्षों में बंदूक से संबंधित अपराध लगातार बढ़े हैं. और यहां तक कि जहां न्यायेतर हत्याओं ने व्यवस्था बहाल कर दी है, इसने पुलिस बलों को भ्रष्ट कर दिया है और आपराधिक न्याय संस्थानों को खोखला कर दिया है, जिससे अर्थव्यवस्था पर गंभीर दीर्घकालिक लागतें आ रही हैं.

इसका जवाब भारत की लंबे समय से कर्मचारियों की कमी और संसाधनों की कमी वाली आपराधिक न्याय प्रणाली को कर्मियों, प्रशिक्षण और तकनीक की जरूरत के हिसाब से देने में निहित है. इसके बजाय राज्य और केंद्र सरकारें साजिश रच रही हैं – जैसा कि उपलब्ध आंकड़े बताते हैं – पुलिस संस्थानों के जो कुछ भी छोटे-छोटे अवशेष बचे हैं, उन्हें कमजोर करने के लिए. सवाल यह है: क्या एक अपराधी राजनीतिक वर्ग कभी आधुनिक पुलिसिंग संस्थानों का निर्माण करेगा, जो आखिरकार, खुद को खत्म करने में योगदान देगा?

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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