पाकिस्तानी जासूसी एजेंसी आईएसआई ने भारत और अफगानिस्तान में कई हत्याएं करवाईं और उसके लिए एक से एक नये तरीके अपनाये. उसने अपने टारगेट को कभी भी अंदाजा भी नहीं लगने दिया कि वह आगे क्या करेगा. जब आईएसआई ने भारत में खूनखराबा करने का मन बनाया तो उसने हाफिज़ सईद और जायकुर रहमान लखवी की मदद ली और उन्हें ही नौजवान इकट्ठे करने का टास्क दिया. ये सभी अलग-अलग गांवों या शहरों से थे और छुटभेये अपराधी थे जिन्हें लश्कर ने मज़हब का वास्ता और उनके घर वालों को पैसे देने का लालच देकर इकट्ठा किया था.
मसलन कसाब फरीदकोट के एक गांव के कसाई परिवार का आवारा लड़का था तो इस्माइल खान कहीं और का . लश्कर के मौलवियों ने पूरे देश से इन्हें इकट्ठा किया. ये एक दूसरे को जानते भी नहीं थे. नये लड़के लाने के पीछे उसकी मंशा बहुत साफ थी कि उनके बारे में दुनिया को किसी तरह की कोई जानकारी न मिल सके. पुराने और अनुभवी आतंकियों को भारत भेजने से तुरंत ही भेद खुल जाता. इसमें उसे सफलता भी मिल जाती अगर अजमल कसाब को बहादुर एएसआई तुकराम ओंबले ने चार गोलियां खाकर भी न पकड़ लिया होता.
आईएसआई के इरादे साफ थे कि हमलावर मारे तो जाए लेकिन पकड़े नहीं जाऐं जिससे उनके बारे में कहीं से कोई जानकारी नहीं मिल पाए. आईएसआई के हैंडलरों को लगा कि मुंबई पुलिस या सुरक्षा एजेंसियां सभी को मार गिरा देगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इन लड़कों को जीपीएस देखना, चलाना तो सिखाया गया ही, एके 47 से गोलियां बरसाना भी सिखाया गया. उसकी ट्रेनिंग पक्की थी.
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तीन शहरों के अपराधियों ने अंजाम दिया
ठीक उसी तर्ज पर प्रयागराज में गुंडे अतीक और उसके भाई को मारने के लिए तीन नौजवान सामने आये. उन्होंने आसानी से उन्हें मार भी दिया और पहले तो ऐसा लगा कि यह एक गिरोह है लेकिन जब जांच की रफ्तार बढ़ने लगी तो बात साफ हो गई कि ये अलग-अलग जगहों में रहने वाले अपराधी हैं और इनका आपस में कोई पुराना ताल्लुक नहीं है. सनी कासगंज का रहने वाला है तो लवलेश तिवारी बांदा का और अरूण मोर्य हमीरपुर का.
ये तीनों जगहें दूर-दूर हैं और ये तीनों कभी एक साथ नहीं रहे. इनका किसी कॉमन गैंग से संबंध भी नहीं था. ये अपने दम पर अपराध करते थे और उन्हें कोई शातिर अपराधी नहीं माना जाता था. इनमें से सिर्फ एक पर ही हत्या का एक मुकदमा था. इतने छोटे अपराधियों से हत्या करवाना यह दर्शाता है कि जो कोई पीछे हैं वह अपने ऊपर आंच नहीं आने देना चाहता है. जैसे आईएसआई ने मुंबई के हललावरों को आधुनिक ए के 47 और ग्रेनेड दिये ठीक वैसे ही यहां इस तिकड़ी के पास ज़िगाना पिस्तौलें मिलीं.
ये पिस्तौलें बड़ी तेजी से गोली चलाती हैं और इनमें एक आम 9 मिमी पिस्तौल से ज्यादा गोलियां (15 से 17) भी होती हैं. ऐसे पिस्तौलों को चलाने के लिए थोड़ी ट्रेनिंग चाहिए होती है. इतना ही नहीं भारत के हथियारों के काला बाज़ार में भी ये पिस्तौलें उपलब्ध नहीं हैं. इनकी कीमत काला बाज़ार में भी छह-सात लाख रुपए है और ये तुर्की से आती हैं. यानी जो शख्स या गिरोह पीछे खड़ा हैं वह काफी समर्थ है और उसने इनका इंतजाम किया है. ये पिस्तौलें आईएसआई पंजाब के ड्रग स्मगलरों को सप्लाई करता है. वहां से ही यह कहीं भेजी जाती हैं. ऐसा लगता है कि जो व्यक्ति या गिरोह पीछे है वह काफी मंजा हुआ है. उसने इन पिस्तौलौं की बकायदा खरीदारी करवाई और ट्रेनिंग भी दिलवाई. फिल्मों में पिस्तौल चलाना बड़ा आसान लगता है लेकिन यह इतना आसान होता नहीं है. इसके लिए ट्रेनिंग चाहिए ही.
अब दूसरी बात. ये हत्यारे टीवी न्यूज कैमेरामैन बनकर आये और उन्होंने कैमरा फेंक कर अतीक को गोली मारी. आईएसआई ने यह प्रयोग अफगानिस्तान में अपने सबसे कट्टर दुश्मन अहमद शाह मसूद को मरवाने के लिए 2001 में किया था. उसने अफगान आतंकियों की बजाय पहचान छुपाने के लिए अरब के आतंकवादियों का इस्तेमाल किया था. ये कैमरामैन बनकर आये और उन्होंने कैमरा जैसे ही ऑन किया तो एक धामाका हुआ और अहमद शाह तथा आतंकियों के चीथड़े उड़ गये.
हालीवुड से प्रेरित होता है आईएसआई
लेकिन ऐसा नहीं था कि हत्या की यह प्लानिंग ओरिजिनल थी. आईएसआई हमेशा हॉलीवुड की फिल्मों से प्रेरित होकर हमले करता है. मुंबई के हमले भी हॉलीवुड की एक फिल्म से उधार लिया गया था जिसमें नेवी सील के कुछ जवान स्पीड बोट में जाकर एक अरब देश के आतंकियों को घर में घुसकर ग्रेनेड और आधुनिक हथियारों से उन्हें मारते हैं और जगह को तबाह कर देते हैं. इसी तरह कैमरामैन बनकर मसूद को मारने का आईडिया आईएसआई ने हॉलीवुड के महानायक आर्नल्ड स्वाजिनेगर की फिल्म ट्रू लायज (True Lies) से लिया जिसमें आर्नल्ड का सहयोगी न्यूज कैमेरामैन बनकर आतंकवादी अज़ीज के कब्जे वाले फ्लैट में जाता है और शूटिंग करते ही फायरिंग करने लगता है जिससे अज़ीज तो बच जाता है लेकिन उसके सहयोगी मारे जाते हैं.
यह सब बताने का मकसद यह है कि अतीक की हत्या में जिस भी शख्स या गिरोह का हाथ है वह आईएसआई के तौर तरीकों से पूरी तरह से प्रेरित है. उसे पता था कि अतीक सुरक्षा घेरे में रहेगा और वहां तक सिर्फ पत्रकार या कैमेरामैन ही पहुंच सकते हैं और ऐसे में काम आसान होगा. ऐसा हुआ भी.
लेकिन मुंबई हमलों के विपरीत इन तीनों ने फौरन सरेंडर करके कहानी में एक ट्विस्ट ला दिया है. अगर षडयंत्रकर्ता यह सोच रहा था कि जैसे ही ये गोली चलाएंगे तो सुरक्षाकर्मी जो आधुनिक हथियारों से लैस हैं, उन्हें मार गिराऐंगे तो उसकी यह सोच अधूरी रह गई. इन तीनों ने सरेंडर करके अब पूरी जांच का मार्ग प्रशस्त कर दिया है.
फिलहाल अदालत उन्हें जेल भेज चुकी है और अब पुलिस उन्हें रिमांड पर ले चुकी है. फिर कड़ी पूछताछ होगी और उन्हें उन जगहों पर ले जाया जा सकता है जहां से उन्होंने पिस्तौल लिया था या फिर पुलिसिया सख्ती से टूटकर वे अपने आका का नाम भी बता सकते हैं जो कोई भी हो सकता है. हो सकता है कि कुछ खास न भी हो. ये हत्यारे चुप्पी साध जाऐं. एक और बात है कि मोबाइल फोन का भी यहां इस्तेमाल नहीं हुआ कि पुलिसा कॉल रिकॉर्ड से कुछ पता लगा सके.
बहरहाल यह सारा कुछ बड़े सुनियोजित ढंग से किया गया कत्ल है जिसमें असली मुजरिम ने पीछे रहकर बड़ी सफाई से इतना बड़ा कांड करवा दिया. इसके लिए उसके शातिर दिमाग ने ऐसा षडयंत्र रचा जिसका खुलासा आसानी से नहीं होगा और अगर वह हुआ भी तो वह इतना चौंकाने वाला होगा कि शायद यकीन ही नहीं हो.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. विचार निजी हैं.)
(संपादन आशा शाह)
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